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Friday, October 26, 2012

समलैंगिकता का समाजशास्त्र


समलैंगिकता का समाजशास्त्र


ब्रिटिश सरकार द्वारा 1860 में बनाई गई भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को भारत में दंडनीय अपराध बनाया गया। धारा 377 के अंतर्गत यह इंगित किया गया कि कोई पुरुष, स्त्री, या जीवजन्तु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध स्वैच्छया इन्द्रीय भोग नहीं करेगा, यदि वह इन कृत्यों में पाया जाता है तो आजीवन कारावास (जिसकी अवधि दस वर्ष तक की होगी) दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा।
भारत में इस धारा के अन्तर्गत न केवल पुरुष समलैंगिकता को अपितु किसी स्त्री या पशु के साथ भी अप्राकृतिक मैथुन को अत्यन्त गंभीर अपराध मानते हुए भारी दंड से दंडित करने का प्रावधान है। जबकि ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और अमरीका में इस तरह के अपराधों मानने वाले कानूनों को समाप्त किया जा चुका है।
समलैंगिकता की दृष्टि से देखा जाए तो इसका उद्भव प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में मृत्यु के भयानक तांडव को देखकर पश्चिम के लोग यह सोचकर भोगवादी हो गए कि जब जीवन का कोई ठिकाना ही नहीं है तब फिर नैतिकता को ताक पर रखकर क्यों नहीं जीवन का आनंद लिया जाए? इस सोच ने बड़ी तेजी से वहां के समाज में यौन-स्वच्छंदता को मान्यता प्रदान करने में मदद की। और इसी सोच से जन्म हुआ सार्वजनिक-समलैंगिकता के इस विषवृक्ष का। बेशक कहा जा सकता है कि समलैंगिक व्यवहार पहले भी समाज में प्रचलित था लेकिन ढके-छिपे रूप में, खुलकर समाज में प्रचलन नहीं था।
इस आलोच्य में कहें तो समलैंगिकता भारतीय समाज से निकल कर नहीं आई है। समलैंगिक की पृष्ठभूमि और तौर-तरीके से ही साफ स्पष्ट होता है कि इसकी प्रेरणा यूरोपीय या पश्चिमी समाज से आई है। उनके व्यवहार से साफ प्रतीत होता है कि यह एक ऐसे समाज की देन है जिसमें विषमता और असमानता के ज्यादा बुनियादी आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक पहलू लगभग हल कर लिए गए हैं। यह एक ऐसे समाज की समस्या लगती है जो सहज उपभोग से अघाया हुआ समाज है और स्वाभाविक संवेदनों से इतना ऊब गया है कि उसे नित नए और सनसनीखेज उपायों की जरूरत महसूस होती है। यह सनसनीखेज सोच पश्चिमी समाज समलैंगिकों की समानता की लड़ाई लड़ सकता है। परंतु भारतीय समाज में व्याप्त भुखमरी, बेरोजगारी और सब तरह की मजबूरियों में किसी प्रकार जीते हुए रोटी, कपड़ा और मकान की लड़ाई लड़ने वाले अधिसंख्य लोग समलैंगिकों की समानता की लड़ाई नहीं लड़ सकते। लेकिन पश्चिमी में भी ईसाइयत ने अगर लैंगिक और मैथुनिक संबंधों पर इतना कट्टर रवैया नहीं अपनाया होता तो वहां भी समलैंगिकों को ऐसा संघर्ष नहीं करना पड़ता।
इस मामले में मीडया पर हुई बहस का विश्लेषण करें तो  वहां पर सवाल कुछ ऐसे ढंग से उठाए गए कि समलैंगिकों और समलैंगिकता का समर्थन करना प्रगतिशीलता और विकसित होने का सबूत हो और जो लोग सहज प्रकृतिक स्त्री पुरुष लैंगिकता का आग्रह कर रहे हों वे पुराणपंथी और पारंपरिक किस्म के घटिया लोग हों। इससे बड़ी मानसिक विकृति कोई हो नहीं सकती। किसी भी सभ्यता संस्कृति ने समलैंगिकता को प्राकृतिक मान कर उसका उत्सव नहीं मनाया.
