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Monday, May 21, 2012

विज्ञान और नीतिशास्त्र


विज्ञान और नीतिशास्त्र
सामान्यतः यह माना जाता है कि विज्ञान और नीतिशास्त्र शाब्दिक विरोध व्यक्त करता है। इसके बावजूद विज्ञान और नीतिशास्त्र के बीच मध्यममार्ग ज्ञात करना कठिन प्रतीत होता है क्योंकि इनके क्षेत्र भिन्न हैं और ये स्पष्ट रूप से एक दूसरे के निवारक हैं। किंतु काफी निकट से अवलोकन करने पर हम देखेंगे कि समान्य मत के विपरीत और नीतिशास्त्र न तो दो भिन्न ध्रुव हैं और न ही ये एक दूसरे के विरोधी और ये एक दूसरे को बल प्रदान करते हैं।
यदि विज्ञान को नीतिशास्त्र से पृथक कर दिया जाए तोतो यह पूर्णरूपेण हिंसोन्मत्त हो सकता है और सर्वत्र भयंकर विध्वंस का कारण बन सकता है। इसलिएविज्ञान को धर्म या नीतिशास्त्र द्वारा उचित रूप से सौम्य बनाना जरूरी है और नीतिशास्त्र को विज्ञान का ध्यान रखना जरूरी है। यदि विज्ञान हमारी भौतिकवादी आवश्यकताओं की पूर्ति करता हैतो नीतिशास्त्र हमारी आध्यात्मिक क्षुधा की तृप्ति करता है। नीतिशास्त्र परम सत्य को खोजने का प्रयास करता है। यह सच्चाईभलाईसंदुरता और भक्ति जैसे मूल्यों के परम लक्ष्यों की प्रकृति और जीवन की कटु सच्चाईयों के साथ उनके संबंधों की जांच करता है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आश्चर्यजनक विकास करने वाले पश्चिमी देश अब निराश होकर पूर्व के आध्यात्मिक संदेश में राहत ढूंढ़ने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने पाया है कि नीतिशास्त्र के बिना विज्ञान का कोई खास महत्व नहीं है। यह हमें चंद्रमा पर ले जा सकता है किंतु यह हमें दिल की गहराइयों में नहीं ले जा सकता है। यह मनुष्य की भावनात्मक क्षुधा को तृप्त करने में असफल है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि ये हमारी आध्यात्मिक विरासत और धार्मिक सत्ता में प्रकाश की संभावना की तलाश करते है।
अब सभी बुद्धिजीवी और विचारक यह समझते है कि केवल विज्ञान हमारे जीवन को बेहतर बनाने में असमर्थ है। यद्यपि विज्ञान ने हमारे कल्याण के लिए सैकड़ों अन्वेषण एवं खोज दिए हैं तो दूसरी तरफ विध्वंस के विभिन्न् साधनों के जरिए मानवजाति के लिए भयंकर विपत्ति भी ला दी है। इसलिए यदि विज्ञान द्वारा कुछ उपयोगी उद्देश्यों की पूर्ति करनी है और मानवजाति के लिए वास्तविक खुशी लानी है तो इसे धर्म से जोड़ना चाहिए। इसी प्रकार यदि धर्म को मानवजाति का वास्तविक परामर्शदाता बनना है तो इसे सभी अंधविश्वासों से छुटकारा पाना होगा और वैज्ञानिक आधार प्राप्त करने चाहिए। जीवन का कटु सत्य है कि नीतिशास्त्र के बिना विज्ञान अंधा है और विज्ञान के बिना नीतिशास्त्र पंगु है। नीतिशास्त्र को मात्र धर्मसिद्धांत तक ही सीमित नहीं किया जा सकता है। इसी तरहविज्ञान को भी बेलगाम और मानवजाति का विध्वंस नहीं बनने देना चाहिए।
मध्य काल के प्रारंभ में गिरजाघर और वैज्ञानिक अन्वेषण के बीच प्रतिस्पर्धा का विकास हुआ। धर्म की परंपरागत उपलब्धि को अस्त-व्यस्त करने वाले या लोकप्रिय धार्मिक सिद्धांतों में दोष ढूंढ़ने वाले अन्वेषण या खोच को ईसाई विरोधी और ईश्वर विरोधी कहा गया। गैलीलियों को दोषी करार दिया गया था और मुकदमा चलाया गया था और उनके वैज्ञानिक खोजों को त्या दिया गया क्योंकि ये खोज परंपरागत धार्मिक मतों से मेल नहीं खाते थे। उस समय के कोई भी वैज्ञानिकप्रवर्तक और धार्मिक सिद्धांतों के आलोचक गिरजाघर की धर्महठता से नहीं बचते थे। यदि गिरजाघर की बात गलत भी होती थी तो उनके लिए अन्वेषकों को दोषी करार दिया जाता था। इस तरहअंधकार युग के दौरान नीतिशास्त्र और विज्ञान युद्ध की स्थिति में रहाजो सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण था। किंतु अब स्थिति बदल गई है।
