सरोकार की मीडिया

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Friday, July 27, 2012

कौन करता है झगड़े की शुरूआतः पति या पत्नी......?????


कौन करता है झगड़े की शुरूआतः पति या पत्नी......?????

बहुत दिनों से इस विषय पर लिखने की सोच रहा था, परंतु पीएच.डी. उपाधि मिलने के बाद नौकरी की भागमभाग के चलते समय नहीं मिल पाया। कई विश्वविद्यालयों में साक्षात्कार देने के बाद नौकरी नहीं मिली, कहीं तो सूची में ही नाम न था। अब खाली हूं तो सोच कुछ न कुछ लिखते ही रहना चाहिए तो इस विषय पर लिखने का मन किया।
बरहाल में अपने लेख पर आता हूं कि कौन-से ऐसे कारण उपजते हैं जिसके चलते एक दाम्पत्य जीवन में झगड़े होने लगते हैं। इसकी पहल कौन करता है, कहीं-न-कहीं से तो शुरूआत होती ही होगी। और यह शुरूआत धीरे-धीरे नोक-झोक से होते हुए दो जीवन में विघटन पैदा कर देता है। इससे दो जीवन के साथ-साथ उनके साथ जुडे़ हुए वे तमाम लोगों को भी इस झगड़े की अग्नि में स्वाहा होना पड़ता है। रह जाती है दो तन्हा जिंदगी, जो इन झगड़ों की मूल वजह और कहां से चले कहां पहुंच गए, यह सोच-सोच कर जिंदगी गिजारने पर मजबूर हो जाते हैं।
आमतौर पर इस विषय पर लिखते ही दो तरह की सोच या टिप्पणियों का सिलसिला शुरू होने लगता है। एक नारीवादी विचारधार और दूसरा पुरूषवादी विचारधारा। इन दोनों विचारधाराओं को अपने यथा स्थान पर छोड़ते हुए मूल कारण जो मुझे महसूस हुए, कि झगड़े की शुरूआत लगभग यहीं से होती है। एक तो जब पति सुबह-सुबह नास्ता या खाना के लिए बैठता है तो एक लंबी सूची पत्नी द्वारा उसे थमा दी जाती है, सुकून से नास्ता भी नहीं कर सकते और एक लंबी लिस्ट। जैसे तैसे वो नास्ता खत्म करने की कोशिश करता है और कुछ बातों को सुनता है तो कुछ को अनसुना कर देता है। इसके बाद जब दिनभर के काम से वह लौटता है तो दूसरी लिस्ट जिसे वह सुनना नहीं चाहता, फिर भी उसे सुननी ही पड़ती है कि बच्चों ने ऐसा किया, बच्चों ने वैसा किया। पड़ौसी से इस बात पर लड़ाई हुई कि किसी ने कुछ कहा, यही सब।
अरे भाई दिनभर की मगजमारी करके आए हैं बाद में भी तो सुना सकते हो, नहीं अभी ही सुननी पड़ेगी। दिमाग ठनक ही जाता है रही कसर रात के भोजन के समय पूरी कर देती हैं यह श्रीमति। सुबह-शाम और रात, तीनों टाइम एक ही राग अलापा जाता है। मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि खाना खाने के वक्त ही क्यों राग अलापा जाता है। जब आदमी चाहता है कि सुख चैन से खाना तो खा सके। नहीं खा सकता। और जो कुछ बचता है वह सोते वक्त भूत की तरह प्रकट हो जाता है कि यह चाहिए। आदमी मन मार कर कह देता है कल दिला दूगां।