लेकिन मीडिया इसे कुछ ऐसे पेश करता है जैसे समलैंगिकता को स्वीकार करना विकसित होना है। पश्चिम में यूरोप के विकसित समाज ने इसे मंजूर किया है तो यह निश्चित ही तरक्की की निशानी है। जो कि यूरोपीय समाज का धर्म है वहां के लोगों के मन में समलैंगिकता पर कैसी वितृष्णा भर रखी है और वहां इस वर्जना से मुक्त पाना कैसी स्वतंत्रता है। अगर कहा जाए तो भारत में पहले तो धर्म ही संगठित नहीं है फिर भी स्थानीयता और व्यक्तिमत्तता को बहुलता और विविधता ने खूब अच्छी तरह समो रखा है। ध्यातव्य है कि महाभारत के महावीर अर्जुन को जब पांडवों के वनवास में छद्म रूप में रहना था तो वे बृहन्नला बन कर रहे।
लेकिन मीडिया भारतीयता को भी पश्चिमी और अंग्रेजी रास्ते से ही स्वीकार करता है। और जब तक यूरोप और अंग्रेजी-समलैंगिकता और नपुंसकता की भारतीय समाज व्यवस्था में जगह को परिभाषित नहीं करती तब तक हम उन्हें ईसाइयत की नजर से ही देखते जाएंगे। हमारा यह दृष्टि दोष ही हमें यूरोप के सेकुलरज्म और भारत के सर्व धर्म समानत्व का अंतर नहीं समझने देता। ऊपर मैंने कहा है कि समलैंगिक समानता की भारतीय लड़ाई की प्रेरणा यूरोप में है तो इसीलिए कि मीडिया में भारतीय समलैंगिकता-नपुंसकलिंगता की समझ नहीं है। इसीलिए ऐसे वाक्य लिखे गए कि दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले से भारत का भूमंडलीकरण हो गया और हम उन विकसित देशों की सूची में आ गए जो समलैंगिकता को अपराध नहीं मानते। यह कहने का मतलब यह भी नहीं कि भारतीय समाज समलैंगिकता को स्वीकार करता तो बल्कि भारतीय समाज में भी इसको सदियों से निषेध माना गया है।
जिसके के विरोध में नाज फौन्डेशन इंटरनैशनल नामक संस्था और समलिंगी अधिकारों के लिए काम करने वाले कुछ संगठनों ने पिछले कुछ समय से एक आन्दोलन छेड़ रखा है जिसने एक नयी बहस शुरू की है और जिस पर आज सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई भी चल रही है। नाज फाऊंडेशन इंट. ने भारतीय दंड विधान की धारा 377 को अभियोज्य-अपराधमुक्त decriminalize करने की वकालत की है। और उन्होंने दलीले दी कि;-
·        आपसी सहमती से बनाया गया समलिंगी संबंध व्यक्ति का मौलिक अधिकार है।
·        समलिंगी संबंध प्राकृतिक और सामान्य है।
·        समलैंगिक को अधिकार है एक सामान्य नागरिक की तरह जीने और सुरक्षा का।
·        समलैंगिक एक अल्पसंख्यक समूह हैं।
·        विश्व में कई जगहों पर समलैंगिकता को मान्यता प्राप्त है और ऐसा भारत में भी होना चाहिए
इस विरोध के विपक्ष में गृह मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि भारतीय संस्कृति में समलैंगिक सेक्स की इजाजत नहीं दी जा सकती। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने समलैंगिक संबंधों को अत्यंत ‘‘अनैतिक’’ और ‘‘सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ’’ करार देते हुए इन्हें अपराध की श्रेणी से बाहर किए जाने का उच्चतम न्यायालय में कड़ा विरोध किया। मंत्रालय की ओर से पैरवी कर रहे अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल पीपी मल्होत्रा ने दलील दी कि भारतीय समाज अन्य देशों से भिन्न है और यह विदेशों का अनुकरण नहीं कर सकता। वहीं दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि दो मर्द या औरत अगर अपनी सहमति से बंद कमरे के भीतर समलैंगिक यौन संबंध बनाते हैं तो ये अपराध नहीं है। हाई कोर्ट की इस घोषणा से पहले भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत ऐसे संबंध बनाए जाने पर कड़ी सजा का भी प्रावधान था। इस आदेश को चुनौती देते हुए दिल्ली कमिशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स ने कहा था कि समलैंगिक रिश्ते बनाना कुदरत के खिलाफ है और इसे आपराधिक जुर्म करार दिया जाना चाहिए।
