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Saturday, April 14, 2012

दहेज उत्पीड़न और कानून


दहेज उत्पीड़न और कानून

            ‘दहेजएक ऐसी कु-प्रथा है, जो सदियों से हमारे समाज में मौजूद है। और समाज का कोई भी वर्ग इससे अछुता नहीं है। लाख प्रयासों के बावजूद समाज को छोड़ने का नाम नहीं ले रही है। या यूं कहें कि इस कु-प्रथा का कोई छोर नज़र नहीं आता, जहां से इसे सुलझाने की कोशिश की जा सके। हालांकि दहेज की संवैधानिक परिभाषा-‘‘अनुच्छेद 2 के अनुसार, ‘दहेजका शब्दिक अर्थ ऐसी प्रॉपर्टी या मूल्यवान वस्तु (समान, पैसा या और कोई वस्तु) से है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लड़की पक्ष द्वारा शादी के वक्त लड़का पक्ष को दी जाती है।’’ दहेज की परिभाषा देते हुए फेयर चाइल्ड ने लिखा है कि, ‘‘दहेज वह धन या संपत्ति है, जो विवाह के उपलक्ष्य पर लड़की के माता-पिता या अन्य संबंधियों द्वारा वर पक्ष को दिया जाता है।’’ दहेज एक ऐसी सामाजिक बुराई है, जिसके चलते सैकड़ों नव-विवाहिताओं को आज भी असमय मौत का ग्रास बनना पड़ता है। इसमें भी सबसे ज्यादा मौतें जलने के परिणामस्वरूप होती हैं। कुछ युवतियों को ससुराल पक्ष द्वारा जबर्दस्ती जिंदा जला दिया जाता है, तो कुछ औरतों को दहेज के लिए ससुराल में इतना परेशान किया जाता है कि वे जलकर आत्महत्या कर लेती हैं।
इस आलोच्य में किसी भी अस्पताल के बर्न विभाग में देखें, तो वहां महिलाएं इस प्रकरण में दर्द से कहारती नज़र आ जाती हैं। इनमें से अधिकतर समाज की आपराधिक मानसिकता का शिकार होकर दर्द से छटपटा रही होती हैं। ‘‘आंकड़ें गवाह हैं कि अधिकांश दुल्हन जलाने की घटनाएं, दहेज मौतें या विवाहिता हत्या के मामले लड़की के ससुराल वालों की उन अतृप्त मांगों के परिणाम होते हैं, जिन्हें लड़की के माता-पिता पूरा नहीं कर पाते हैं।’’ दहेज का आर्थिक पक्ष इस कुरीति का सबसे खौफ़नाक पक्ष है। यदि वर पक्ष को इच्छित दहेज नहीं मिलता, तो वह नव-विवाहिता पर शारीरिक और मानसिक जुल्म देना शुरू कर देता है। नव-विवाहिता को तरह-तरह से तंग किया जाता है, उसे अधिक-से-अधिक दहेज लाने के लिए विवश किया जाता है। कई बार तो ऐसा भी होता है, कि वधू पक्ष द्वारा मांगों की पूर्ति न होने पर नव-विवाहिताओं की हत्या तक कर दी जाती है। इसके अलावा कई बार ससुराल पक्ष की शारीरिक प्रताड़ना और दुव्र्यवहार से तंग आकर नव-विवाहिता भावनात्मक रूप से बिल्कुल टूट जाती है। और अंततः वह आत्महत्या का रास्ता चुन लेती है। महिलाओं द्वारा की जाने वाली अधिकतर आत्महत्याओं के पीछे दहेज भी एक मुख्य कारण होता है। दहेज प्रताड़ना का शर्मनाक मनोवैज्ञानिक पहलू यह भी है कि नव-विवाहिता को दहेज के लिए अक्सर महिलाएं (सास, नंनद आदि) ही प्रताड़ित करती हैं। प्रायः महिला हत्या के अधिकतर मामले दहेज के कारण ही अस्तित्व में आते हैं।
