सरोकार की मीडिया

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Monday, November 26, 2012

कसाब को फांसी या डेंगू से मौत


कसाब को फांसी या डेंगू से मौत

26/11 की काली रात कैसे भूलाई जा सकती है। आज ही के दिन अजमल कसाब और उसके साथी मुंबई में खूनी खेल खेल रहे थे। इस खूनी खेल ने 166 लोगों को अकाल मौत के हवाले कर दिया था। अपने आतंकी मंसूबों को अंजाम देने के लिए वह और उसके साथी लगातार फाररिंग कर रहे थे ताकि पूरे देश में खौंफ का माहौल पैदा हो जाए। वहीं इस आतंकवादी के नापाक मंसूबों पर मुंबई पुलिस के एएसआई तुकाराम ओंबले ने अपनी जान की बाजी लगाकर पानी फेर दिया और इस आतंकी जिंदा पकड़ लिया गया। विशेष अदालत ने कसाब को मुंबई में कहर बरपाने और लोगों की जान लेने के अपराध में दोषी पाते हुए फांसी की सजा सुनाई। फांसी के फैसले पर आतंकवादी के वकील ने राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका दायर की और कहा कि कसाब की उम्र को देखते हुए फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया जाए। वहीं देश की तमाम जनता इस आतंकवादी को जल्द से जल्द फांसी देने के लिए सरकार से गुहार लगा रही थी। जबकि सरकार 26/11/2008 से 20/11/2012 तक कसाब की देखरेख में करोड़ों रूपए खर्च कर रही थी।
देश की जनता सरकार से फांसी पर हो रहे विलंब का करण जानना चाहती थी, जिसके एवज में सरकार द्वारा आए वयान ने जनता को सकते में डाल दिया कि इससे पहले बहुत से लोग और है फांसी देने के लिए। जब इन लोगों को फांसी दे दी जाएगी तभी इसका नबंर आएगा। यही राग वह 2008 से अलापती चली आ रही है। फिर वह कौन से कारण सरकार के समक्ष उपजे कि आनन फानन में कसाब को बिना किसी को सूचना दिए फांसी पर लटका दिया गया। यह बात मेरे और मेरे बहुत से साथियों के गले नहीं उतर रही है।
अगर कुछ बिंदुओं पर गौर किया जाए तो सरकार की हकीकत शायद सभी के सामने आ जाए-
1.भारत में नाटा मलिक की मौत के बाद कोई भी जल्लाद नहीं बचा था। तब किस जल्लाद ने कसाब को फांसी दी। उस जल्लाद का नाम अभी तक सामने क्यों नहीं आया?
2.पहले से मौजूद आतंकवादी को फांसी न देकर कसाब को ही क्यों फांसी दी गई। जबकि सरकार का कहना था कि पहले 17 लोगों को फांसी दी जाएगी तभी कसाब का नबंर आएगा।
3.फांसी की तारीख पहले से ही क्यों तय नहीं की गई, ताकि जनता भी जानती की आज कसाब को फांसी दी जानी है। वहीं गृहमंत्री सुनील शिंदे के अनुसार फांसी की सूचना सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री तक को नहीं थी। क्या ऐसा संभव है?