इसके पक्ष में उच्च न्यायालय ने कहा कि समलैंगिकता को बदलते समाज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। पीठ ने लिव इन रिलेशनशिप’, ‘सिंगल पेरेंटऔर सरोगेसी’ (किराए की कोख) का हवाला देते हुए कहा था कि पहले देश में बहुत सी चीजें जो पहले अस्वीकार्य थीं, अब समय के साथ स्वीकार्य हो गई हैं। दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला आते ही देश में कोई दर्जन भर समलिंगी विवाह हो चुके हैं, जिससे यहां का सामाजिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक ढांचे के चरमरा जाने का भय उत्पन्न हो गया है और प्रबुद्ध समाज स्वाभाविक रूप से बहुत चिंतित हो गया है।
इस संदर्भ में आरएमएल हॉस्पिटल में सायकायट्री डिपार्टमंट की अध्यक्ष डॉ. स्मिता देशपांडे कहती हैं कि यह कोई नई बात नहीं है। पहले भी ऐसा होता था, लेकिन तब कोई खुलकर बात नहीं करता था। लेकिन अब पश्चिमी देशों में इसे मान्यता मिलने के बाद लोग खुलकर सामने आने लगे हैं, और यह सही भी है, क्योंकि अगर कोई बात नहीं करेगा तो किसी भी समस्या का समाधान नहीं निकल सकता है।
मेरे दृष्टिकोण से कहा जाए तो समलैंगिकता एक नैतिक असंतुलन है, एक अपराध और दुराचार है। इसमें संदेह नहीं कि यह बुराई मानव समाज में सदियों से मौजूद है। इनके उन्मूलन के प्रयास किये जाने चाहिए, न कि इन्हें सामाजिक स्वीकृति प्रदान की जानी चाहिए। कोई भी व्यक्ति जन्म से ही समलैंगिक नहीं होता, बल्कि लोग उचित मार्गदर्शन के अभाव में ये बुराइयां सीखते हैं। किशोरावस्था में अपनी नवीन और तीव्र कामेच्छा पर नियंत्रण न पाने के कारण ही लोग समलिंगी दुराचारों का शिकार हो जाते हैं ।
इस आलोच्य में समलैंगिकता व्यक्ति और समाज दोनों के लिए खतरनाक है। यह एक घातक रोग (एड्स) का मुख्य कारण है। इसके अलावा यह महिला और पुरुष दोनों के लिए अपमानजनक भी है। भारतीय संस्कृति एक पुरुष को पुरुष और एक महिला को महिला बने रहने की शिक्षा देता है, जबकि समलैंगिकता एक पुरुष से उसका पुरुषत्व और एक महिला से उसका स्त्रीत्व छीन लेता है। यह अत्यंत अस्वाभाविक जीवनशैली है। जिस कारण समलैंगिकता पारिवारिक जीवन को विघटन की ओर ले जा रहा है।

Monday, October 22, 2012

क्यों पुरूष हैवान बन जाता है........?????


क्यों पुरूष हैवान बन जाता है........?????

समाज के साथ-साथ समूची स्त्री जाति कारण जानना चाहती है कि आखिर पुरूष हैवान कैसे बन जाता है। इस विवादस्पद प्रश्न का जबाव कोई और नहीं स्वयं स्त्री जाति बता सकती है, कि वो कौन-से मूल करण हैं जिसकी वजह से एक पुरूष हैवान बन जाता है। मेरा इस तरह से समूची स्त्री जाति पर प्रश्न उठाना, शायद किसी को भी अच्छा न लगें। लग भी कैसे सकता है, क्योंकि स्वयं हमने मानव को दो भागों में विभाजित कर दिया है-एक पुरूष, दूसरा स्त्री। इस तरह का विभाजन आज या आज से 100 वर्ष पुराना नहीं है यह विभाजन तो पूर्व से ही चला आ रहा है। जिस प्रकार से जाति व्यवस्था सदियों से चली आ रही है ठीक उसी प्रकार। हां यह बात सही है कि वक्त की हवाओं ने कुछ परिवर्तन जरूर किए हैं परंतु उतने नहीं जितने होने चाहिए थे।
अगर समूची स्त्री जाति पर हो रहे अत्याचारों को जाति व्यवस्था से जोड़कर देखा जाए तो आज भी कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य किसी दलित जाति के व्यक्ति को ऊपर उठते नहीं देखना चाहता, वह तो यही चाहता है कि जिस तरह से सदियों से हम उन पर अत्याचार करते आए हैं और यह लोग बिना किसी विरोध के हमारा हुक्त मानते आए हैं यही परंपरा चलती रहनी चाहिए। ठीक इसी प्रकार समूचा पुरूषवादी समाज भी यही चाहता है कि एक स्त्री जिस प्रकार सदियों से उसकी उंगलियों पर कठपुतली की भांति नाचती आई है उसी तरह नाचती रहे। और पुरूष उसका जब चाहे शोषण कर सकें बिन किसी रोक-टोक के। क्योंकि पुरूष प्रधान समाज में ऐसा हमेशा से होता आया है।
