सरोकार की मीडिया

test scroller


Click here for Myspace Layouts

Saturday, March 31, 2012

उच्च शिक्षा संस्थान में भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार


उच्च शिक्षा संस्थान में भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार

मैं इस विषय पर कोई आलेख/लेख लिखने के बिलकुल पक्ष में नहीं था, फिर भी लिख रहा हूं। क्योंकि किसी न किसी को एक दिन भ्रष्टाचार का शिकार होना पड़ता है। मैं साफ-साफ आप लोगों के समक्ष अपनी व्यथा रख रहा हूं, और आप सभी से उम्मीद रखता हूं कि मेरी इस कोशिश में आप सब मेरा साथ जरूर देगें।
बात बीते कुछ ही दिन हुए हैं यानि 28 मार्च, 2012 की बात है। मैंने और मेरे जैसे सैकड़ों बेरोजगार साथियों ने हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय में विश्वविद्यालय द्वारा विज्ञाप्त सहायक कुल सचिव पद हेतु आवेदन पत्र प्रेषित किया था। जिसके लिए विश्वविद्यालय ने 28 मार्च को लिखित परीक्षा तथा 29 मार्च को लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण प्रतिभागियों को 1:15 यानि एक सीट पर 15 लोगों को साक्षात्कार हेतु लिया जाएगा। समय और तिथि को ध्यान में रखते हुए दूर-दूर से प्रतिभागी विश्वविद्यालय पहुंचे। जहां दो भवनों में परीक्षा का आयोजन किया गया था, एक कॉमर्स ब्लॉक दूसरा साइंस ब्लॉक। मुझे साइंस ब्लॉक के कक्ष संख्या 101 में परीक्षा देनी थी। जिसमें 23 प्रतिभागी उपस्थित थे। परीक्षा प्रारंभ हुई सभी को अंक तालिका के रूप में ओएमआर शीट व प्रश्न पत्र का वितरण कर दिया गया। इसके कुछ ही समय बाद क्षेत्रियता की बू आने लगी। वहां पर उपस्थित कुछ कर्मचारी जो परीक्षा कक्ष में परीक्षा का संचालन भी कर रहे थे अपने प्रतिभागियों को उनके यथा स्थान पर आकर प्रश्नों के हल को बताने लगे। जब कुछ प्रतिभागियों ने इसका विरोध किया तो कक्ष संचालन ने कहा कि प्रश्न पत्र के बारे में बताया जा रहा है। यहां तक भी ठीक था, इसके बाद उन्हीं कुछ प्रतिभागियों ने प्रश्न पत्र के प्रश्नों को हल करने के लिए मोबाइल फोन का सहारा लिया, तो कुछ ने अपने हितैसियों से फोन पर तो कुछ ने गुगल पर सर्च करके प्रश्नों को हल किया। यह कक्ष संख्या 101 का हाल था। बाकी के कक्षों में क्या हुआ इससे में अनभिज्ञ हूं।
वैसे तो कक्षों में सहायक कुल सचिव हेतु आयोजित परीक्षा का संचालन हो रहा था, साथ ही साथ कुछ मुन्ना भाई जो वहां के लोकल छात्र थे अपने दबदबे का प्रदर्शन कर रहे थे। 12 बजकर 30 मिनट पर परीक्षा संपन्न हुई। तभी परीक्षा संचालक ने कहा कि परीक्षा का परिणाम 4 बजे नोटिस बोर्ड पर चस्पा कर दिया जाएगा। सभी प्रतिभागियों ने 12:30 से 4 बजे तक वहीं पर रूककर परिणाम आने तक इंतजार करने का फैसला लिया। परीक्षा का परिणाम और पूरे-पूरे 4 घंटे 30 मिनट का इंतजार, वैसे तो इंतजार 1 मिनट का भी सालों के समान लगता है और हमें तो 4 घंटे 30 मिनट इंतजार करना था। 4 बजे चुके थे परंतु परिणाम नोटिस बोर्ड पर चस्पा नहीं हुआ। कारण पूछने पर बताया गया कि बहुत सारे प्रतिभागी हैं देर तो लगती ही है। एक आध घंटे में लगा दिया जाएगा। एक घंटे के उपरांत भी परिणाम नहीं आया। पुनः पूछा, फिर वही जबाव। ऐसा करते-करते 6 बज चुके थे तभी एक कर्मचारी ने कहा कि परीक्षा के परिणाम पर कुलपति के हस्ताक्षर होने हैं तो फाईल प्रशासनिक भवन ले जायी गई है। आप सभी वहां से अपने परिणाम पता कर सकते हैं। तो सभी के सभी प्रतिभागी प्रशासनिक भवन की ओर रवाना हो गये। वहां जाकर पता चला कि अभी भी परिणाम नहीं आया है। परिणाम आने का जैसे नाम ही नहीं ले रहा था लग रहा था कि चूहे के बिल से किसी हाथी को निकाला जा रहा हो।
