सरोकार की मीडिया

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Monday, April 30, 2012

हमारा कर्म हमारे भाग्य और हमारा भाग्य हमारे कर्म का निर्धारण करता है


हमारा कर्म हमारे भाग्य और हमारा भाग्य हमारे कर्म का निर्धारण करता है
विश्व के सभी महान् अध्यापक, संत और व्यक्ति के इस कथन में एकमत है कि हमारा कर्म हमारे भाग्य का निर्धारण करता है। अपने व्यावहारिक अनुभव से उन्होंने उपरोक्त कथन की सच्चाई को महसूस किया था। यदि हम पुरूषों और महिलाओं के जीवन और संघर्ष के बारे में अध्ययन करते हैं जिन्होंने समय रूपी बालू पर अपने पदचिंह छोडे़ हैं, तो हम पाएंगे कि इसे महान आत्मा वाले लोग असाधारण मानव नहीं थे। ये लोग भी हमारी ही तरह मांस और रक्त के पुरूष और महिला थे। किंतु उन्होंने केवल अपनी बहादुरी, वीरोचित कर्म, उत्साह, उमंग और कठिन परिश्रम के जरिए ही असंभव को प्राप्त किया। अशोक, कृष्ण देव राय, अकबर, शिवाजी, महाराणा प्रताप, रानी लक्ष्मीबाई, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद ने महान् कार्य किए और अपने महान् कार्य के जरिए ही भारत और विश्व के इतिहास के पन्नों में अपना नाम दर्ज करवा दिया।
वर्तमान में हम जिस स्थित में स्वयं को उलझा हुआ पाते हैं उसके लिए कोई दूसरा नहीं बल्कि हम स्वयं जिम्मेवार हैं। गौरव या बदनामी हमारे अच्छे कृत्यों की पराकष्ठा है। समाज में हमारी स्थिति इस संसार के किए गए कार्यों के अनुसार निर्धारित होती है। हमारे द्वारा किए गए कार्य हमें समाज में बदनाम करते हैं या यश दिलाते है। यदि हमारे अच्छे कर्म हमारे भौंह के पसीने से लथपथ होते हैं तो हमें सातवें आसमान को छूने और पूर्ण संतुष्टि के लिए अपने जीवन में संजोए लक्ष्य को प्राप्त करने से कोई नहीं रोक सकता है। किंतु यदि हमारे कर्म अधम होते हैं और यदि हमारे दिमाग और दिल में बुरी मनोवृत्ति होती है तो ठीक इसके विपरीत होगा। किस की भी बदनामी दूसरों के कर्मों से नहीं बल्कि अपने कर्मों से होती है। इसलिए ठीक ही कहा गया है कि हमें जीवन से वही मिलता है जो हम इसे देते हैं।
यदि हम जीवन में सही रास्ता चुनते है और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कठिन परिश्रम करते हुए इस रास्ते पर आगे बढ़ते रहें तथा अच्छे कार्य करते रहें तो हमें सकारात्मक एवं अच्छे परिणाम मिलेंगे। किंतु यदि हम जीवन में गलत रास्ते का अनुसरण करते हैं तथा बुरे कार्य करते हैं और हमारा लक्ष्य अनर्थकारी होगा तथा प्रवृत्ति स्वार्थी होने पर इसके परिणाम हमारे और हमारे सहकर्मियों और अनुयायियों के लिए काफी भयावह होंगे। जो व्यक्ति बिना सोच-समझे हमेशा गलत कार्य करते हैं या जो अपराध करने से नहीं हिचकिचाते हैं उन्हें जल्दी ही इन कर्मों की भारी कीमत चुकानी होगी। ऐसे दुर्दान्त अपराधी झूठ बोलने वाली मशीन परीक्षण से बच सकते हैं तथा कुछ समय के लिए संपूर्ण विश्व को मूर्ख बना सकते हैं किंतु उनकी करनी का हिसाब-किताब जल्दी ही हो जाएगा। अंततः बुरे कार्य उन अपराधियों को शांति की जिंदगी नहीं जीने देते है। वह मौत के बाद भी शांति नहीं पाता है। मृत्यु के बाद नरक का दहकता द्वारा ही उसका स्वागत करेगा। इस संबंध में एक महान् व्यक्ति की यह उक्ति कि जो बुरे कार्यों से अछूता है, उसे कोई सजा नहीं मिलती है, हमेशा याद रखने की सलाह दी जाती है। जैसा आप बोयेंगे वैसा ही काटेंगेउक्ति को बार-बार दुहराना चाहिए। इससे शाश्वत सत्य को मूर्तरूप प्रदान होता है जिससे हमारे कर्म हमारा मार्गदर्शन करते हैं तथा हम अपने कर्म का निर्धारण करते हैं।