ध्यातव्य है कि भारत में दहेज से संबंधित उत्पीड़न की वारदातें शहरों में अधिक हो रही हैं। दहेज विरोधी अधिनियम के तहत दर्ज मामलों का 10.9 प्रतिशत हिस्सा 23 बड़े शहरों में पाया जाता है। ‘‘यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 50,000 महिलाएं कम दहेज लाने के कारण मार दी जाती हैं। प्रतिदिन करीब एक दर्जन औरतें रसोई में जलकर मर जाती है’’ और, इन्हें दुर्घटना कहकर टाल दिया जाता है। ‘‘एक और सर्वे के अनुसार हमारे देश में प्रति 102वें मिनट में एक दहेज के कारण हत्या होती है, और दहेज के कारण ही 10,000 स्त्रियां प्रति वर्ष मारी जाती हैं।’’
यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘‘दहेज एक ऐसी महामारी है, जो अनेक परिवारों को तबाह कर देती है। शायद यह एक ऐसा अपराध है जिसे बड़ें दायरे में सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है। आज भी इसे अपराध के रूप में नहीं देखा जाता है।’’ सरकार द्वारा अनेक अधिनियम लागू किए जाने के बावजूद दहेज की सामाजिक बुराई दिन-प्रति-दिन बढ़ रही है। महिलाओं को उनके पतियों और ससुराल वालों की मिली भगत से जीवित जलाया जा रहा है। ‘‘महिलाओं के विकास के लिए केंद्र (सेंटर फॉर डेवलॅपमेंट ऑफ वीमेन) के एक अध्ययन के अनुसार हर घंटे दहेज के कारण एक मृत्यु होती है।’’
‘‘एक अन्य अध्ययन के मुताबिक 42 महिला अपराधियों में से कुल 10 महिलाएं, बहू-हत्या की दोषी थीं। इन दस महिलाओं में तीन ने तो बहू की हत्या करना स्वीकार किया, जबकि अन्य सात सारे सबूत होने के बावजूद हत्या के आरोप को नकार रही थीं। दस महिलाओं में से चार ने स्वयं अपनी बहू की हत्या की, जबकि 6 ने हत्या में, बतौर सहयोगी की भूमिका में थीं। आंकड़ों के मुताबिक दहेज के कारण नव-विवाहिता की हत्या अधिकांशतः मिट्टी का तेल छिड़ककर, भोजन में जहर मिलाकर, कुएं आदि में धकेल कर या फिर फांसी का फंदा लगाकर की जाती है।’’
अगर देखा जाए तो स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व ही दहेज एक सामाजिक बुराई का रूप ले चुका था। इसे दूर करने के लिए संसद में सन् 1961 में एक अधिनियम पारित किया। हालांकि, ‘दहेज प्रतिरोध अधिनियम’ 1961 में बहुत-सी कमियां थी। इसलिए समय-समय पर इसमें कई संशोधन किए गए। इस संदर्भ में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य उल्लेखनीय हैं; यथा-
·        सन् 1961 में दहेज प्रतिरोध अधिनियम पारित,
·        सन् 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा इसमें संशोधन,
·        सन् 1985 में दहेज प्रतिषेध (वर-वधू भेंट सूची) नियम पारित,
·        1986 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा महत्त्वपूर्ण संशोधन,
सन् 1986 में इसमें आधार भूत परिवर्तन किए गए। धारा-3 के तहत दहेज लेन-देन को अपराध घोषित कर दिया गया है। अधिनियम की प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं-
Ø  दहेज लेने और देने वाले को 5 वर्ष की कैद और 1500 रू. तक के जुर्माने की सज़ा दी जा सकती है (धारा-3)
Ø  दहेज मांगने वाले पक्ष को 6 माह की कैद हो सकती है और कैद की अवधि दो वर्ष तक के लिए बढ़ाई जा सकती है (धारा-44)
Ø  दहेज मांगने वाले पर 15000 रू. तक का आर्थिक दंड भी लगाया जा सकता है (धारा- 44)