मैं पुनः यह कहना चाहता हूं कि वक्त की हवाओं ने कुछ परिवर्तन जरूर किए हैं जिसे हम पश्चिमी सभ्यता की देन मानते हैं और यह परिवर्तन चाहे स्त्री जाति हो या पुरूष जाति, दोनों में देखा जा रहा है। एक कहावत यहां यथार्थ होती है कि लोग अच्छी चीजों की अपेक्षा बुरी चीजों को जल्द ही ग्रहण कर लेते हैं। हुआ भी वही, पश्चिमी सभ्यता से हमने अपने अधिकारों के प्रति सचेत और ज्ञान को कम स्वीकार किया है। इसके बाबत हमने वहां पनप रही नग्नता को पूरी तरह अपनी हवाओं में मिला लिया है। आज समाज के चारों तरह नग्नता का नाच मचा हुआ है। फिल्मों के रंगीन पदों से लेकर शादी से पहले प्रेम प्रसंग में प्रेमी की बांहों तक नग्नता आसानी से देखी जा सकती है। बाग-बगीचे, होटल, काॅलेज और विश्वविद्यालयों में भी, वो भी बिना किसी रोक-टोक के।
मेरी बात परे बहुत से लोग असहमत होगें, परंतु यदि वो मेरे विरोध में खड़ा होना चाहते हैं तो पहले एक सर्व करके आए कि देश कि राजधानी दिल्ली में कितने प्रेमी युगल हैं, कितनों का पहला प्यार है और कितनों का..........??????? और तो और इस प्रेम प्रसंग की पृष्ठभूमि की धरातल कितनी गहरी है यह भी पता लगा कर आए। हकीकत से स्वतः रूबरू हो जाएंगे। यह मैं केवल राजधानी के परिप्रेक्ष्य में नहीं कह रहा हूं अपितु संपूर्ण भारत के परिदृश्य के बारे में कह रहा हूं कि प्यार के नाम पर क्या-क्या हो रहा है।
यहां एक वाक्या आपको बताना चाहूंगा कि एक विश्वविद्यालय में बाहर से आईं स्त्री चिंतक और विश्लेषक महोदया जिसका मैं नाम भूल रहा हूं उनसे मैंने एक प्रश्न किया था जिसका उत्तर उन्होंने घुमा-फिरा कर अपूर्ण ही दिया। शायद वो मेरे प्रश्न से सरोकार नहीं रखना  चाहती थीं या स्त्री होकर स्त्री जाति पर ही सार्वजनिक जगह पर सवालिया निशान लगाने में खुद को असहज महसूस कर रही होगीं। सवाल आप सभी के समक्ष रख रहा हूं कि जब लड़का-लड़की समाज से परे होकर प्रेम-प्रसंग में कसमें-वादें खाते हैं जब तक यह प्यार ही होता है। ज्यों ही यह समाज की नजरों में आता है यह प्यार बलात्कार में तब्दील हो जाता है। एक ही पल में इतना बड़ा बदलाव, आखिर कैसे? और कैसे एक लड़की अपने प्रेमी पर ही बलात्कार का संगीन आरोप लगा सकती है समझ से परे है।
मैं मानता हूं कि स्त्रियों का शोषण होता है। उनके पैदा होने से लेकर बड़े होने तक उन पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाते हैं। परंतु यह सिक्के का एक मात्र पहलू ही है। क्योंकि हमस ब आंकड़ों के खेल में फंस जाते हैं और उसी दृष्टिकोण में देखने व सोचने लगते हैं। जैसा यह आंकड़ें हमें दिखाना चाहते हैं। वैसे सर्वे और आंकड़ों की हकीकत से सभी बुद्धजीवी भलीभांति परिचित होगें कि कैसे आंकड़ें एकत्रित किए जाते हैं। सर्वे कराने वाली संस्था और करने वाली संस्था दोनों अपने ही मुताबिक आंकड़ों को एकत्रित करती है बाकि उनका किसी से भी कोई सरोकार नहीं होता।
पुरूष के स्त्री के प्रति हैवान बनने की तो मैं पूर्णतः पश्चिमी सभ्यता को दोषी नहीं मानता, पश्चिमी सभ्यता के साथ-साथ आज की शिक्षा व्यवस्था व मां-बाप को भी बराबर का दोषी मानता हूं। क्योंकि जिस तरह मां-बाप और गुरूजनों का ध्यान बच्चों से विमुक्त हो चुका है। यह सभी जान रहे हैं। बच्चें क्या कर रहे हैं, कहां जा रहे हैं, किसके संपर्क में हैं खुद मां-बाप को ही मालूम नहीं होता। ठीक है आजादी है सभी को स्वतंत्र रहने की आजादी है। परंतु यह अश्लीलता की आजादी, कैसी आजादी है? जनसंचार माध्यमों द्वारा परोसी जा रही अश्लीलता और आस-पास के वातावरण के कारण तन पर कपड़ें दिनों-दिन छोटे-से-छोटे होते जा रहे हैं। लड़कियों का भी कहना है कि जो दिखता है सो बिकता है। यदि दिखाएंगे नहीं तो लड़के उनके प्रति आकर्षित कैसे होगें?