एक दिन का हो तो कोई भी सहन कर सकता है। ज्यों-ज्यों यह दिनचर्या में परिवर्तित होने लगता है त्यों-त्यों झगड़े की पृष्ठभूमि तैयार होने लगती है। फिर एक ने कुछ कहा तो दूसरे ने झल्लाकर जवाब दिया, कि सुकून से खाना तो खाने दो। क्या रोज-रोज वही सब लगा रखा है। दूसरी तरह हां मैं ही हूं, जो रोज-रोज लगाकर रखती हूं, सारा दोष तो मुझमें ही है। घर भी देखूं, बच्चें भी संभालू और बाहर का भी देखूं। इस जवाब की प्रतिक्रिया तुरंत मिलती है कि सभी करती हैं तुम क्या अनोखी हो। फिर धीरे-धीरे इस छोटी-सी नोक-झोक झगड़े में बदल जाती है और वह मायके जाने की धमकी या मायके चली ही जाती है। वहीं पति भी यही सोचता है कि चलो कुछ दिनों के लिए शांति तो मिलेगी। इसके बाद दिन गुजरने लगते हैं। कुछ दिनों के उपरांत दोनों के घरवाले पुनः सुलाह करवा देते है या पति खुद ही पत्नी को लेने पहुंच जाता है। जहां से पत्नी के रिश्तेदारों द्वारा कुछ हिदायतों के बाद उसके भेज दिया जाता है। अपने मनमुटाव को खत्म करके कुछ दिनों तक प्यार चलता है फिर कुछ दिनों के बाद वही सिलसिला, जहां से छोड़कर गए थे वहीं पुनः खडे़ हो जाते हैं। अब इस झगड़े में पहली बातें और जुड़ने लगती हैं कि हां तुम तो मायके चली गई थी, बच्चो को अकेला छोड़कर, किसने बुलाया था या मैं तो आना ही नहीं चाहती थी तुम ही गए थे मानने को। तुमने ही कहा था पिताजी से, अब ऐसा नहीं होगा फिर वही। हां मेरी ही गलती है कि मैं गया था तुमको लाने।
इसी तरह आने-जाने का सिलसिला चलता रहता है। धीरे-धीरे यह झगड़ा विकराल रूप लेकर तलाक तक पहुंच जाता है। जहां शादी के पहले और कुछ सालों तक साथ-जीने मरने की कसमें व वादे अब एक-दूसरे की सूरत तक देखना गवारा नहीं करते। और वहीं इन दोनों के अलग होने के साथ-साथ इनके बच्चों का भी बंटबारा हो जाता है। जहां बच्चों को दोनों का प्यार मिलना चाहिए वहीं एक तक ही सीमित हो जाता है इसमें इन बच्चों का क्या दोष है। जो इनके झगड़़ें की चक्की में इनको पीसना पड़ता है।
एक छोटे-से झगड़े ने धीरे-धीरे तलाक करवा दिया तभी तो कहा जाता है कि जिस बात पर झगड़ा हो उसे उसी समय खत्म कर देना चाहिए बाद के लिए नहीं रखना चाहिए, नहीं तो धीरे-धीरे यह विकराल रूप लेकर हमारे सामने प्रकट होने लगता है जिसको खत्म नहीं किया जा सकता। जो केवल और केवल जीवन में तबाही ही मचाता है और हंसते खेलते जीवन को बर्बाद कर देता है। फिर बाद में सोचते हैं कि अब तो चिड़िया खेत चुग गई, पछताने से क्या होता है। काश ऐसा नहीं हुआ होता........................?????