Ø  यदि विवाहिता की मौत किसी भी कारण से विवाह के सात वर्षों के भीतर हो जाती है, तो दहेज में दिया गया सारा समान विवाहिता के मां-बाप या उनके उत्तराधिकारियों को मिल जायेगा।
Ø  दहेज उत्पीड़न एक गैर-जमानती अपराध होगा।
Ø  यदि विवाहिता की मृत्यु विवाह के सात साल के भीतर किसी भी अप्राकृतिक कारण (आत्महत्या भी इसमें शामिल है) से होती है, तो ऐसी मौत को हत्याकी श्रेणी में रखकर आरोपियों के खिलाफ़ हत्या का मुकदमा चलाया जायेगा, जिसके लिए उन्हें सात साल से लेकर उम्र कैद तक की सज़ा दी जा सकती है (धारा -304 अ ब)। साथ-ही-साथ संशोधित अधिनियम में क्रूरताऔर प्रताड़नाको भी अच्छी तरह से परिभाषित किया गया है।
चूंकि, दहेज संबंधी मामले काफी बढ़ रहे हैं, इसलिए इनकी रोकथाम के लिए कई अन्य उपाय भी किए गए हैं। महानगरों और जिला, स्तर पर विशेष पुलिस प्रकोष्ठ सेलबनाए गए हैं, जो दहेज उत्पीड़न के मामलों को ही देखते हैं। दहेज विरोधी ये विशेष पुलिस प्रकोष्ठदहेज संबंधी मामलों को रोकने और उनका त्वरित ढंग से निपटरा करने में काफी कारगर साबित हो रहे हैं। इसके अलावा कुछ शहरों मे विशेष महिला थाने भी स्थापित किए गए हैं।
दहेज उत्पीड़न और दहेज हत्या को रोकने के लिए कानून तो हैं, लेकिन अधिकतर महिलाओं को न तो इसका ज्ञान होता है, और न ही यह जानकारी कि दहेज उत्पीड़न की शिकायत वे कहां और कैसे दर्ज कराएं। दहेज की प्रताड़ना झेल रही अधिकांश महिलाएं विभिन्न सामाजिक और पारिवारिक कारणों से न्याय की शरण में नहीं जा पाती हैं। अत्याचार सहने की अपनी स्त्री सुलभ प्रवृत्ति के कारण महिलाएं दहेज उत्पीड़न सहती रहती हैं, क्योंकि न्याय पाने से ज्यादा उनकी इच्छा परिवार को टूटने से बचाने की होती है। सन् 1983 में भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.) में महिलाओं को दहेज प्रताड़ना से बचाने के लिए एक नई धारा 498ए जोड़ी गई। ‘‘इस धारा के प्रावधान के अंतर्गत पति या ससुराल वालों की ओर से यदि महिला के साथ किसी भी प्रकार का क्रूर व्यवहार किया गया हो, तो पीड़िता स्वयं भी पुलिस स्टेशन के इंचार्ज अधिकारी को इसकी शिकायत कर सकती है। साथ ही पीड़िता के एफ.आई.आर. मात्र दर्ज करने पर बिना किसी सबूत वगैरह के आरोपियों को गिरफ़्तार किया जा सकता है।’’
            दहेज जैसी कुरीति को प्रभावी ढंग से रोकने का प्रयास करना चाहिए। इस बुराई से लड़ने के लिए जनता, विशेषकर युवाओं को आगे आना होगा। प्रेम विवाह और अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहित करके भी दहेज की सामाजिक बुराई से बचा जा सकता है। दहेज रूपी सामाजिक समस्या को समाप्त करने के लिए कानून से भी ज्यादा जरूरत नैतिक आंदोलन की है, जिसमें युवक-युवतियों दोनों को ही समान रूप से जिम्मेदारी निभानी होगी। दहेज उत्पीड़न के खिलाफ़ लड़ाई, दो मोर्चों पर लड़नी होगी। सबसे पहले तो दहेज प्रतिषेध अधिनियम को सख्ती से लागू करना होगा। इसके साथ-साथ बड़े पैमाने पर जन चेतना द्वारा दहेज की सामाजिक कु-प्रथा के खिलाफ़ एक व्यापक अभियान चलाया जाना जरूरी है।

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