धर्म का अर्थ धर्मांधता या मतांधताधर्म सिद्धांत या गलत मत नहीं है। इसका अर्थ मानवजाति से प्रेम और उनकी सेवा के प्रति समर्पित जीवन तथा गरीबों एवं पीड़ितों के लिए मानवतासहिष्णुतासंदेवना और सहानुभूति है। धर्म का अभिप्राय सत्य के लिए निरंतर खोज है। इसका  अभिप्राय अंधकार के विरूद्ध प्रकाश है। यह हमें अंधकार से प्रकाशअसत्य से सत्यघृणा से प्रेम और पाप से धर्मपरायणता की ओर ले जाता है। इसका अंतिम लक्ष्य सार्वभौमिक प्रेम और खुशी है। विज्ञान का भी लक्ष्य मानव कल्याण है इसने मानव की सुविधा और आधुनिक सत्यता में इतना योगदान दिया है कि इसे नया ईश्वर के रूप में माना जाने लगा है। विज्ञान ने दूरसंचार क्रांति के जरिए विश्व में ईश्वर के रूप वचन को फैलाने में मानव को आश्चर्यजनक रूप से सहायता प्रदान की है।
परिभाषा के अनुसारविज्ञान ज्ञान का क्रमबद्ध निकाय है। किंतु सभी ज्ञान ईश्वर का ज्ञान है। हमारी यात्रा ईश्वर से ईश्वर तक है। धर्म का लक्ष्य आध्यात्मिक उपस्थिति के रूप में इसकी प्राप्ति है।
भौतिकवाद यंत्रवाद की वकालत करता है। यह जीवन एवं मस्तिष्क की सच्चाईयों और अनोखेपन को मानने से इंकार करता है। यह ईश्वर के अस्तित्व को इंकार करता है। यह इस बात को भी नकारता है कि सजीव रूप में संपूर्ण प्रकृति की रचना है तथा मानव या पशु के सजीवों के रूप में कार्य करने पर इसे आपत्ति है। किंतु विज्ञान ने इस दूरी को समाप्त कर दिया है और इस प्रकार मानवजाति का एकीकरण हुआ है। इस प्रक्रिया में विश्व एकसाथ बंध गया है। विज्ञान ने प्राकृतिक बाधाओं को तोड़ दिया है और धर्म ने आध्यात्मिक खाई को पाट दिया है। यदि विज्ञान और नीतिशास्त्र साथ मिलकर काम करें तो पृथ्वी पर स्वर्ग बनाने का ईश्वर का सपना वास्तविकता में बदल जाएगा।
मनवजाति के  लिए सर्वत्र शांति और समृद्धि होगी। विध्वंस की ओर विज्ञान के वर्तमान कदम को केवल धर्म और नैतिकता द्वारा विज्ञान को स्वस्थकर स्पर्श प्रदान कर रोका जा सकता है। विज्ञान को धर्म द्वारा ही विध्वंस के मार्ग से दूर किया जा सकता है। एक तरफसमय की आवश्यकता है कि धर्म को मात्र कर्मकांडनिरर्थक धर्महठताबेकार कर्मकांडों और आडंबरपूर्ण समारोहों से छुटकारा पाना चाहिए और दूसरी तरफविज्ञान को विध्वंसात्मक उद्देश्यों के लिए अपनी खोजों के प्रयोग से बचना चाहिए। न तो अवैज्ञानिक अंधविश्वासी पर आधारित धर्म और न ही निरीश्व और अर्चेतन्य अपवित्र विज्ञान समुपस्थित शारीरिक एवं नैतिक विपदाओं से मानवता की रक्षा कर सकता है।
इसलिएहमें उस विश्व समुदाय के विकास के लिए काम करना चाहिए जिसमें युद्ध वर्णित होगा और हिंसा एक अस्वीकृत मत होगा। आध्यात्मिक पुनर्निर्माण के अतिरिक्त कुछ भी हमें इस उद्देश्य की प्राप्ति में सहायता नही कर सकता है।

2 comments:

Anonymous said...

धर्म का उद्देश्य - मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) की स्थापना करना ।
व्यक्तिगत (निजी) धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिर बुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
धर्म संकट- जब सत्य और न्याय में विरोधाभास होता है, उस स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस परिस्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है ।
धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
राजधर्म, राष्ट्रधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म, इत्यादि ।
धर्म सनातन है भगवान शिव (त्रिदेव) से लेकर इस क्षण तक ।
शिव (त्रिदेव) है तभी तो धर्म व उपासना है ।
राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों के हिसाब से किया जाता है ।
कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें । by- kpopsbjri

Anonymous said...

वर्तमान युग में धर्म के मार्ग पर चलना किसी भी मनुष्य के लिए कठिन कार्य है । इसलिए मनुष्य को सदाचार के साथ जीना चाहिए एवं मानव कल्याण के बारे सोचना चाहिए । इस युग में यही बेहतर है ।