यदि हम जीवन में प्रगति और समृद्धि प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें सर्वप्रथम सही रास्ता चुनना चाहिए और तब सही दिशा में इस पर ईमानदारीपूर्वक चलना चाहिए। हम बिना संघर्ष के कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते है तथा हम जब तक निहित स्वार्थों और अधम विचारों से ऊपर नहीं उठेंगे तब तक कोई भी सत्कर्म नहीं कर सकेंगे। कर्म का अर्थ कार्य से है कर्म का अर्थ संघर्ष लगातार एवं लंबा संघर्ष है।
हमारी वास्तविक खुशियां हमारे कार्यों या उनसे अर्जित धन पर निर्भर करती हैं। अपितु यह हमारे समर्पण एवं एकाग्रचितता पर निर्भर करती हैं। वर्तमान ही भविष्य की कुंजी है। यदि हम अपना भविष्य उज्जवल बनाना चाहते हैं तो हमें अपने जीवन की वर्तमान उन सभी चीजों को त्यागने के लिए तैयार रहना चाहिए जो हमारे लक्ष्यों की प्राप्ति में बाधक हैं। हमारी लक्ष्यप्राप्ति इस तर्क पर आधरित है कि यदि हम एक तरफ कुछ पाना चाहते हैं तो इसके बदले में दूसरी तरफ हमें कुछ खोना या त्यागना होगा।
कर्म हमारे भावी जीवन और अगले जन्म का निर्धारण करते हैं। इस कारण ही हम जो आज वह पिछले कर्मों का प्रतिफल है और हमारा आने वाला कल वर्तमान के सत्कर्म या दुष्कर्म पर निर्भर है। यह विवादास्पद विषय है, ‘हमारे कार्यों का निर्धारण कौन करता है?’’ इसका साधारण उत्तर है, ‘कोई और नहीं बल्कि हम स्वयं।इस बात की पुष्टि एक लोकप्रिय इटली कहावत द्वारा होती है जिसमें कहा गया है कि प्रत्येक आदमी अपने भाग्य का निर्माता होता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि एक सत्कर्म लोगों के मस्तिष्क में रहने वाले और अमिट छाप छोड़ने वाले हजारों शब्दों के योग्य है। इसलिए यह शाश्वत सत्य है कि कर्मों की आवाज शब्दों से अधिक होती है। जहां लाखों शब्द आपको विपत्ति में समझाने-बुझाने और आप पर विजय प्राप्त करने में असफल हो जाते है, वहीं एक अकेला सत्कर्म इस विपत्ति में मरहम की तरह कार्य करता है जिसका प्रभाव हमेशा रहता है। हम सत्कर्म या दुष्कर्म से इस संसार में नरक को स्वर्ग या स्वर्ग को नरक में बदल सकते हैं। हमें अपने सत्कर्मों, त्याग और कठिन कार्यों से ही वैसा बन सकते है, जैसा हम बनना चाहते हैं। हम केवल अपने कर्मों से ही अपना भविष्य संवार या बिगाड़ सकते हैं। हमें इस संसार को अधिक से अधिक एवं सर्वोत्तम बातें प्रदत्त करनी चाहिए। संसार के सभी धर्म एक स्वर में भावी जीवन को सजाने-संवारने का उपदेश देते हैं। जैसा हम करेंगे, वैसा ही हमें फल मिलेगा। व्यक्ति थे पारितोषिक या उसकी सजा के मेधावी होने या उसको बुरे कर्मों से आंका जाता है।