Tuesday, July 17, 2012

एक बदलाव : पुरूषवादी समाज का खात्‍मा


एक बदलाव : पुरूषवादी समाज का खात्‍मा
समकालीन समाज की जब रचना की गई होगी तब नारी को एक औहदा, एक सम्मान की दृष्टि से देखा गया होगा? जहां वह पूज्यनीय थी और भेदभाव से परे। यह सभी जानते है कि धीरे-धीरे इनके अधिकारों का दोहन किया गया, जिससे इनकी स्थिति बद-से-बदतर होती चली गयी। नारी ने इसे अपनी नियति मानकर, सहना सीख लिया। वहीं से नारी के शोषण की दास्तां की कहानी शुरू होती है।
शोषण के दास्तां की कहानी में लगातर चढ़ाव ही देखा गया है। नारी शुरू से ही दान की वस्तु के रूप में पहचान दी गई, कि वह कोई इंसान नहीं बल्कि एक दान की वस्तु है जिसे उसके परिजन जब चाहें जिसे सौंप या बेच सकते हैं। यानि एक पालतू जानवर की भांति अपने मालिक द्वारा दूसरे मालिक के सुपूर्द कर दी जायेगी। और इसके विरोध में वह कभी आवाज नहीं उठायेगी। क्यों उठायेगी, करेगी बर्दास्त अपने ऊपर होने वाले अत्याचार को। क्योकि वह तो एक वस्तु है जिसे दान कर दिया जाता है और उसके ऊपर अब केवल उस व्यक्ति का अधिपत्य रह जाता है जिसको दान कर दी गई है या बेच दी गई है।
नारी बेचे जाने के आलोच्य में देखा जाये तो नारी को बेचने और खरीदने का अपना एक इतिहास रहा है जहां नारियों को नीलाम करने के लिए मंडियां सजती थीं तथा खरीददारों द्वारा बोलियां लगायी जाती थी। इस नीलामी का अपना एक नियम यह था कि जिस नारी की उम्र जितनी कम होगी उसकी नीलामी की कीमत उतनी ही अधिक और जिसकी उम्र अधिक उसकी नीलामी उतनी ही कम। खरीदने और बेचने का सिलसिला यहीं नहीं थमता था, यह लगातार चलता रहता था। जब चाहा खरीद लिया, इस्तेमाल किया, मन भरने के उपरांत या अपने ऊपर चढ़े हुए कर्ज को चुकता करने के लिए बेच दिया जाता था या महाजनों द्वारा छीन लिया जाता था। ऐसे नहीं तो वैसे, वैसे नहीं तो ऐसे। पुरूष समाज की चक्की में पीसना केवल नारी को ही पड़ता था।
धयात्व है कि धीरे-धीरे समाज का विकास हुआ और पश्चिमी सभ्यता की हवाओं ने नारी के शोषण को कुछ हद तक कम करने का प्रयास किया, इसके बावजूद अत्याचारों की पृष्ठभूमि को पुरूष समाज ने एक के बाद एक दीवारों की तरह खड़ा करता चला गया। जिसको गिरा पाना नारियों के बस के बाहर की बात है। हालांकि इन दीवारों में नारियों ने सुराग तो कर लिये हैं और दीवारों में कर चुकी छोटे-छोटे सुरागों से नारी उस पार की स्वतंत्र जिंदगी को जीने के तरीके खोजती नजर आ रही है। वहीं पुरूष समाज इन सुरागों को पाटने के लिए न जाने कितने प्रकार की सीमेंटों का इस्तेमाल कर रहा है ताकि यह नारी उस पास की स्वतंत्रता को देखकर बगावत न करने लगे।
यह बात सही है कि कुछ नारियों ने इन दीवारों में इतने बड़े होल करके आपने आपको दीवार के उस पर कर लिया है और कुछ नारियां इन छोटे-छोटे दराचों से झांककर ही अपनी जिंदगी में बदलाव ला रही हैं। फिर भी इनका प्रतिशत जनसंख्या के हिसाब से न के बराबर है। इन थोड़े से सुराखों से आये बदलाव से पुरूष समाज विचलित हो उठा है वह इस बदलाव को रोकने के लिए नारियों को ही खत्म करने पर आमदा है, न नारी रहेगी न ही बदलाव देखने को मिलेगा। पुरूष वर्ग लाख प्रयास कर ले, दबा ले, मार-पीट कर ले, कितने भी अत्याचार कर ले, फिर भी बदलाव तो साफ देखा जा सकता है। आज नारी पुरूषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर बराबर में चल रही है या यूं कहें कि विकृत पुरूषवादी समाज के मुंह पर तमाचा मारती हुई उनको उसने बहुत ही पीछे छोड़ दिया है तथा अपनी जिंदगी स्वतंत्र रूप से जीने की कोशिश कर रही हैं और जी भी रही हैं।
वैसे पुरूषवादी समाज को यह कहां बर्दास्त होगा कि अभी तक पैरों की जूती समझी जाने वाली नारी, जिसके परिप्रेक्ष्य में मनु ने भी कहा था कि, नारी को बाल्यावस्थ में पिता, किशोरावस्था में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में ही रहेगी। वो अब उनके सिर पर पड़ने लगी है जिसकी मार से संपूर्ण पुरूषवादी समाज सकते में है कि यह कौन सा ज्वालामुखी है जो फटने वाला है। फटेगा और जरूर फटेगा क्योंकि पुरूषवादी समाज ने सदियों से इस ज्वालामुखी को दबा कर रखा है जो अंदर-ही-अंदर धधकता हुआ लावा बन चुका है बस फटने की इंतजार है। क्योंकि हम जिस चीज को जितना दबाने का प्रयास करते हैं वो उतनी ही तेजी से हमारे सामने परिलक्षित होती है। देखना तो अब यह है कि बदलाव के इस ज्वालामुखी में विस्फोट कब होगा और इसकी चपेट में कौन-कौन आता है।
कहीं इस भीषण विस्फोट की चपेट में पुरूषवादी समाज के साथ-साथ नारी भी अपना अस्तित्व न खो दे जिसको पाने के लिए वह सदियों से प्रयास कर रही है और शोषण को सह रही है। वैसे यह एक विचारणीय प्रश्न हो सकता है। हालांकि अब कुछ भी नहीं हो सकता, बस विस्फोट का इंतजार ही किया जा सकता है। शायद इस विस्फोट के बाद कहीं कुछ बच जाये। जहां से दोनों वर्ग पुनः इंसान की भांति स्वच्छ, समान और स्वतंत्र जिंदगी की शुरूआत कर सके। अगर ऐसा नहीं हुआ तो मानों सब कुछ खत्म???????????????????