अब रही बात पुरूष के हैवान बनने की तो शारीरिक बदलाव के दृष्टिकोण से देखे तो पुरूष किसी भी आकर्षित वस्तु के प्रति जल्द ही उतेजित होने लगता है। ज यह उतेजना धीरे-धीरे अपनी चरम सीमा पार करने लगती है तब पुरूष का दिमाग स्वयं के वश में नहीं होता और वह हैवान बन जाता है। इस हैवानियत में वह यह तक भूल जाता है कि वह क्या करने जा रहा है। जिसका बाद में उसे पछतावा भी होता है। इसके साथ-साथ एक कारण और जो मेरी समझ में आ रहा है कि जब तक प्यार के नाम पर एक पुरूष की शारीरिक पूर्ति होती रहती है तब तक कुछ नहीं होता। ज्यों ही उसकी प्रेमिका या जिस के साथ संबंध है वह उससे अलग होती है और पुरूष की शारीरिक पूर्ण होनी बंद हो जाती है तब वह हैवान बनने लगता है। क्योंकि यह भी एक तरह का नशा है जो आज की युवा पीढ़ी की रगों में कम उम्र में ही घुल जाता है। पर कैसे, यह मुझें अभी तक पता नहीं चला।
इतना सब लिखने के बाद मैं स्त्रीवादी चिंतकों से एक सवाल करना चाहता हूं कि पुरूष के हैवान बनने के पीछे सबसे पहले किसे वह कठघरे में खड़ा करेंगी। प्यार को, समाज को, पश्चिमी सभ्यता को, शिक्षा व्यवस्था को, संचार माध्यमों को, कानून व्‍यवस्‍था को, पुरूषवादी सोच को, मां-बाप को या फिर स्वयं स्त्री अपने आप को।

Saturday, October 13, 2012

मीडिया दलालीकरण और भावी सरकार


मीडिया दलालीकरण और भावी सरकार
मीडिया का काम आमतौर पर समाज में स्थापित कुरूतियों, विसमताओं और समाज में के हर तबके तक सूचना पहुंचना, उन्हें शिक्षित व मनोरंजन करना भी है। यह एक सरल परिभाषा के दायरे में आती है फिर भी देखा जा सकता है कि मीडिया को दी गई यह सरल परिभाषा में भी परिवर्तन हो चुका है। मीडिया जनमत तैयार करने, निर्णय सुनाने, प्रोपेगेंडा फैलाने, अश्लीलता को बढ़वा देने, राजनेताओं का बखान करने, साथ-ही-साथ कुरूतियों का इस तरह महिमामंडन करके दिखाया जाना इनके लिए आम बात हो चुकी है। जिस पर समय-समय पर उंगलियां उठती रही हैं। परंतु कभी हमने इसके पीछे चल रहे या चलाए जा रहे संस्थाओं के दलालीकरण की पृष्ठभूमि पर विचार विमर्श नहीं किया, कि समय के परिवर्तन के साथ इन संस्थाओं में भी बदलाव आ सकता है। नहीं आना चाहिए फिर भी यह परिवर्तन अपने तीव्रवेग से चल रहा है।
वैसे मीडिया पर समय-समय पर बहुत से कानून लागू किए गए, जिनका पालन करना इस संस्थानों ने कभी मुनासिब नहीं समझा। इसके लिए भारतीय पे्रस परिषद के अध्यक्ष और सदस्य ने भी ज्यादा जोर नहीं दिया कि वह इन कानून का पालन क्यों नहीं कर रहे हंै! शायद जरूरत ही महसूस नहीं होती। दूसरी तरफ अपने आप को लोकतंत्र का चैथा खंभा कहलाने वाला मीडिया छुट्टा सांड की भांति दौड़ा जा रहा है बिना किसी लगाम के। वहीं सरकार ने भी इस सांड पर काबू करने का अपना फैसला त्याग दिया है। इसमें भी सरकार का अपना हित छिपा हुआ है। क्योंकि सरकार की गर्दन (नेता, राजनेता और भ्रष्टाचारियों) खुद फंसी हुई है जिसकी लगाम इन मीडिया संस्थानों के हाथों में दिखाई दे रही है। जिस दिशा में यह मोड़ना चाहते हैं उस दिशा में मोड़ दिया जाता है।