Sunday, April 29, 2012

धन से सच्चाई छिप जाती है


धन से सच्चाई छिप जाती है
हमारी पारंपरिक मूल्य-व्यवस्था एवं स्थापित आचार-संहिता के अनुसार, कोई भी व्यक्ति चाहे वह धनी हो या निर्धन, जवान हो या बूढ़ा, पुरूष हो या महिला, विकलांग या स्वस्थ्य हो, उसकी पहचान और उसका मूल्यांकन उसके धन या संपत्ति से नहीं बल्कि उसकी सच्चाई और ईमानदारी के गुणों से किया जाता था। यहां तक कि स्वतंत्र भारत सरकार ने सत्यमेव जयते का प्रतीक अपनाया जिसका अर्थ है हमेशा सत्य की विजय होती है। उत्तर भारत के अंतिम हिंदू शासक, हर्षवर्धन केवल अपनी बहादुरी और विजयों के लिए नहीं अपितु निजी एकता और पवित्र जीवन के लिए प्रसिद्ध थे। किंतु अब ऐसा लगता है कि ये मानदंड पूरी तरह से बदल चुके हैं। अब धन का मायाजाल फैल गया है। पहले हम यह सुनते थे कि धन ही सब कुछ नहीं होता, लेकिन अब हम उक्त कथन कहने को मजबूर हैं कि आज के परिप्रेक्ष्य में धन ही सब कुछ होता है। क्योंकि आज कोई भी वस्तु क्यों न हो धन से उसे खरीदा जा सकता है। आज धन बड़े और छोटे लोगों का सद्भाव खरीद सकता है। एक तरफ धन से अंधे लोगों में कोर्नियां का प्रतिरोपण करके दृष्टि वापस लाई जा सकती है और धन से ही ह्रदय भी परिवर्तित करवाया जा सकता है। यह केवल दिवा-स्वप्न नहीं बल्कि हकीकत है कि  आज रोगग्रस्त एवं बेकार ह्रदय को किसी मरणासन्न व्यक्ति के ह्रदय से, जिसका ह्रदय अच्छी तरह कार्य कर रहा हो, बदला जा सकता है।
जीवन के इन उच्च मूल्यों की प्रवृत्ति में यह परिवर्तन कैसे आया? सोच का विषय है। स्वतंत्रता के बाद जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत ने तीव्र औद्योगीकरण देखा। प्रारंभ में, नव-स्वतंत्र भारत में, अधिक भ्रष्टाचार नहीं था। झूठ केवल कचहरियों की चारदीवारी तक सीमित था जहां गवाह ईश्वर की शपथ लेकर भी झूठ बोलते थे। किंतु तीव्र औद्योगीकरण तथा परमिट-कोटा राज ने युवाओं के विकास को जन्म दिया और मध्यम वर्ग के लोगों को किसी भी माध्यम से तथा किसी भी कीमत पर अधिक धन प्राप्त करने की ओर प्रवृत्त किया। अंग्रेजों के चले जाने के बाद स्वतंत्रता संघर्ष के नेता एक-एक करके राजनीतिक दृश्य से ओझल होते गए तथा उनकी जगह पर उनके पुत्र, पुत्रियां, भतीजे, दमाम तथा अन्य लोग आते गए, जिससे वस्तु-स्थिति में परिवर्तन हो गया। नए उभरते ठेकेदार, जो राजनीतिक दादाओं की दूसरी पीढ़ी हैं, जो अपनी पैतृक राजनीति को किसी भी माध्यम एवं कीमत पर कायम रखना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें चुनाव लड़ने होते हैं जिसमें काफी धन लगता है। इन दो वर्गों के बीच धन का लालच और सत्ता की भूख के कारण जल्द ही एक संबंध स्थापित हो जाता है। देश के परंपरागत देश भक्त पैसे वालों के हाथों की कठपुती बन जाते हैं जो राजनीतिज्ञों