4.कसाब को डेंगू था, क्या उसका डेंगू ठीक हो गया था। इस संबंध में कोई सूचना किसी को नहीं है। यदि कसाब को डेंगू था तो उसे फांसी कैसे दी जा सकती है। क्योंकि जब तक कोई अपराधी पूरी तरह से स्वस्थ्य नहीं हो जाता, तब तक उसे फांसी नहीं दी जा सकती।
ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो मेरे मस्तिष्क में 21 नवंबर से ही गंूज रहे हैं। कहीं कसाब की मौत डेंगू से तो नहीं हो गई थी और सरकार के इशारे पर सरकार के नुमाइंदों द्वारा फांसी की मनगढ़त कहानी समाज के सामने परोस दी गई। और तो और मीडिया ने भी इसकी तह तक जाने की कोशिश भी नहीं की। वह भी सरकार के नुमाइंदों की बोली बोलता नजर आया।
शायद सरकार कसाब की झूठी मौत पर वाहवाही लूटना चाह रही है, क्योंकि 2014 के चुनाव नजदीक आने वाले हैं। और वह जनता को अपने पक्ष में करना चाहती है। इस पूरे ऑपरेशन जिसमें न तो बाई शामिल है और न ही डब्लू, और नाम दे दिया गया ऑपरेशन एक्स। सोचने वाली बात है। सोचने वाली बात तो यह भी है कि सरकार का रवैया यदि आतंकवादियों के खिलाफ ऐसा ही कड़ा होता तो कब के अफजल गुरू और उस जैसे लोग यमराज के दरबार में हाजरी लगा रहे होते। गौर फरमाया जाए तो कसाब को भावी सरकार ने 4 साल तक पाला वहीं अफजल गुरू को 11 सालों से दमाद की भांति आज भी पाल रही है।
मेरे हिसाब से यदि वास्तव में अजमल कसाब की मौत डेंगू से नहीं, उसे फांसी देने से ही हुई है तो उसको 21 नवंबर की वजह आज के ही दिन फांसी देनी चाहिए थी ताकि जनता को यह खुशी तो मिलती कि आज के दिन कसाब के द्वारा बरपाया गया कहर और आज के ही दिन इस आतंकवादी का खातमा भी हो गया।    

Thursday, November 8, 2012

भूमंडलीकरण, संस्कृति और मीडिया



भूमंडलीकरण, संस्कृति और मीडिया

समकालीन परिवेश में हमारे प्रतिदिन के जीवन चक्र में और लगभग सभी क्षेत्रों में मीडिया का हस्तक्षेप बहुत बढ़ गया है, इसके अनेक कारण हैं। मीडिया के विभिन्न जनसंचार माध्यमों ने हमें सनसनीखेज ख़बरों का आदी बना दिया है। ‘‘इतिहास, कला, संस्कृति, राजनीतिक घटना आदि सभी क्षेत्र में सनसनीखेज तत्व हावी हैं। सनसनीखेज ख़बरें जनता के दिलो-दिमाग पर लगातार आक्रमण कर रही हैं।’’ इस हमले में अधिकाधिक सूचनाएं होती हैं। हालांकि, इन सूचनाओं की व्याख्या करने और इसकों ग्रहण करने की आवश्यकता में निरंतर गिरावट आ रही है। आज मीडिया जनता को संप्रेषित ही नहीं कर रहा बल्कि भ्रमित भी कर रहा है। यह कार्य वह अप्रासंगिक को प्रासंगिक बनाकर, पुनरावृत्ति और शोर के साथ प्रस्तुत कर रहा है। हम बराबर मीडिया से क्लिपेंसुन रहे हैं। इस सबके कारण जहां मीडिया ज्यादा से ज्यादा सूचनाएं दे रहा है, वहीं दूसरी और कम-से-कम सूचना संप्रेषित कर रहा है। खास तौर पर टेलीविजन। स्मृति और घटना के इतिहास से इसका संबंध पूरी तरह टूट चुका है। यह वैश्विक मीडिया का सामान्य फिनोमिना है।