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में उल्टी गंगा बह रही है। जिस पर जिसका नियंत्रण होना चाहिए वह छुट्टा और जिस पर नहीं वह मीडिया के इसारे पर मुजरा कर रहा है। अगर आज के परिप्रेक्ष्य में सरकार को रखैल की संज्ञा से सुशोभित किया जाए तो मेरे मित्रों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। क्योंकि मैं जनता हूं कि मेरे बहुत सारे मित्रगण किसी-न-किसी पार्टी से सरोकार रखते हैं और बहुत से मित्रों के सिर पर किसी-न-किसी राजनेताओं का हाथ बना हुआ है। अगर मेरे मित्रगण यह आरोप लगाए कि मैं सरकार के खिलाफ इस तरह के आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग कैसे कर सकता हूं तो यहां यह भी बता दूं कि मैं, मीडिया से सरोकार रखता हूं। बावजूद इसके मैं, मीडिया के क्रिया-कलापों पर समय-समय पर प्रश्न चिह्न लगाता रहता हूं तो सरकार इससे कैसे अछूती रह सकती है।
अभी दो-तीन दिन पहले प्राइम टाइम पर प्रसारित हो रही एक खबर का मैंने विश्लेषण किया जिसको लगभग सभी समाचार प्रेमी और राजनैतिक घरानों व पार्टियों से सरोकार रखने वाले लोगों ने देखा होगा। खबर हमारे लल्ला की दिखाई जा रही थी जो पंजाब विश्वविद्यालय के मंच से अपने मुखारबिंदु से अच्छे-अच्छे प्रवचन दे रहे थे कि विपक्षी पार्टियां उनकी सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं को लागू नहीं होने देती या उन्हें विकास के लिए काम नहीं करने देती। बड़ी आश्चर्यचकित बात है जिनकी अम्मा के हाथों में देश की कमान हो वही यह राग अलापेंगे तो कैसे काम चलेगा। अगर यह विकास की बात करें तो 8 साल में देश के विकास का पहिया वहीं के वहीं स्थिर है। जिसका ढीकरा यह व उनकी पार्टी विपक्षी दलों पर फोड़ रहे हैं। परंतु वह यह भूल रहे हैं कि चाचा मनमोहन की सरकार के कार्यकाल में (शुरू से लेकर अब तक) कितने घोटाले हुए, और कितनी बार जनता का उनकी पार्टी ने खून चूसा। इस बात पर सभी का मुंह सील जाता है। यह सरकार नहीं मच्छर है जो गरीब जनता का खून चूस रही है। क्योंकि इस कमरतोड़ मंहगाई के कारण यह दो वक्त की रोटी का गुजारा भी नहीं कर सकते। तब तक मच्छर मारने की दवा का कैसे प्रयोग कर सकते हैं। हां हो यह सकता है कि इस मंहगाई की मार से बचने के लिए वह मच्छर मार दवा का ही सेवन कर ले ताकि यह मच्छर दुबारा कभी खून न पी सकें।
इस परिप्रेक्ष्य में कहें तो हमारे देश के लल्ला अपने प्रवचनों के समय यह भी भूल गए कि उनके जीजाजी श्री पर भी अब आरोप लग चुके हैं। फि भी इस मुद्दे पर बोलने की वजह वह अपने मियां मिट्ठू बनते रहे। सही बात है रात में गुनाह करने वाला दिन के उजाले में अपने आप को हमेशा साहूकार ही बताता है।