को किसी भी कीमत पर चुनाव जिताने के लिए पैसों से भरे ट्रक की आपूर्ति करते रहते हैं और सत्ता में आ जाने के बाद अच्छे राजनीतिज्ञ इन पैसे वालों का उपकार चुकाने के क्रम में उनका गैर-जिम्मेदाराना समर्थन करने लगते हैं। इस प्रकार पैसे वाले लोग, जो राजनीतिक अनुदानों में कुछ करोड़ रूपये खर्च करते हैं, बदले में उन्हें हजारों करोड़ रूपये मिल जाते हैं। जब उनसे प्रश्न पूछे जाने लगते हैं तो राजनीतिज्ञ सदन के अंदर या बाहर झूठ बोल देते हैं। पैसे वाले लोग जब किसी कानूनी कार्रवाही के दौरान पकड़ जाते हैं तो यह दावा कर देते हैं कि उन्होंने अमुक-अमुक व्यक्तियों को अमुक-अमुक उद्देश्यों के लिए करोड़ों रूपए दिए हैं। जिन व्यक्तियों पर पैसे लेने के आरोप लगाए जाते हैं वे एक पंक्ति का कथन देकर बताते है कि उन्होंने इस प्रकार का कोई पैसा किसी से नहीं लिया है। किंतु यह आदमी नहीं बल्कि धन और अधिकार बोलते हैं। क्योंकि सभी जानते है कि दोषी कौन है फिर भी सच्चाई छिप जाती है या छिपा दी जाती है। चोर-चोर मौसरे भाई के रिश्तों की तरह सभी इनका साथ देने लगते हैं और यह प्रमाणित करने लगते है कि उक्त दोषी नहीं है। विचित्र दलीलें देने लगते हैं। वहीं सत्य अपनी आंखें नीची किए हुए एक तरफ खड़ा रहता है क्योंकि वह धन की तरह ऊंची आवाज में नहीं बोल सकता। यदि वह बोलता तो उसे कोई नहीं सुनता। उसे हमेशा डर रहता है कि उसे ईश-निंदा के लिए जेल में बंद किया जा सकता है।
यह बीमारी और भी असाध्य हो गई है। न्यूनतम प्रयासों से अधिक धन के लालच में अपराधियों ने साधुओं का वेश धारण कर लिया है और राजनीति के क्षेत्र में कूद पड़े हैं। भारतीय राजनीति के इस संक्रमण से, जिसे राजनीति का अपराधीकरणकहा जाता है, भारतीय प्रशासन व्यवस्था पर धन की पकड़ मजबूत हो चुकी है। अपराधी-राजनीतिज्ञ गठजोड़ की जांच करने वाली वोहरा समिति की रिपोर्ट में बताया गया कि माफिया एक समांतर सरकार चला रही है जो सरकार को भी अप्रसांगिक बना रही है।
धन के बल का कुरूप चेहरा भारत के लोक जीवन में केवल राजनीतिज्ञों के बीच ही लोकप्रिय नहीं है अपितु नौकरशाहों, शिक्षाविदों एवं यहां तक कि बुद्धिजीवियों में भी यह काफी लोकप्रिय हैं। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि इसके कारण कई घोटाले हुए हैं। बोफोर्स घोटाला, बैंक प्रतिभूति घोटाला, जैन हवाला, बिहार चारा घोटाला, यूरिया घोटाला, आवास घोटाला, 2जी घोटाला और आने वाले समय में 3 जी घोटाले की संभावना।
अगर कहां जाए तो सरकार के बनने तथा गिराने से लेकर हर चीज में धन को बल दिया जाता है क्योंकि मत-पत्रों की इस क्रांति के बाद भी, कोई भी सरकार बिना खरीद-फरोख्त के स्थायी नहीं बनी है। इस खरीद-फरोख्त के लिए पुनः पैसों की आवश्यकता होती है। और धन से हर सच्चाई छिप जाती है।