‘‘वैश्विक मीडिया मुगल अपने साम्राज्य को बढ़ाने के लिए मीडिया में ज्यादा-से-ज्यादा निवेश कर रहे हैं। साथ ही नई मीडिया एवं सूचना तकनीकी का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। राजनीतिक तनाव और टकराव के क्षेत्र में शासक वर्गों के साथ मिलकर हस्तक्षेप कर रहे हैं। उन सरकारों अथवा तंत्रों के खिलाफ जनता को गोलबंद कर रहे हैं जिन्हें वे पसंद नहीं करते।’’ भूमंडलीकरण और मीडिया मुगल की युगलबंदी स्थानीय, क्षेत्रीय और वैश्विक अभिरूचियों, संस्कारों और संस्कृति के बीच समायोजन का काम कर रही है।
इस आलोच्य में कहें तो ग्लोबलाइजेशन अर्थात् भूमंडलीकरण को प्रभावी बनाने में परिवहन, संचार और साइबरस्पेश की आधुनिक तकनीकों की केंद्रीय भूमिका रही है। मीडिया में इससे संबंधित स्वरूपों, प्रतीकों, मॉलों और लोगों का प्रसारण बढ़ा है। पूंजी का विनियमन हुआ है। संस्कृति और इच्छाओं की अभिव्यक्ति केंद्र में आ गई है और साम्राज्यवाद का एक नया स्वरूप उभरकर सामने आ चुका है। यहां साम्राज्यवाद के रूप में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद, मीडिया साम्राज्यवाद जैसे तत्व हैं। कहना गलत न होगा कि ‘‘भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में ग्लोबलका लोकलपर प्रभाव पड़ रहा है। इस प्रभाव के प्रतीक हैं- ग्लोबल ब्रांड’, यथा मैकडोनाल्ड, बर्गर किंग, पीजा हट, निकी, रीबॉक, बहुराष्ट्रीय चैनल, संगीत उद्योग और ग्लोबल विज्ञापन। वस्तुतः ग्लोबलाइजेशन ने पूरे विश्व को एक वैश्विक बाजार में बांध दिया है।’’ ‘‘आर. राबर्टसन ने ग्लोबलाइजेशनः सोशल थ्योरी एंड ग्लोबल कल्चर (1992) में वैश्वीकरणके लिए ग्लोबलाइजेशनशब्द का प्रयोग किया है। इसमें ग्लोबलऔर लोकलके द्वंद्व व अंतर्विरोधों की चर्चा की गई है। साथ ही यह बताया गया है कि कैसे ग्लोबल और लोकल संपर्क करते हैं।’’ उदाहरण के तौर पर नेशनल ज्योग्राफीचैनल में स्थानीय, जातीय या कबीलाई जनजीवन की प्रामाणिक कवरेज व जीवन शैली के प्रसारणों में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के नजरिए से लोकल के ग्लोबल स्तर पर जनप्रिय बनाए जाने की प्रक्रिया को देखा जा सकता है। इससे लोकल के प्रति संवेदनाएं पैदा करने में मदद मिलती है।
आज भूमंडलीकरण और मीडिया के अंतः संबंध के कारण वर्ण संकर संस्कृति और वर्णसंकर अस्मिता के सवाल केंद्र में आ गए हैं। ‘‘बहुराष्ट्रीय कंपनियां जहां इकसार संस्कृति निर्मित कर रही हैं वहीं दूसरी ओर वर्ण संकर संस्कृति और वर्णसंस्कृति अस्मिताओं को पेश कर रही है। भूमंडलीकरण के कारण मुद्रा, वस्तु व्यक्ति को निरंतर क्षेत्रीय सीमा का अतिक्रमण करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि वैश्वीकरण जिस क्रॉस संस्कृति का निर्माण कर रहा है, वह संस्कृति का सतही और क्षणिक रूप है।’’ आज भूमंडलीकरण के कारण पलायन का तत्व सामाजिक जीवन की धुरी बन चुका है। अब हम जातीय पलायन के रूप में जनता के एक जगह से दूसरी जगह निर्वासन, स्थानांतरण, शरणार्थी समस्या और घूमंतुओं को जगह-जगह देख सकते हैं। उसी तरह स्थानीय मीडिया के बजाय ग्लोबल मीडिया के बढ़ते हुए प्रभाव और उपभोक्ता संसार को हम मीडिया पलायन कह सकते हैं। साथ ही अब विचारधारात्मक पलायन के तौर पर विचारधारा के नए रूपों में नागरिकता, स्वतंत्रता, मानवाधिकार, जनतंत्र, विवेकवाद आदि का जन्म हुआ है। ‘‘जेम्स करन और एम.जे. पार्क ने बताया है कि मीडिया में ऐसी बेशुमार सामग्री प्रसारित की जा रही हैं जो भूमंडलीकरण, संस्कृति और मीडिया के बारे में प्रचलित तमाम किस्म की सैद्धांतिकी को ख़ारिज करती है। आज काल्पनिक अस्मिता की ग्लोबल और लोकल दोनों ही छवि फीकी नजर आ रही है।’’
मीडिया बाजार का विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि ‘‘अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अपने देश में मजबूत आधार है या सबसे ज्यादा बड़े शहरों में आधार है। इसमें विकासशील देशों में मेक्सिको शहर, संघाई, ब्राजिंग, मुंबई, कोलकता, कैरो, जकार्ता आदि प्रमुख है। यदि भाषाई आधार पर गौर करें तो प्रथम दस भाषाओं में चीनी पहले नंबर पर है। इसके बाद हिंदी आदि का नाम आता है। हकीकत तो यह है कि मीडिया प्रवाह पर सात बड़े औद्योगिक राष्ट्रों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों का साम्राज्य है। इनमें से अधिकांश अमेरिका की हैं।’’ और कहना गलत न होगा कि ये विश्व के लगभग 90 प्रतिशत जनंसख्या पर अपना अधिपत्य जमाए हुए हैं। आज विश्व मीडिया विमर्श में केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण के प्रश्न केंद्र में है। इस विमर्श में निम्नलिखित चार बिंदुओं पर एक आम सहमति खींची जा सकती है, यथा-
·        विकेंद्रीकरण के लिए विकेंद्रीकृत जनतंत्र और बहुलतावाद जरूरी है।
·        विविध माध्यमों की आवाज पर गौर करना चाहिए।
·        मीडिया जगत में वैविध्यपूर्ण अभिव्यक्ति का दायरा सिकुड़ता जा रहा है।
·        मीडिया तकनीक के उच्चतम रूप बेहद खर्चीले हैं।
हालांकि मीडिया में विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को तकनीक उन्नति ने संभव बनाया है और निरंतर बना रहा है। पर्सनल कंप्यूटर, वर्ड प्रोसेसर, ग्राफिक डिजाइन, केबल प्रसार, इंटरनेट आदि ऐसे ही उत्पाद हैं। लेकिन एक सीमा तक यहां भी पूंजी है। अतः जो जितनी पूंजी निवेश कर सकता है उसके सामने संप्रेषण की उतनी ही बड़ी संभावनाओं के द्वार खुले हैं।
इस समूची प्रक्रिया ने ‘‘मार्शल मैकलुहान की धारणा यह स्पष्ट करती है कि माध्यम ही संदेश है अर्थात् मीडिया का प्रभाव संप्रेषित कंटेंट अर्थात् अंतर्वस्तु से कहीं ज्यादा होता है। अथवा हम यह भी कह सकते हैं कि मीडिया जो कहना चाहता है, प्रभाव उससे कहीं ज्यादा होता है। अस्तु माध्यम ही संदेश है, इस धारणा का बार-बार हमें बदलती हुई परिस्थितियों में मूल्यांकन करना चाहिए।’’ चूंकि, हमारी सोच अंतर्वस्तु के मूल्यांकन का आदी है अतः हम यह सोचने के लिए तैयार ही नहीं है कि माध्यम भी संदेश हो सकता है। यह सच है कि कोई भी माध्यम बगैर संदेश के नहीं होता। ठीक उसी प्रकार यह भी सच है कि कोई संदेश माध्यम के बिना हम तक नहीं पहुंच सकता। कहने का मतलब है कि कंटेंट को कम करके नहीं आंकना चाहिए। किंतु, कंटेंट पर इस कदर भी जोर नहीं देना चाहिए कि माध्यम का महत्त्व घट जाए।