इस तरह की खबरों को मीडिया ही महिमामंडन करके दिखाता है क्योंकि यह उनके लिए बड़ी खबर का काम करती है। टीआरपी बढ़ाने का काम करती है। वह यह भूल जाते है कि वह ही हैं जो किसी को रातोंरात शोहरत की बुलंदी पर पहुंचा भी सकता है और उसका नामोनिशान की मिटा सकता है। फिर भी मीडिया संस्थाओं के लोग इनकी डाली गई हड्डियों पर जीभ ललचाकर आश्रित हो जाते हैं और जैसा यह चाहते हैं वह करने लगते हैं। वह यह भी भूल जाते है कि उनका समाज के प्रति भी कोई सरोकार है जिसके लिए उसे चैथे स्तंभ से नबाजा गया है ताकि गरीब जनता के लिए जब तीनों स्तंभ नकारा साबित होने लगे तो वह उन्हें शोषण से मुक्ति व अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करने में और उनका हक दिलाने में कारगर सिद्ध हो सके। कालचक्र का पहिया अपनी घुरी पर लगातार घूमता रहता है फिर भी वक्त रहते इन संस्थाओं के लोगों के चेतने और दलालीकरण का त्याग करके जनता के हितों में पुनः पहले जैसी सोच कायम करने की है। नहीं तो तीनों स्तंभ की भांति इस स्तंभ से भी आम जनता का बना हुआ भरोसा भी खत्म हो जाएगा।

Sunday, October 7, 2012

भारत में भाषा समस्या


भारत में भाषा समस्या
किसी राष्ट्र के अनिवार्य घटकों में से एक एकसमान भाषा विचारों के आदान-प्रदान के माध्यम एवं एकता के बल के रूप में उपयोगी एवं सुविधाजनक होती है। एक समान बोली में आत्मीयता एवं गहरे बंधन का भाव जगता है। ऐसा प्रायः देखा गया है कि भारत बिना किसी राष्ट्रीय भाषा का एक कोलाहल है। यह तथ्य यथार्थ से कोसों दूर है। भारत एक विशाल देश-लगभग एक महादेश के समान है जिसमें कई जातियों एवं समुदायों के लोग रहते हैं जिनकी अपनी मातृबोली होती है। इसने अतीत में कुछ एकसमान भाषाओं के माध्यम से विभिन्न वर्गों के लोगों को एकता के सूत्र में पिरोने का काम किया है। प्राचीन काल में संस्कृत ने यह भूमिका निभाई तथा इसके बाद प्राकृत भाषा ने कुछ हद तक यह कार्य किया। मुस्लिम काल के दौरान, विशेषकर मुगल काल में, फारसी पूरे देश की आधिकारिक भाषा बन गई, जबकि फारसी और हिंदी भाषा से उत्पन्न उर्दू आम लोगों की भाषा हो गई। समयांतराल में उर्दू ने आधिकारिक भाषा का स्थान ले लिया।
भारतीय परिदृश्य पर अंग्रेजों की उपस्थिति के बाद सारी बातें बदल गई। अपने शासन को सुगठित करने के लिए उन्होंने अंग्रजी भाषा शुरू की तथा वर्ष-दर-वर्ष अंग्रेजी काफी लोगप्रिय हो गई। इस भाषा ने उर्दू एवं अन्य मातृभाषाओं को उत्तरोत्तर प्रतिस्थापित कर अधिकारिक भाषा का स्थान ले लिया। प्रशासन एवं अन्य आधिकारिक कार्यों के उद्देश्य से अंग्रेजी पूरे देश में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भाषा बन गई।
भारत की आंतरिक शक्ति एवं गहरी एकता के मुख्य माध्यमों के रूप में पूरे देश के लिए एक राष्ट्रीय भाषा का शीघ्र विकास करना होगा। हिंदी को हमारी आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया गया है किंतु दुर्भाग्यवश इसे हमारे देशवासियों, विशेषकर दक्षिण भारत के हृदय में स्थान नहीं मिला है। वास्तव में अधिकारिक एवं शैक्षणिक माहौल में अंग्रेजी का हिंदी द्वारा प्रतिस्थापन से एक कटु एवं दूखद विवाद उत्पन्न हो गया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पांच दशक से अधिक समय के बीत जाने के बाद भी हमें अभी ऐसी भाषा का विकास करना है जो समाज के सभी वर्गों द्वारा एक राष्ट्रीय भाषा के रूप में गर्मजोशी से स्वीकार्य हो। इसलिए भाषा समस्या का मूल प्रश्न वैसी भाषा का पता लगाना है जो समग्र राष्ट्र के लिए राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए।