जब शाम से रात होने लगी तो हम सभी ने कुलपति से मिलने का आग्रह किया तो जबाव मिला कि कुलपति महोदय किसी मीटिंग में हैं मुलाकात नहीं हो सकती। तभी कुछ समय के बाद कुलपति अपने वाहन में सवार होकर अपने घर के लिए रवाना हो गये। हम सभी वाहन को ताकते रह गये। इसके बाद आग्रह किया कि कब तक आने की संभावना है जैसा हो वैसा बता दीजिए, तो कहा गया कि 10-15 मिनट में आ जाएगा। 15 से 25 मिनट भी हो गये, परिणाम अभी तक नहीं निकाला गया। जबकि कुछ लोगों को प्रशासनिक भवन में आना जाना लगातार जारी था। जिसमें से कुछ लोकल के प्रतिभागी भी थे। जिनको देखकर अंदाजा लगाया जा सकता था कि ये कुछ न कुछ कर रहे हैं। यह सब देखते-देखते सभी ने कुल सचिव से मिलने की बात कही तो कुल सचिव पीछे के रास्ते से पैदल निकले और जाने लगे, जब हमने उनसे कहा तो उन्होंने जबाव दिया कि मैं कुल सचिव नहीं हूं। वहीं कुछ कर्मचारी आपस में बात कर रहे थे कि किसी बाहर के प्रतिभागी का नहीं होना चाहिए।
अब सभी का सब्र जबाव दे चुका था। सभी प्रतिभागी प्रशासनिक भवन में प्रवेश हुए। जहां एक-दो कर्मचारी थे जो कुल सचिव के कार्यालय में ताला लगा रहे थे। सभी ने ताला नहीं लगाया दिया। तो कुछ प्रतिभागियों ने कुल सचिव की नेम प्लेट को उखाड़ दिया। फिर सभी प्रतिभागी रोड पर आ गये, और रास्ते पर बैठकर अपने अधिकार की मांग करने लगे। जब रास्ते जाम होने लगा तो पुलिस प्रशासन भी आ पहुंचा, पुलिस प्रशासन को भी हमने सारी बात बताई। लगभग 30 मिनट जाम लगने के बाद परिणाम जैसे किसी जिंद की तरह बाहर आ गया। जिस पर किसी भी उच्च अधिकारी के हस्ताक्षर नहीं थे। और न ही किसी भी प्रतिभागी को प्राप्त अंक, कि किस प्रतिभागी को कितने अंक प्राप्त हुए। और तो और 1:15 के हिसाब से 5 सीटों पर 60 लोगों का चयन होना था वहीं केवल 50 लोगों की सूची ही चस्पा की गई। तो उस सूची को भी प्रतिभागियों ने आक्रोश में आकर फाड़ दिया। इसके बाद जब मीडिया आई तो फिर उच्च अधिकारी की मोहर पर किसी फर्जी हस्ताक्षर के साथ पुनः वही सूची लगा दी गई। जिसको देखकर लगभग अधिकांश प्रतिभागी वापस लौटने लगे।
वैसे तो दूर-दूर से आये प्रतिभागियों की परेशानी और आये खर्च जिसमें हजारों रूपये खर्च हुए। मेरे 5 दिन और 2205 रूपये खर्च हुए। अगर इसी तरह का भेदभाव करना था तो तो दिखावे के लिए हम सभी को सहायक कुल सचिवव के पद हेतु क्यों बुलाया गया था।
अब आप ही निणर्य ले कि एक उच्च शिक्षण संस्थान जिसको केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा हासिल है वो ही ऐसी प्रवृत्ति को अंजाम देने लगे तो वहां से पढ़ने वाले छात्रों में किस प्रकार की शिक्षा का प्रभाव होगा ये सभी जानते हैं। यहां पर नानक जी का एक उपदेश याद आता है कि यहां के छात्र व कर्मचारी यहीं पर रहे बाहर न जाए।
आप से पुनः अपील है कि मेरी इस मुहीम में मेरा साथ दें। और इस परीक्षा के परिणाम को निरस्त कर पुनः यूजीसी और एचआरडी मिनिस्ट्री अपने स्तर पर सहायक कुल सचिव की परीक्षा का आयोजन अपने चयनित स्थान पर करे ताकि निष्पक्ष काबिल/योग्य प्रतिभागियों का चयन हो सके।