Saturday, July 7, 2012

क्या नाम दे इन बच्चों को................?


क्या नाम दे इन बच्चों को................?


यह सवाल अपने आप में हमेशा से और चारों तरफ से प्रश्नवाचकों से घिरा हुआ है। जिस पर तमाम तरह के सवालिया निशान सदियों से लगाये जाते रहे हैं और लगाये भी जा रहे हैं। इन निशानों से उपजे दागों का कहीं कोई माई बाप नहीं, जो इनको साफ करे। यह तो बस समाज की देन है, जो हमेशा दूसरों पर थोपने का काम करती है। जिसकी चुभन से कहीं कोई भी अछूता नहीं रह पाता। अपनी पूरी जिंदगी में कभी-न-कभी कुछ-न-कुछ तो झेलना ही पड़ता है। हालांकि इस समाज में चलता है सब कुछ इन समाज के रहनुमाओं द्वारा, और सामाजिक पृष्ठभूमि को अपनी ढाल बनाकर, अपना उल्लू सिद्ध किया जाता है। वैसे बहुत-से हितैसियों ने मंत्रों और भिन्न-भिन्न तरह के आडंवरों से न जाने कितने उल्लू सिद्ध किये हैं, फिर इस उल्लू सिद्धि में किसी बेगुनाह की बलि ही क्यों न चढ़ौत्री के रूप में चढ़ानी पड़े, बेझिझक चढ़ा दी जाती है। जिसे लोग अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लेते हैं। इसके अलावा इनके पास दूसरा रास्ता नहीं छोड़ा जाता, जिसे वह अपना सकें।
शायद मुझे अपनी बात घुमा-फिरा कर नहीं कहनी चाहिए थी। बरहाल में अपने मूल मुद्दे यानि बच्चे? जिसे समाज क्या नाम दे, उस पर बात कर रहा हूं। यह वे बच्चे हैं जो आम बच्चों की परिधि में सम्मलित नहीं किए जाते। यहां तक की समाज, हां पूरा समाज भी इन्हें स्वीकार नहीं करता। इन बच्चों पर तरह-तरह के प्रश्नवाचक शब्द थोप दिये जाते हैं और छोड़ दिया जाता है मरने के लिए। हां यह बात सही है कि कुछ बच्चों की किस्मत अच्छी होती है जो पैदा होते ही इस तिरस्कृत समाज के कोप भंजन का शिकार होने से पहले ही इस समाज से रूकसत हो जाते हैं। और वो भी बच्चे जो पैदा होने से पहले ही गर्भ में मार दिये जाते हैं जिन्हें फेंक दिया जाता है किसी गंदगी में, कुत्ते और बिल्लियों का निवाला बनने के लिए। किस्मत है समाज के तिरस्कार से तो बच गये। वहीं रह जाते हैं वो बच्चे जिन्हें भगवान भी स्वीकार नहीं करता। जीना पड़ता है इसी समाज में, पल-पल मरने के लिए। और इनके साथ-साथ ताउम्र चलते हैं बहुत सारे सामाजिक सवालों के मकड़जाल। जिनसे वो कभी मुक्त नहीं हो पाता।
इस कड़ी को और आगे बढ़ाते हुए महाभारत काल में चलते हैं। जिसमें बिन ब्याही कुंआरी कुंती अपने पुत्र कर्ण को पैदा होने के बाद नदी में बहा देती है। ऐसा ही बहुत सारी कुंआरी कन्यायें, लोकापवाद के कारण अपने पुत्र को नदी में, कुएं में, जंगल में फेंक आती हैं। हांलाकि बिन विवाह के कुंआरी कन्याओं से पैदा हुए पुत्र को शास्त्र कामीनकह कर संबोधित करता है। वहीं समाज इसे नजायज करार देता है। जो अपने आप में एक गाली है। चलिये महाभारत काल की कुंती और कर्ण को यही पर छोड़ देते हैं और बात करते हैं आज के सूचना संजाल के दौर की। जहां इन बच्चों की संख्या में लगातार इजाफा होता जा रहा है। इसका मूल आज भी अंधेरे में, किसी सात पेहरों में अब भी कैद है। परंतु इसकी परिणति से रिस्ता हुआ अम्ल, समाज में अपना हिस्सा सुनिश्चित कर चुका है।