अस्तु, वैश्विक संस्कृति स्वभावतः सांस्कृतिक मुठभेड़ के जरिए विकास करता है। विचारों, मूल्यों एवं संस्कृतियों में सम्मिश्रण की गति आज इतनी तेज है, वैसी पहले कभी दर्ज नहीं की गई। इस संदर्भ में वैश्विक संस्कृति के साथ विभिन्न धर्मों का अंतर्विरोध भी है साथ ही विभिन्न धर्मों की धार्मिकता की बाढ़ भी दिखाई देती है। ध्यातव्य रहे कि धार्मिक विचारधाराओं को ग्रहण करके आधुनिक राज्य का उदय हुआ था किंतु भूमंडलीकरण के कारण इस आधुनिक राज्य को सबसे गंभीर चुनौतियां धार्मिक तत्वादियों से मिली है। मूल बात यह है कि मीडिया के आलोक में भूमंडलीकरण और भूमंडलीय संस्कृति का धर्म, धार्मिकता और धार्मिक तत्ववाद से वैचारिक तौर पर गहरा संबंध है। यह वस्तुतः प्रतिगामी संबंध है। इसलिए सांस्कृतिक लोकतंत्र के निर्माण में जनमाध्यम महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। इस क्रम में जनमाध्यमों के स्वरूप को जानना व समझना होगा। और, इस समग्रता के तहत मीडिया घटक एवं उसके प्रभाव का विश्लेषण अनिवार्य हो जाता है।
वैश्वीकरण मूल रूप से आर्थिक सुधार एवं प्रगति से संबंधित प्रक्रिया है। यह जहां एक और संवाद की बात करता है वहीं दूसरी और आकाशीय तथ्यों पर भी जोर देता है। इसके तीन आर्थिक पहलू होते हैं-‘‘खुला अंतरराष्ट्रीय बाजार, अंतरराष्ट्रीय निवेश और अंतरराष्ट्रीय व्यक्ति। इसका उद्देश्य सभी देशों को एकीकृत बाजार में रूपांतरित करना है। वैश्वीकरण के चिंतन का उदय मुख्य रूप से अस्सी के दशक में हुआ था, परंतु इसकी अवधारणा अति प्राचीन काल से ही मानव समाज में विद्यमान थी। जहां 17वीं सदी के मध्य में इंग्लैंड का उपनिवेशवाद आरंभ हो गया था, वहीं फ्रांस ने भी इस दिशा में अपने पाँव फैलाना शुरू कर दिया था। उपनिवेशवाद का परिणाम ही वैश्वीकरण के रूप में सामने आया।’’
वस्तुतः भूमंडलीकरण जिस बाज़ारवाद की विवेचना करता है उसका आधुनिक रूप भारत में आज से 11 वर्ष पहले सन् 1991 के आर्थिक उदारीकरण एवं खुले बाज़ार की नीति के तहत सामने आया। इसका उद्देश्य न केवल अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाना था बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत को आर्थिक रूप में खड़ा करना था। ‘‘इसके परिणाम के रूप में गरीबी उन्मुलन, रोजगार में वृद्धि, श्रम में गुणवत्ता की परिकल्पना की गई थी। इस परिकल्पना को मूर्त रूप प्रदान करने के उद्देश्य से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वार भारत में खोल दिए गए। इसके बाद की स्थिति पूर्ण रूप से विदेशी कंपनियों के पक्ष में बनती चली गई।’’ ये कंपनियां अधिकाधिक लाभ कमाने के उद्देश्य से एक नई सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिवेश का निर्माण कर रही हैं। इनके प्रभाव से जनसंचार माध्यम भी अछूते नहीं हैं। इनके द्वारा एक ऐसे परिवेश का निर्माण किया जा रहा है जो भारतीय उपमहाद्वीप के लिए सर्वथा प्रतिकूल है। विदेशी कंपनियों के आगमन ने तो भारतीय उद्योगों के अस्तित्व पर प्रश्न-चिह्न खड़ा कर दिया है। इसके प्रभाव में रंगा मीडिया जाने-अंजाने अश्लीलता, आतंकवाद, पृथकतावाद, सांप्रदायिकता आदि को बढ़ावा दे रहा है। साथ-ही-साथ मीडिया साम्राज्यवाद को भी बल मिल रहा है। आज जनमाध्यम सांस्कृतिक तौर पर समृद्ध बहुजातीय राष्ट्रों में मनोरंजन के नाम पर अभिजात्यवाद, उपभोक्तावाद और राष्ट्रीय विखंडन को बढ़ावा दे रहे हैं। हमें राष्ट्रीय हित में मीडिया को नीतियों के स्तर पर इस रूप में स्वीकार करने की आवश्यकता है जिससे लोकतांत्रिक मूल्य संरक्षित रहें।

Friday, November 2, 2012

कुछ तो करना होगा


कुछ तो करना होगा
आज देश के हालात और स्थिति दोनों गुलामी की ओर पुनः ले जाती हुई दिखाई दे रही है। इस चिंताजनक स्थिति तक देश को पुहंचाने वाले और कोई नहीं हमारे देश के अपने ही लोग हैं। उन लोगों से आप सब भलीभांति परिचित हैं। जिनको सिर्फ देश के लुटेरों की परिभाषा से संबोधित किया जा सकता है। हां वैसे हमारे बीच के ही कुछ लोग उनके नाम के आगे माननीय शब्दों का भी प्रयोग करते हैं। और अपने आप को उनका प्रतिनिधि, कार्यकत्र्ता, दास या चमचा कहलाने में गौरंवित महसूस करते हैं।
देश की चिंताजनक स्थिति को देखते हुए दिमाग इतना असमजस्य में पड़ जाता है कि इनका क्या किया जाए, कभी-कभी तो माननीय भ्रष्टाचारों और उनके पदचिह्नों पर चलने वालों को गरियाने का या सरे आम बीच चैराहे पर मुंह काला व नंगा करके जूतों और चप्पलों से पिटाई के बाद गोली मारने का मन करता है। परंतु देश का कानून इसकी इजाजत नहीं देता। अगर संविधान के कानून में ऐसा कोई भी नियम होता कि जो भ्रष्टाचारों में लिप्त हो या देश को बर्बादी की ओर ले जा रहा हो उसको कुत्ते की मौत दी जा सकती है तो अभी तक कई आजाद व गोडसे पैदा हो गए होते।
हां मैं बात कर रहा हूं आजादी से पहले गांधी, आजादी के बाद गांधी परिवार की। साथ-ही-साथ उन्हीं के पद चिह्नों पर चलने वाले तमाम नेताओं की। मैं किसी एक नेता या एक पार्टी विशेष पर टीका-टिप्पणी नहीं कर रहा हूं। मैं तो वो तमाम नेताओं व उनकी पार्टियों पर उंगली उठा रहा हूं जिन पार्टियों से यह नेता लोग सरोकार रखते हैं। जिनके नाम से यह जनता को दिन-रात लूटने की प्रतिदिन नई-नई योजनाएं बनाते रहते हैं। क्योंकि जनता ही अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजती है। इसलिए पांच सालों तक इनके पास आस लगाने के सिवाए और कोई चारा नहीं बचता। जो एक-दो इनके कार्य-कलापों को विरोध करते हैं उन पर अत्याचारों का और विरोध को पूर्णतः दबाने का प्रयास पुरजोर तरीके से किया जाता है। क्योंकि सरकार जानती है कि एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। वो गलतफहमी में है, हां एक चना भाड़ तो नहीं परंतु यदि वो चना फटे तो किसी-न-किसी की आंख जरूर फोड़ सकता है। वहीं संपूर्ण जनता बिन पैंदी के लौटे की भांति इधर-उधर लुढकती रहती है। दो-पांच साल इधर, दो-पांच साल उधर। वो भी कभी जाति के नाम से, कभी लालच की वजह से और बहुत से लोग इन नेताओं द्वारा किए गए चुनावी वादों के मोह में आकर। जो हमेशा वादे ही रह जाते हैं उन वादों को अमल में लाते-लाते 1835 दिन या 438300 घंटें और-तो-और पूरे-के-पूरे 2628000 मिनट बीत जाते हैं। हां हर नेता अपनी तिजौरी को भरने का काम जरूर करते रहते हैं।
आजादी के पहले और बाद में कुछ नेता शायद अपवाद स्वरूप इस देश की स्थिति को सुधारने के लिए परिलक्षित हुए होगें, अब तो वो भी नहीं दिखाई देते। हर एक नेता ने ईमानदारी और शराफत का मुखोटा लगा रखा है। एक नकाब तो दूर की बात है मुखोटे के ऊपर भी मुखोटा लगा रखा है। ताकि मुखोटे के पीछे छिपे भ्रष्टाचारी, लूटखोरी, गरीब जनता का खून चूसने वाला ड्राकुला वाला असली चेहरा छिपा रहे। जैसा कि हम लोग पहले इच्छाधारी नाग-नागिनों पर आधिरित फिल्में देखा करते थे कि 24 घंटों में एक बार जरूर नाग-नागिन अपने असली रूप में आते दिखाई देते थे। हालांकि इन नेता पर यह भी लागू नहीं होता। यह तो पांच सालों के लंबे अतंराल में कभी भी, कहीं भी अपने असली रूप में प्रकट हो जाते हैं। यदि इनके असली रूप को कोई आम इंसान देख ले तो इनके असली रूप को छिपाने के लिए संपूर्ण नाग प्रजाति बचाव में उतर आती है अपने-अपने जहर का इस्तेमाल करने के लिए। ताकि किसी और नाग का असली चेहरा समाज के सामने न आ सके।
आप सभी सकते में जरूर होगें कि मैं सभी नेताओं को गरिया रहा हूं, वैसे मैं इन नेताओं को गरिया के अपना ही मुंह खराब कर रहा हूं, क्योंकि इन नेताओं पर जब गरीबों की हाय, बद्दुओं का कोई असर नहीं होता तो मेरे गरियाने से इनका क्या बिगड़ने वाला है। फिर भी जैसा मैंने पहले कहा कि इनको तो सरे आम बीच चैराहे पर जूतों-चप्पलों से मारना चाहिए क्योंकि यह नेता इसी लायक हैं। वैसे आप सब तो जानते ही हैं कि कुछ एक नेताओं ने इसका भी स्वाद चख लिया है। अब बारी है सरे आम चैराहे पर घसीट कर लाने की। क्योंकि देश को इस स्थिति तक लाने वाले यही नेता है।
फिर भी देश की इस स्थिति को देखकर अब तक हम सब हाथों-पे-हाथ रखकर तमाशा देख रहे हैं। करना तो कुछ पडे़गा ही। देश की जनता को चाहिए कि इन नेताओं के सम्मोहन की नींद से जागें और लूटखारे व भ्रष्टचारी नेताओं का खात्मा करके भारत मां को बचाने का प्रयास करें। नहीं तो यह नेता अपने स्वार्थों के चलते कहीं अपने देश का ही न दांव पर लगा दे। और हम पुनः आजाद से गुलाम न बन जाए। जिस आजाद भारत की सुबह की किरणों को देने में हमारे पूर्वजों ने अपने प्राणों की भी परवाह तक नहीं की। और हमें आजाद भारत के आसमान तले स्वतंत्रता हवा प्रदान की। जिसको यह नेता दूषित कर रहे है।