Wednesday, April 18, 2012

निर्मला बाबा लूट-इंडिया-लूट........


निर्मला बाबा लूट-इंडिया-लूट........

आज हर चैनलों पर एक ही नाम गूंज रहा है, हां भई हां। निर्मल बाबा, चारों तरफ निर्मल बाबा ही निर्मल बाबा। एक तरफ इस बाबा के पक्ष में तो दूसरी ओर इसके विपक्ष में हजारों की संख्यां में लोगों का जमावड़ा दिखाई दे रहा है। कभी आस्था तो कभी पैसे की कमाई, तो कभी भक्तों की फिक्सिंग। क्या है यह सब। सबकी समझ से परे है। वैसे हमारे देश में आये दिन कोई न कोई बाबा जन्म ले ही लेता है। जो धर्म और उनकी समस्याओं के निवारण के नाम पर उनकी मेहनत की कमाई को ठगने का काम आसानी से करता रहता है। जिसका सहयोग मीडिया भी कर रहा है। और हर चैनलों पर उसके कारनामों को दिखाया जा रहा है। वहीं काटजू ने कहा है कि इस तरह के अं‍धविश्वास से संबधित सभी कार्यक्रमों पर पूर्णरूप से प्रतिबंध लग जाना चाहिए।
इस परिप्रेक्ष्य। में बात करे तो इस मुद्दे पर हमारे देश के सभी सर्वमान्य बाबा जिसमें रामदेव बाबा भी आते हैं वो क्यों चुप हैं, क्या चोर-चोर मौसरे भाई का मामला तो नहीं है तभी तो अभी तक रामदेव की तरफ से कोई भी ब्याक नहीं आया। वहीं अन्ना  हजारे जो आंदोलनों के प्रणनेता कहे जाते हैं। वो भी इस भ्रष्ट की करतूत पे अपनी चुप्पी साधे हुए है। कुछ न कुछ गंभीर मामला तो जरूर है कोई खिचड़ी तो जरूर पकाई जा रही है। एक प्रश्न  मेरे जहन में बार बार उठ रहा है क्या इस बाबा के सिर पर किसी बड़े राजनेता का हाथ तो नहीं है। सवाल अभी भी जनता के कठघरे में कैद है। जिसका जबाव मैं खोजने की कोशिश कर रहा हूं।
वहीं एक बात और अगर इस बाबा में दिव्य शक्ति है तो वह पूरे देश से भुखमरी, कुपोषण, और लाईलाज जैसी बिमारियों के साथ-साथ हो रहे आंतकी वारदातों को क्यों खत्म  नहीं कर देते। मुझे तो यह बाबा सभी बाबाओं की तरह ठोंगी बाबा ही लग रहा है जो जनता को उल्लू बना रहा है और धर्म, आस्थां, कष्टों के निवारण के नाम पर करोड़ों रूपये अपनी तिजौरी में भर रहा है। जिस पर पूरा प्रशासन मौन बना हुए है और जनता को लुटते हुए देख रहा है। कारण तो जरूर है, पर्दा अभी पड़ा हुआ है जो वक्त की आंधी से जरूर उठ जाएगा और इस बाबा की हकीकत समाज के सामने आ ही जाएगी।  