Sunday, March 25, 2012

अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रताः न्यू-मीडिया

अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रताः न्यू-मीडिया
पत्रकारिता के बदलते स्वरूप की बात करें तो यह साफ-साफ देखने को मिलता है कि, कल भारत देश अंग्रेजों की गिरफ्त में था और पत्रकार आजाद थे। पूर्णरूप से आजाद। आज ठीक इससे विपरीत स्थिति है, भारत आजाद है और पत्रकार गुलाम। पूर्णरूप से। इस गुलामी भरी पत्रकारिता का जिम्मेदार केवल पत्रकार ही नहीं बल्कि आज का पाठक वर्ग भी है। जो इस बदलते परिवेश के साथ इतना बदल चुका है कि उसने मीडिया और पत्रकारों के शब्दों को भी बदल दिया है। आज मीडिया पाठकों के दृष्टिकोण से सोचने लगी है, जैसा पाठक वर्ग पसंद करते है वो ही परोस देता है, चाहे इसका समाज पर प्रभाव कुछ भी हो। इसके पश्चात् पत्रकारों को संपादक व प्रबंधन दोनों को झेलना पड़ता है।
एक तरफ संपादक खबरों को झांड-झांडकर उसमें से अपना हिस्सा निकालता रहता है तो दूसरी ओर प्रबंधन की तलवार हमेशा ही सिर पर मड़रती रहती है, कि विज्ञापन लाना जरूरी है चाहे खबर हाथ लगे या न लगे। विज्ञापन तो चाहिए ही। इस तकड़ी की मार से पत्रकार की पत्रकारिता प्रभावित होती रही है। मूल मुद्दा हमेशा अंधकार की चादर में दबा रहता है या दबा दिया जाता है। शायद एक सजक पाठक और स्रोता होने के नाते मैं भलीभांति बता सकता हूं, वहीं पत्रकार शुतुरमुर्ग की तरह अपने सिर को इस चादर में छिपा लेता है और सोचाता है कि किसी ने उसको देखा ही नहीं, इस गलतफहमी में वो हमेशा से बना रहता है और अपनी पत्रकारिता को अंजाम देता है। मैं पत्रकारों पर सवाल नहीं उठा रहा हूं, वैसे बहुत बार तो पत्रकारों द्वारा लायी गई महत्व पूर्ण खबर को संपादक कचड़े के डिब्बे में डाल देते है जिससे उनके संबंध और नौकरी पर आंच न आये। इससे समाज में वो सारी खबरों आने से चूक जाती है जिसका समाज से सरोकार होता है। और पत्रकार आपने आपका ठगा सा महसूस करता है। 
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पत्रकारिता की बात करें तो पत्रकारिता में बाजार और व्यवसाय दोनों का दबाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। जिस कारण से लोगों को जागरूक और शिक्षित करने की अपनी आधारशिला से ही मीडिया भटक चुका है, और यह आधारशिला पेड न्यूज का रूप लेती जा रही है। मीडिया में पेड न्यूज और पूंजीपतियों का बढ़ता प्रभाव देश एवं समाज के लिए ही नहीं बल्कि संपूर्ण पत्रकारिता जगत के लिए भी घातक है।
पत्रकारिता के स्वरूप में परिवर्तन को हम देख सकते हैं कि किस प्रकार संपादक और प्रबंधक की चक्की में पीसने से बचने के लिए, आज अधिकांश पत्रकार और पढ़े-लिखे लोग अपनी बात को बिना किसी कांट-छांट के, बिना किसी हस्त क्षेप के न्यू-मीडिया के मध्यकम से समाज के सामने प्रस्तुत कर रहें हैं। इसका सारा श्रेय इंटरनेट को ही जाता है। इस आलोच्य में कहा जाए तो इंटरनेट ने मोर के पंखों की भांति सारी दुनियां को रंगीन बना दिया है। जो दिल चाहे इंटरनेट के माध्यम से कर सकते हैं। इसी इंटरनेट ने पत्रकारों को अपनी बात रखने के लिए एक नया मंच सोशल मीडिया के रूप में प्रदान किया। जिसमें सर्च इंजन, ब्लॉग्स एवं बेवसाइट आदि आते हैं।