इस आलोच्य में बात करें कि, इन बच्चों के समाज में पैदा होने के वो कौन से मूलभूत कारण हैं तो परिस्थिति हमें हकीकत के कुछ अनछुए पहलुओं से खुद-ब-खुद रूबरू करा देगी। वैसे इन बच्चों के पैदा होने में समाज का एक विशाल वर्ग आम तौर पर महिलाओं को ही कठघरे में खड़ा करके, तमाम तरह के लानछनों से नवाजता है। और उस पुरूष को छोड़ देता है जिसका इसमें बराबर का हिस्सा होता है या उससे भी कहीं ज्यादा।
अगर क्रमवार विश्लेषण करें तो पहले प्यार ही हमारे सामने परिलक्षित होता है। जिसमें लड़का-लड़की समाज से परे होकर प्यार को परवान चढ़ते हैं और फिर प्यार के नाम का सहारा लेकर अपनी शारीरिक कामवासना की पूर्ति करते हैं। इसी कामवासना से जन्म होता है इन बच्चों का। दूसरा कारण देखें तो हमारी अंतरआत्मा दहल जाती है। क्योंकि इसमें पूर्णरूप से पुरूष का ही हाथ होता है जो अपनी कामपिपास को शांत करने या सदियों से चली आ रही आपसी रंजिश के चलते इन महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बना लेते हैं और छोड़ देते हैं उपजने के लिए बे नाम संतानों को। जो कभी नदी में, कभी नाले में, कभी झांड़ियों में  तो कभी कचडे़ के डिब्बे में मिल जाते हैं असहाय, बेसहारा। कुछ की सांस चल रही होती है तो कुछ की थम चुकी होती है और कुछ की चलने ही नहीं दी जाती। मार दिया जाता है आधे में ही। यह सब सोच के भी रूह काम उठती है। क्या जिंदगी है इनकी।
इतना सब लिखने के बाद भी सवाल उसी प्रश्नवाचकों के निशाने पर खड़ा हुआ है। कि क्या नाम दे इन बच्चों को। क्या गलती है इनकी जो इनको समाज स्वीकार नहीं करता। होती तो आखिर इंसान की औलाद है। जिस पर जानवरों से बदतर सलूक किया जाता है और वो सजा दी जाती है जो उसने कभी नहीं की। हां जुर्म तो किया है इस दावनी समाज में बिन विवाह के पैदा होने का।
माना कि हमारा समाज विवाह से पहले उत्पन्न संतानों को स्वीकृति प्रदान नहीं देता, परंतु इसमें इन बच्चों का क्या दोष। जिसको हमारा समाज तिरस्कार करता रहता है। और रख दिया जाता है नाम कमीना, नजायज। वैसे इन नामों से उन लड़के-लड़कियों को संबोधित करना चाहिए जो प्यार के नाम पर सब कुछ करते हैं और अपने दामन को पाक साफ दिखाने के लिए फेंक देते हैं इन बच्चों को किसी गंदगी में मारने के लिए।
लाई हयात आये, कजा ले चली चले
अपनी खुशी न आये, न अपनी खुशी चले!
मैं इसका निष्कर्ष निकाले में अपने आप को असमर्थ महसूस कर रहा हूं और कुछ पंक्तियों के साथ इसे यहीं पर खत्म करता हूं-
प्यार के नाम पे, लुटा दिया सब कुछ
दामन पाक दिखाना है तो कर्ण को बहाना पड़ेगा!