Saturday, April 14, 2012

दहेज उत्पीड़न और कानून


दहेज उत्पीड़न और कानून

            ‘दहेजएक ऐसी कु-प्रथा है, जो सदियों से हमारे समाज में मौजूद है। और समाज का कोई भी वर्ग इससे अछुता नहीं है। लाख प्रयासों के बावजूद समाज को छोड़ने का नाम नहीं ले रही है। या यूं कहें कि इस कु-प्रथा का कोई छोर नज़र नहीं आता, जहां से इसे सुलझाने की कोशिश की जा सके। हालांकि दहेज की संवैधानिक परिभाषा-‘‘अनुच्छेद 2 के अनुसार, ‘दहेजका शब्दिक अर्थ ऐसी प्रॉपर्टी या मूल्यवान वस्तु (समान, पैसा या और कोई वस्तु) से है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लड़की पक्ष द्वारा शादी के वक्त लड़का पक्ष को दी जाती है।’’ दहेज की परिभाषा देते हुए फेयर चाइल्ड ने लिखा है कि, ‘‘दहेज वह धन या संपत्ति है, जो विवाह के उपलक्ष्य पर लड़की के माता-पिता या अन्य संबंधियों द्वारा वर पक्ष को दिया जाता है।’’ दहेज एक ऐसी सामाजिक बुराई है, जिसके चलते सैकड़ों नव-विवाहिताओं को आज भी असमय मौत का ग्रास बनना पड़ता है। इसमें भी सबसे ज्यादा मौतें जलने के परिणामस्वरूप होती हैं। कुछ युवतियों को ससुराल पक्ष द्वारा जबर्दस्ती जिंदा जला दिया जाता है, तो कुछ औरतों को दहेज के लिए ससुराल में इतना परेशान किया जाता है कि वे जलकर आत्महत्या कर लेती हैं।
इस आलोच्य में किसी भी अस्पताल के बर्न विभाग में देखें, तो वहां महिलाएं इस प्रकरण में दर्द से कहारती नज़र आ जाती हैं। इनमें से अधिकतर समाज की आपराधिक मानसिकता का शिकार होकर दर्द से छटपटा रही होती हैं। ‘‘आंकड़ें गवाह हैं कि अधिकांश दुल्हन जलाने की घटनाएं, दहेज मौतें या विवाहिता हत्या के मामले लड़की के ससुराल वालों की उन अतृप्त मांगों के परिणाम होते हैं, जिन्हें लड़की के माता-पिता पूरा नहीं कर पाते हैं।’’ दहेज का आर्थिक पक्ष इस कुरीति का सबसे खौफ़नाक पक्ष है। यदि वर पक्ष को इच्छित दहेज नहीं मिलता, तो वह नव-विवाहिता पर शारीरिक और मानसिक जुल्म देना शुरू कर देता है। नव-विवाहिता को तरह-तरह से तंग किया जाता है, उसे अधिक-से-अधिक दहेज लाने के लिए विवश किया जाता है। कई बार तो ऐसा भी होता है, कि वधू पक्ष द्वारा मांगों की पूर्ति न होने पर नव-विवाहिताओं की हत्या तक कर दी जाती है। इसके अलावा कई बार ससुराल पक्ष की शारीरिक प्रताड़ना और दुव्र्यवहार से तंग आकर नव-विवाहिता भावनात्मक रूप से बिल्कुल टूट जाती है। और अंततः वह आत्महत्या का रास्ता चुन लेती है। महिलाओं द्वारा की जाने वाली अधिकतर आत्महत्याओं के पीछे दहेज भी एक मुख्य कारण होता है। दहेज प्रताड़ना का शर्मनाक मनोवैज्ञानिक पहलू यह भी है कि नव-विवाहिता को दहेज के लिए अक्सर महिलाएं (सास, नंनद आदि) ही प्रताड़ित करती हैं। प्रायः महिला हत्या के अधिकतर मामले दहेज के कारण ही अस्तित्व में आते हैं।
ध्यातव्य है कि भारत में दहेज से संबंधित उत्पीड़न की वारदातें शहरों में अधिक हो रही हैं। दहेज विरोधी अधिनियम के तहत दर्ज मामलों का 10.9 प्रतिशत हिस्सा 23 बड़े शहरों में पाया जाता है। ‘‘यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 50,000 महिलाएं कम दहेज लाने के कारण मार दी जाती हैं। प्रतिदिन करीब एक दर्जन औरतें रसोई में जलकर मर जाती है’’ और, इन्हें दुर्घटना कहकर टाल दिया जाता है। ‘‘एक और सर्वे के अनुसार हमारे देश में प्रति 102वें मिनट में एक दहेज के कारण हत्या होती है, और दहेज के कारण ही 10,000 स्त्रियां प्रति वर्ष मारी जाती हैं।’’
यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘‘दहेज एक ऐसी महामारी है, जो अनेक परिवारों को तबाह कर देती है। शायद यह एक ऐसा अपराध है जिसे बड़ें दायरे में सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है। आज भी इसे अपराध के रूप में नहीं देखा जाता है।’’ सरकार द्वारा अनेक अधिनियम लागू किए जाने के बावजूद दहेज की सामाजिक बुराई दिन-प्रति-दिन बढ़ रही है। महिलाओं को उनके पतियों और ससुराल वालों की मिली भगत से जीवित जलाया जा रहा है। ‘‘महिलाओं के विकास के लिए केंद्र (सेंटर फॉर डेवलॅपमेंट ऑफ वीमेन) के एक अध्ययन के अनुसार हर घंटे दहेज के कारण एक मृत्यु होती है।’’
‘‘एक अन्य अध्ययन के मुताबिक 42 महिला अपराधियों में से कुल 10 महिलाएं, बहू-हत्या की दोषी थीं। इन दस महिलाओं में तीन ने तो बहू की हत्या करना स्वीकार किया, जबकि अन्य सात सारे सबूत होने के बावजूद हत्या के आरोप को नकार रही थीं। दस महिलाओं में से चार ने स्वयं अपनी बहू की हत्या की, जबकि 6 ने हत्या में, बतौर सहयोगी की भूमिका में थीं। आंकड़ों के मुताबिक दहेज के कारण नव-विवाहिता की हत्या अधिकांशतः मिट्टी का तेल छिड़ककर, भोजन में जहर मिलाकर, कुएं आदि में धकेल कर या फिर फांसी का फंदा लगाकर की जाती है।’’