वैसे तो पूर्व मीडिया का सत्ता परिवर्तन हो रहा है, और मीडिया की सत्ता पर न्यू-मीडिया काबिज होता जा रहा है। जिसकी चकाचैंध से मीडिया जगत सकते में है, उसे अपनी सत्ता और शाख गिरते हुए दिखाई दे रही है। तभी तो पूर्व मीडिया न्यू-मीडिया के पहलुओं को धीरे-धीरे अपनाता जा रहा है। आज चाहे कोई सा समाचारपत्र हो या चैनल सभी ने अपने-अपने वेब संसकरण तैयार कर लिए हैं जैसे-नवभारत टाईम्स ने नवभारत टाईम्स डॉट इंडिया टाईम्स डॉट कॉम, हिंदुस्तान टाईम्स ने अपना नेट संस्करण हिंदुस्तान टाईम्स डॉट कॉम, दैनिक जागरण ने दैनिक जागरण डॉट कॉम, आज तक ने आजतक डॉट कॉम, एनडीटीवी ने एनडीटीवी डॉट काम आदि बहुत से वेब संस्करण इंटरनेट पर मौजूद हैं, इसके साथ-साथ पत्रिकाओं ने भी अपना नेट संस्करण की शुरूआत कर दी है। ताकि इस व्यवसायिक मीडिया जगत में हानि का सामना न उठना पड़े।
बहरहाल, न्यू-मीडिया ने परंपरागत मीडिया की निर्भरता से मुक्ति दिलाने में मदद की है और समाज में नई सोच विकसित की है। इसके साथ-साथ काबिलेगौर है कि न्यू-मीडिया ने ही बीते वर्ष कई बड़े खुलासे समाज के सामने उजागर किये। कुल मिलाकर न्यू-मीडिया ने दुनिया को एक गांव के रूप में तब्दील कर दिया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बिना किसी शुल्क के अवसर प्रदान करके इसने आज की मीडिया को पंख लगा दिये हैं, यह पत्रकारिता को प्रोत्साहित करता है, यही एक ऐसा मीडिया है जिसने उंच-नीच, अमीर, गरीब, जातिवादी व्यवस्था्, लैंगिक भेदभाव आदि के अंतर को समाप्त कर दिया है। कुल मिलाकर मीडिया के सोशल मीडिया ने सारे मायने ही बदल दिये हैं।
दुनिया में पिछले एक दशक के दौरान सूचना प्रौद्योगिकी और संचार के जरिए अनेक परिवर्तन हुए हैं। यह वे परिवर्तन हैं जो सोशल मीडिया के जनक हैं। यह मीडिया आम जीवन का एक अनिवार्य अंग जैसा बन गया है। मुख्य रूप से वेबसाइट, न्यूज पोर्टल, सिटीजन जर्नलिज्म आधारित वेबसाईट, ईमेल, सोशलनेटवर्किंग वेबसाइटस, फेसबुक, माइक्रो ब्लागिंग साइट टिवटर, ब्लागस, फॉरम, चैट सोशल मीडिया का हिस्सा है। लगभग प्रतिदिन समाचार पत्रों के पन्नों पर सोशल मीडिया से उठाई गई खबर या उससे जुड़ी हुई खबर रहती है। फकत, यही मीडिया है जो पत्रकारिता को प्रोत्साहित कर रहा है। गौरतलब है कि पोर्टल व न्यूज बेवसाइट्स ने छपाई, ढुलाई और कागज का खर्च बचाया, तो ब्लॉग ने शेष खर्च भी समाप्त कर दिए। ब्लॉग पर तो कमोबेस सभी प्रकार की जानकारी और सामग्री वीडियो छायाचित्र तथा तथ्यों का प्रसारण निशुल्क है साथ में संग्रह की भी सुविधा है। सोशल मीडिया का संबंध सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक और सूचना टेक्नॉलाजी व इंटरनेट से नहीं है बल्कि यह व्यवस्था के सुधारों को साकार करने का एक शानदार अवसर भी उपलब्ध कराता है।