हिंदी की वकालत करने वालों का तर्क है कि यह भाषा देश के बहुत बड़े क्षेत्र में बोली एवं समझी जाती है जबकि अंग्रेजी अंग्रेज उपनिवेशक शासनों द्वारा थोपी गई भाषा है। उनकी दलील है कि हमारी अपनी समृद्ध एवं सुविकसित अखिल भारतीय भाषा, अर्थात् हिंदी की तुलना में अंग्रेजी का प्रयोग हमारे देश के आत्म-सम्मान की दृष्टि से असंगत है। दूसरी तरफ डाॅक्टर एवं इंजीनियर जैसे उच्च शिक्षित एवं कुशल व्यावसायिक लोगों का तर्क है कि विदेशी शासन की बुराइयों के बावजूद अंग्रेजी भाषा ने भारतीय राष्ट्रवाद के विचार की उत्पत्ति की तथा राष्ट्रीय भावनाओं के विकास एवं स्वतंत्रता प्राप्ति में सहायता की। उनकी दलील है कि अंग्रेजी उच्च शिक्ष, प्रौद्योगिकी तथा वैज्ञानिक अनुसंधान का साधन है तथा इसमें किसी प्रकार के व्यवधान की कोशिश हमारी शिक्षा को नुकशान पहुंचाना होगा तथा आधुनिक युग के सभी क्षेत्रों में देश को पीछे धकेलता है। तीसरे समूह का मानना है कि समान रूप से विकसित तथा संबंधित क्षेत्रों में अपनी पकड़ बनाए रखने वाली विविध भाषाओं को संबंधित क्षेत्रों की राष्ट्रीय भाषाओं के रूप में मान्यता देनी चाहिए और हिंदी या अंग्रेजी की आवश्यकता नहीं है। सभी भारतीय भाषाओं को समान आदर मिलना चाहिए।
अंग्रेजी की भूमिका की प्रशंसा के लिए संपूर्ण कार्यबोध होना आवश्यक है। दो सौ वर्षों से अधिक समय से अंग्रेजी देश में प्रांत एवं केंद्र स्तर पर आधिकारिक भाषा के रूप में स्थापित है। यह उच्च शिक्षा, प्रौद्योगिकी, वैज्ञानिक अनुसंधान तथा उद्योग एवं वाणिज्य का माध्यम रही है। इस काल के दौरान मानव के विचारों, आविष्कारों एवं संगठनों में बड़े एवं क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। वहीं ब्रिटेन एवं अमेरिका इन परिवर्तनों के मुख्य केंद्र है और उनकी भाषा अंग्रेजी सभी आधुनिक विकास के लिए सर्वाधिक समृद्ध एवं सक्षम माध्यम है। अंग्रेजी शासन के दौरान संपूर्ण भारत को प्रशासन एवं व्यावसायिक उद्देश्य के लिए 1833 में अंग्रेजी भाषा को स्वीकार करके एकभाषी राष्ट्र में परिवर्तन कर दिया गया था। इसने अंग्रेजी को एक विशिष्ट शक्ति एंव महत्त्व प्रदान किया।
भारत में भाषाई समस्या काफी गंभीर हो गई है। संपूर्ण देश के लिए एकसमान भाषा की भावना को त्यागना ही शायद सर्वोत्तम उपाय है तथा अधिक गंभीर समस्याओं पर एकाग्रचित होकर ध्यान देना चाहिएं क्षेत्रीय भाषाएं स्वाधिकार से प्रगति करेंगी। भारतीय सिनेमा के सौजन्य से हिंदी संपूर्ण देश की बोलने की भाषा होगी तथा अंग्रेजी देश की आधिकारिक भाषा के रूप में फलती-फूलती रहेगी चाहे इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए या न किया जाए। इसलिए, हमें साहसपूर्वक एवं ईमानदारीपूर्वक इस कटु सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिए कि अंग्रेजी अपने स्थान पर अटल है तथा इसे भावनात्मक आधार पर समाप्त नहीं किया जा सकता है।