अगर देखा जाए तो स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व ही दहेज एक सामाजिक बुराई का रूप ले चुका था। इसे दूर करने के लिए संसद में सन् 1961 में एक अधिनियम पारित किया। हालांकि, ‘दहेज प्रतिरोध अधिनियम’ 1961 में बहुत-सी कमियां थी। इसलिए समय-समय पर इसमें कई संशोधन किए गए। इस संदर्भ में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य उल्लेखनीय हैं; यथा-
·        सन् 1961 में दहेज प्रतिरोध अधिनियम पारित,
·        सन् 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा इसमें संशोधन,
·        सन् 1985 में दहेज प्रतिषेध (वर-वधू भेंट सूची) नियम पारित,
·        1986 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा महत्त्वपूर्ण संशोधन,
सन् 1986 में इसमें आधार भूत परिवर्तन किए गए। धारा-3 के तहत दहेज लेन-देन को अपराध घोषित कर दिया गया है। अधिनियम की प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं-
Ø  दहेज लेने और देने वाले को 5 वर्ष की कैद और 1500 रू. तक के जुर्माने की सज़ा दी जा सकती है (धारा-3)
Ø  दहेज मांगने वाले पक्ष को 6 माह की कैद हो सकती है और कैद की अवधि दो वर्ष तक के लिए बढ़ाई जा सकती है (धारा-44)
Ø  दहेज मांगने वाले पर 15000 रू. तक का आर्थिक दंड भी लगाया जा सकता है (धारा- 44)
Ø  यदि विवाहिता की मौत किसी भी कारण से विवाह के सात वर्षों के भीतर हो जाती है, तो दहेज में दिया गया सारा समान विवाहिता के मां-बाप या उनके उत्तराधिकारियों को मिल जायेगा।
Ø  दहेज उत्पीड़न एक गैर-जमानती अपराध होगा।
Ø  यदि विवाहिता की मृत्यु विवाह के सात साल के भीतर किसी भी अप्राकृतिक कारण (आत्महत्या भी इसमें शामिल है) से होती है, तो ऐसी मौत को हत्याकी श्रेणी में रखकर आरोपियों के खिलाफ़ हत्या का मुकदमा चलाया जायेगा, जिसके लिए उन्हें सात साल से लेकर उम्र कैद तक की सज़ा दी जा सकती है (धारा -304 अ ब)। साथ-ही-साथ संशोधित अधिनियम में क्रूरताऔर प्रताड़नाको भी अच्छी तरह से परिभाषित किया गया है।
चूंकि, दहेज संबंधी मामले काफी बढ़ रहे हैं, इसलिए इनकी रोकथाम के लिए कई अन्य उपाय भी किए गए हैं। महानगरों और जिला, स्तर पर विशेष पुलिस प्रकोष्ठ सेलबनाए गए हैं, जो दहेज उत्पीड़न के मामलों को ही देखते हैं। दहेज विरोधी ये विशेष पुलिस प्रकोष्ठदहेज संबंधी मामलों को रोकने और उनका त्वरित ढंग से निपटरा करने में काफी कारगर साबित हो रहे हैं। इसके अलावा कुछ शहरों मे विशेष महिला थाने भी स्थापित किए गए हैं।
दहेज उत्पीड़न और दहेज हत्या को रोकने के लिए कानून तो हैं, लेकिन अधिकतर महिलाओं को न तो इसका ज्ञान होता है, और न ही यह जानकारी कि दहेज उत्पीड़न की शिकायत वे कहां और कैसे दर्ज कराएं। दहेज की प्रताड़ना झेल रही अधिकांश महिलाएं विभिन्न सामाजिक और पारिवारिक कारणों से न्याय की शरण में नहीं जा पाती हैं। अत्याचार सहने की अपनी स्त्री सुलभ प्रवृत्ति के कारण महिलाएं दहेज उत्पीड़न सहती रहती हैं, क्योंकि न्याय पाने से ज्यादा उनकी इच्छा परिवार को टूटने से बचाने की होती है। सन् 1983 में भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.) में महिलाओं को दहेज प्रताड़ना से बचाने के लिए एक नई धारा 498ए जोड़ी गई। ‘‘इस धारा के प्रावधान के अंतर्गत पति या ससुराल वालों की ओर से यदि महिला के साथ किसी भी प्रकार का क्रूर व्यवहार किया गया हो, तो पीड़िता स्वयं भी पुलिस स्टेशन के इंचार्ज अधिकारी को इसकी शिकायत कर सकती है। साथ ही पीड़िता के एफ.आई.आर. मात्र दर्ज करने पर बिना किसी सबूत वगैरह के आरोपियों को गिरफ़्तार किया जा सकता है।’’
            दहेज जैसी कुरीति को प्रभावी ढंग से रोकने का प्रयास करना चाहिए। इस बुराई से लड़ने के लिए जनता, विशेषकर युवाओं को आगे आना होगा। प्रेम विवाह और अंतर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहित करके भी दहेज की सामाजिक बुराई से बचा जा सकता है। दहेज रूपी सामाजिक समस्या को समाप्त करने के लिए कानून से भी ज्यादा जरूरत नैतिक आंदोलन की है, जिसमें युवक-युवतियों दोनों को ही समान रूप से जिम्मेदारी निभानी होगी। दहेज उत्पीड़न के खिलाफ़ लड़ाई, दो मोर्चों पर लड़नी होगी। सबसे पहले तो दहेज प्रतिषेध अधिनियम को सख्ती से लागू करना होगा। इसके साथ-साथ बड़े पैमाने पर जन चेतना द्वारा दहेज की सामाजिक कु-प्रथा के खिलाफ़ एक व्यापक अभियान चलाया जाना जरूरी है।