वहीं इस सोशल साईटों के परिप्रेक्ष्य में अभी हाल के ही दिनों में केंद्रीय दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा सोशल नेटवर्किंग साइटों को अपनी विषयवस्तु पर छन्नी लगाकर उनकी दृष्टि में जो थोथा है उसे न आने देने और आ गया तो हटा देने की इच्छा व्य क्तस की है जिसका समर्थन भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कडेय काटजू ने भी किया है। काटजू ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर प्रिंट मीडिया के समान इलेक्ट्रॉनिक एवं समाचार से जुड़ी वेबसाइट्सों को भी प्रेस परिषद के दायरे में लाने का अनुरोध किया है। इस बहस पर घमासान मचा हुआ है। अगर देखा जाए तो पूर्व भारत सहित दुनिया भर में पिछले दो-ढाई सालों में जो आंदोलन हुए, उसमें न्यू-मीडिया की भूमिका को लेकर तो लगातार चर्चा बनी हुई है।
इस आलोच्य में अगर न्यू-मीडिया के नकारात्मक पक्ष पर बात करें तो आधुनिक पत्रकारिता और मीडिया का जन्म बाजारवाद और पूंजीवाद के विचार से अंकुरित हुई है। न्यू-मीडिया भी पूंजीवाद के प्रचंड रूप बाजारवाद और पूंजीवाद का ही एक अंश है। न्यू-मीडिया एक सभी के हाथों में दिया गया वो परमाणु बम है या यूं कहें कि वो केवल मानव बम का ही निमार्ण करता है, जो समय-समय पर तबाही मचाता है। साथ ही साथ संस्कृति और संस्कारों का दोहन भी करता है। हालांकि संस्कारी व्यक्तियों द्वारा इस मीडिया का सही उपयोग किया जा रहा है वहीं लगभग 100 में से 85 प्रतिशत लोग पोर्न साइटों का प्रयोग करते हैं और हैंरतअंगेंज करने वाली बात है कि सर्वाधिक विजिटर भी इन पोर्न साइटों के ही हैं। न्यू-मीडिया के माध्यम से समाज की संपूर्ण निजता का चीरहरण हो रहा है.
न्यू-मीडिया में बढ़ती अश्लीलता को ध्यान में रखते हुए केंद्रीय दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने विभिन्न सोशल साइटों को आपत्तिजनक और अश्लील सामग्री हटाने की चेतावनी दी थी। फेसबुक और गूगल सहित विभिन्न साइटों द्वारा कंटेंट पर निगरानी करने को लेकर हाथ खड़े करने पर मुकदमेबाजी भी हुई। जिसमें कोर्ट ने सरकार की नीतियों को सही ठहराया है। इसके विरोध में न्यू-मीडिया ने कहा कि जिस प्रकार से सागर की लहरों को जहाज तय नहीं करते‘, उसी प्रकार से न्यू-मीडिया पर निगरानी और उसके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करना जायज काम नहीं है। जिस प्रकार से न्यू-मीडिया ने संपूर्ण संसार में पूंजीवादी, अर्थवादी लोकतांत्रिक सरकार के खिलाफ होने वाले आंदोलनों को बल दिया, और इसी दृष्टिकोण में विभिन्न देशों की सरकारों ने न्यू-मीडिया की प्रतिनिधि साइटों पर लगाम कसने की ठान ली है ताकि यह मीडिया सरकार पर हावी न हो सके। इसका तात्पर्य यह है कि विभिन्नि देशों की सरकारें न्यू-मीडिया पर नियंत्रण के वैश्विक उपायों को थोप रही है। जिनका प्रतिरोध करना न्यू-मीडिया के लोकतांत्रिक ढांचा को बनाए रखने के लिए आवश्‍यक है। क्योंकि लोकतंत्र और आम आदमी के अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वाले सोशल मीडिया को अब अपने अस्तित्व की लड़ाई भी लड़नी पड़ेगी। इसी क्रम में अगर इन सोशल साईटों पर नकेल कसी भी जाती है, तो यह निश्चित ही है कि नया मीडिया, नया माध्यम बनकर उभरेगा। इसलिए सरकारों को चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को थोपने के बजाय अपनी नीतियों को जन-जन तक पहुंच में इस मीडिया का सहयोग लें और उन लोगों की तरफ भी ध्यान दें जिनके नसीब में दो वक्त की रोटी भी नहीं है।