Tuesday, April 3, 2012

ये किस गली जा रहे हैं


ये किस गली जा रहे हैं
यात्रा का अनुभव अपने आप में बेहद सुखद और यात्रा कष्टकारी होती ही है। सेवाग्राम से नई दिल्ली  पूरे 19 घंटे और कुछ मिनट की यात्रा के बाद मैं नई दिल्ली  पहुंच गया। वहां से सीधे में आईएसबीटी बस अड्डे जा पहुंचा, तो पता चला कि यहां बस अड्डे का कार्य चल रहा है और श्रीनगर गढ़वाल जाने वाली बस यहां से नहीं, आनंद बिहार बस अड्डे से मिलेगी। क्या करू जाना तो था तो आनंद बिहार बस अड्डा जा पहुंचा। और पता करने लगा कि कौन-सी बस श्रीनगर गढ़वाल जाएगी, तो पता चला कि रात्रि के 9 बजे बस मिलेगी, इसके पहले कोई बस नहीं है। अब करो इंतजार।
बस अड्डे पर एक ब्रेंच पर जाकर बैठ गया, सोचा ये जगह अच्छी है इंतजार करने के लिए। तभी मेरी नजर एक लड़का और एक लड़की पर जा टकी। जिनको देखकर अंदाजा लगाया जा सकता था कि इनकी उम्र अभी 15 पार नहीं की होगी। और तो और पहली नजर में देखकर कर कोई भी ये अनुमान लगा सकता था कि ये दोनों भाई-बहन होंगे। हालांकि उनके बात-चीत के तौर-तरीके से ऐसा कदापि नहीं लग सकता था। शायद मैं भी गलत था, वो भाई-बहन नहीं थे। कुछ देर खड़े रहने के बाद वो दोनों मेरी ब्रेंच के पीछे पड़ी एक और ब्रेंच पर जाकर बैठ गये। कुछ समय के उपरांत लड़के ने अपनी जेब में से एक पर्ची निकाली और लड़की को दिखाने लगा। मेरा ध्यात उनकी बातों में ही था, इसलिए कमोवस मैं खड़ा हो गया, और देखा तो लगा कि किसी सिम के साथ आई हुई निर्देशिका लग रही थी। परंतु जब मैंने ध्यान से देखा तो वो आईपिल के साथ में आई हुई उस दवाई की निर्देशिका थी, जिसको दोनों लोग पढ़ रहे थे। तभी लड़के ने कहा कि कुछ किया भी नहीं और आईपिल खा ली, तभी लड़की ने जवाब दिया कि कहां कुछ नहीं किया,किया तो था। यदि कुछ हो जाएगा तो क्या, इसलिए खा ली। मेरे दोस्त तरूण ने भी तो अनामिका को खिलाई थी।
मेरी जगह कोई भी होता तो जरूर यही सोचता, कि दोनों के बीच शरीरिक संबंध जरूर बने होंगे। मैं अश्‍चर्य चकित हुआ कि इतनी सी उम्र में शरीरिक संबंध। फिर सोचा छोड़ों, हमको क्या लेना है। जब मां-बाप का ध्यान इनकी तरफ नहीं जाता तो मुझे क्या पड़ी है।
हालांकि निर्धारित समय पर बस आ गई जिसका टिकट मैंने लिया, और सीट पर जाकर बैठ गया। तभी वो दोनों भी उसी बस में आकर बैठ गये। कुछ समय के बाद लड़के ने अपने मोबाइल से उस लड़की को फिल्म दिखाना शुरू कर दिया, उनके चेहरे के हाव-भाव से पता चल रहा था कि वो दोनों किसी उत्तेजनक वस्तु को देख रहे हैं। मेरी दृष्टि पड़ते ही लड़के ने मोबाइल छिपा लिया। बस 10 बजे नई दिल्ली से श्रीनगर गढ़वाल के लिए रवाना हुई। रास्ते भर उनकी रंगरलियां देखने लायक थी, इतनी छोटी-सी उम्र और ये सब। फिर सोचा छोड़ों, उभरती हुई जवानी के मजे ले रहे हैं ले लेने दो। वैसे हम सब आजाद है और सभी को अपने हिसाब से जीने की पूर्ण छूट।
श्रीनगर से मैं 29 मार्च को हजरत निजामुद्दीन स्टे‍शन पहुंचा। 11 बजकर 45 मिनट पर खाना खाकर रात्र की ट्रेन दक्षिण एक्सप्रेस जो कि रात्रि 10 बजकर 50 मिनट पर थी उसका इंतजार करने के लिए मैं स्टेशन से सटे राजीव गांधी पार्क जा पहुंचा। जहां कुछ समय के बाद मुझे नींद आ गई। जब नींद टूटी तो वहां पर 7-8 लड़के जिनकी उम्र 14-15 रही होगी। वो आपस में गाली देकर बात कर रहे थे, कोई किसी को अपना बाप, तो कोई किसी को अपना जीजा बनाने पर अमादा था। और तो और जिसका हम सब धुत्तकार कर भगा देते है उसको भी ये लड़के अपना जीजा बना रहे थे। तभी पार्क में एक जोड़ा आया जो शादीशुदा था। उसको देखकर उन लड़को ने कहा कि क्या माल है भई, तभी एक लड़के ने कहा कि जा रहे होगें अपना काम करने। उन्हीं में से एक ने कहा काश मिल जाए।
इतनी कम उम्र में यह सब विचार। कहां से उपजी है ऐसी सोच। शायद सभी को सोचने पर मजबूर कर दे कि क्या शिक्षा प्रणाली में दोष है या मां-बाप की परवरिश में। जो ऐसी प्रवृत्ति इन बच्चों में पनप रही है। किसी न किसी का दोष तो जरूर है आज की जनरेशन का या फिर मां-बाप का, जो अपने बच्चों पर ध्यान नहीं देते कि वह किस गली जा रहे हैं। अगर बच्चे ऐसी प्र‍वृत्ति में लिप्त होते जा रहे हैं तो आने वाले समय में देश का भविष्य क्या होगा, ये वक्त‍ के गर्भ में कैद है।