Sunday, March 18, 2012

भारत: इतिहास रचने की कतार में


भारत: इतिहास रचने की कतार में

हां भई हां मैं भारत टीम की बात कर रहा हूं, जो इतिहास रचने में आगे बढ़ती जा रही है। चाहे वो हारने का इतिहास ही क्‍यों न हो। अब तो आदत सी हो गई है हारने की। अभी हाल ही मैं एक सीरिज हार के आये हैं और दूसरी हारने के कगार पे खड़े हैं। अगर देखा जाए तो जब से इंडिया टीम वर्ल्‍ड कप जीती है तब से ही कप्‍तान धोनी का लक जैसे छूमंतर हो गया है, हारते ही जा रहे हैं। मेरे हिसाब से ऐसा भी हो सकता है कि जब से युवराज सिंह बीमार पड़े है तब से ही टीम इंडिया हार का सामना कर रही है। इसे एक इतफाक कहा जा सकता है।
वैसे दिनांक 16-03-2012 को सचिन ने भी इतिहास रच दिया, 100 शतक लगाने का। जिसको लेकर पूरा मीडिया अभी तक गरमाया हुआ है। सचिन ऐसा सचिन वैसा, सचिन ने ऐसे अपने क्रिकेट की शुरूआत की और ऐसे 100 शतक बनाये। पर ये खबर किसी भी मीडिया ने प्रकाशित नहीं की कि कितने मौके दिए गये सचिन को अपने 100 शतक बनाने के लिए, पूरा का पूरा एक साल। हां एक साल में 1 शतक बनाया गया सचिन द्वारा। फिर भी हार गये बांग्‍लादेश से।
इस परिप्रेक्ष्‍य में देखा जाए तो बीसीसीआई द्वारा खिलाडि़यों के साथ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया जा रहा है, एक तरफ तो एक खिलाड़ी को पूरे एक साल मौका दिया गया, वहीं दूसरे खिलाडि़यों को 1 या 2 मैच में मौका देने के बाद उन्‍हें बाहर का रास्‍ता दिखा दिया गया। जैसे- विनोद कंबली, मुहम्‍मद कैफ, लक्ष्‍मण, सौरभ गंगुली आदि और भी खिलाड़ी हैं जिनको बाहर का रास्‍ता दिखाने में कोई देरी नहीं की। वहीं सचिन का शतक बनवाने में सभी ने सहयोग किया, एक साल तक मौका देते रहे। तब जाकर 16 मार्च को उन्‍होंने अपना 100वां शतक बना पाया। इसके बावजूद टीम इंडिया को हार का दंश झेलना पड़ा। अगर पूरे मैच का विश्‍लेषण किया जाए तो हार का मुजरिम कौन है इसका पता चल जाएगा। सचिन के 100वें शतक के कारण सरकार के मंत्री से लेकर बाबा तक सिफारिस कर रहे हैं सचिन को भारत रत्‍न से सम्‍मानित करने की। जबकि हॉकी के महान खिलाड़ी मेजर धयानचंद जिन्‍होंने 1 नहीं 2 नहीं  पूरे  3 बार हॉकी वर्ल्‍ड कप दिलाया। उनको अभी तक भारत रत्‍न से सम्‍मानित नहीं किया गया। जबकि सचिन को लेकर बाजार गरमाया हुआ है। मुझे तो इसमें भी भेदभाव की बू आ रही है। शायद इस भेदभावपूर्ण रवैया के चलते सचिन को भारत रत्‍न से नवाज दिया जाए और मेजर धयानचंद पर किसी का ध्‍यान ही न जाये।
हालांकि आज भी पकिस्‍तान और भारत के बीच मैच चल रहा है और स्थिति अत्‍यंत दयनीय दिखाई दे रही है। शायद ही पाकिस्‍तान से इंडिया जीत सके। क्‍योंकि हारने की तो आदत सी हो गयी है। वहीं अपने हिस्‍से का काम गेंदबाज बखूबी कर रहे है, जिसे देखों हर ओवर में 8-10 देकर जा रहा है। वैसे आज का मैच निधारित करेगा कि भारत सीरिज में बना रहेगा या हारने के बाद बाहर हो जाएगा। क्‍योंकि इतिहास रचने की कतार में खड़ा हो चुका है भारत।

Saturday, March 17, 2012

सरकार के लिए बोझ है : सब्सिडी

सरकार के लिए बोझ है : सब्सिडी


कल भारत के वित्‍त मंत्री श्री श्री 1008 प्रणव बाबा द्वारा 2012-13 का बजट पेश किया गया। प्रस्‍तुत बजट में बाबा ने बहुत सारी वस्‍तुओं को मंहगा और कुछ वस्‍तुओं को सस्‍ता तो किया, परंतु वो आम जनता के उम्‍मीद पर खरे नहीं उतरे। वित्‍त मंत्री द्वारा प्रस्‍तुत बजट को पेश करके जैसे गरीब जनता की टूटी हुई कमर पर लात रख दी है, क्‍योंकि ये मंत्री अपने हितों की पूर्ति हेतु किसी भी निछता तक जा सकते हैं। वैसे बजट से जनता जो उम्‍मीदें लगाये बैठी थी, उस पर पानी फेर दिया गया है। और अपने बयान पर बाबा ने यह भी कहा कि जो सब्सिडी जनता को दी जा रही है वो सरकार के लिए बोझ है।

ठीक है जो सब्सिडी सरकार द्वारा जनता को मुहैया करवायी जाती है उसे सरकार अपने उपर बोझ मानती है। परंतु क्‍या सरकार उन सब्सिडी को बोझ नहीं मानती जो नेताओं को दी जाती है। रहने से लेकर खाने तक, आने से लेकर जाने तक, पहनने से लेकर पहनाने तक, सब कुछ मुफत होता है, इन नेताओं का। तो इस राहत को बोझ क्‍यों नहीं मानती है सरकार। खत्‍म कर देना चाहिए, नेताओं को मिलने वाली सारी सुविधाएं। क्‍योंकि ये भी सरकार के उपर बोझ ही तो है।
हालांकि प्रस्‍तुत बजट इस जिन्‍द की तरह बढ़ती हुई मंहगाई को बोतल में बंद नहीं कर सकता। उनसे तो जैसे कई जिन्‍द और पैदा कर दिए है जो दिन-प्रतिदिन गरीब जनता को निगलने के लिए काफी होंगे, इससे केवल और केवल आम जनता ही प्रभावित नहीं होगी, साथ ही साथ मध्‍यम वर्गीय परिवार भी प्रभावित होंगे।
हम शायद कुछ न करने के लिए ही सक्षम है, और तमाशा देखने के लिए स्‍वतंत्र भी। देख तमाशा मंहगाई के बजट का, और छीन लो गरीब जनता को दी जाने वाली सब्सिडी।

Tuesday, March 6, 2012

ये पब्लिक है सब जानती है


ये पब्लिक है सब जानती है

वैसे तो सभी के सामने यूपी के नतीजे आ चुके हैं और यह पूर्णतय: तय हो चुका है कि मुलायम सिंह यादव यूपी के नये मुख्यीमंत्री होंगे। हालांकि पिछली सपा सरकार द्वारा या यूं कहे कि सपा कार्यकर्ताओं ने जो आंतक का कहर बरपाया था उसका परिणाम उसे 2007 में मिली हार से चुकाना पड़ा, और जनता ने यूपी की बागडोर मायावती के हाथों में सौंप दी। क्योंकि जनता आंतक मुक्‍त और विकास चाहती थी। पर हुआ ठीक इसके विपरीत। प्रदेश में खौंफ, लूट, हत्या, बलात्का्र, अपहरण आदि के आंकड़े मीडिया की शोभा बढ़ाते रहे। और विकास लाल पत्थरों की मूर्तियों में सिमट कर रह गया।

इस आलोच्य में बात करें तो पत्थरों की मूर्तियों से और बड़े-बड़े पार्क बनवाने से प्रदेश का विकास नहीं होता। एक तरफ प्रदेश की बड़ी आबादी भूखमरी का दंश झेल रही है, नन्हें जिस्म पर तन ढकने के लिए कपड़ा नहीं, भूख मिटाने के लिए कचरे में तलाशती अपनी जिंदगी, इसी भूख की खातिर जिस्म का सौदा करती औरतें, और कर्ज की मार झेलते हुए आत्मगहत्या करते हुए किसान। बेराजगारों की दिन-प्रतिदिन खड़ी होती जमात, नौकरी के लिए मांगी जाने वाली लाखों रूपये की रकम। क्या यही विकास है। नहीं, यह विकास नहीं है, प्रदेश में मंत्रियों द्वारा विकास के नाम पर करोड़ों का घोटाला किया, जो समय के साथ-साथ धीरे-धीरे खुलेंगे जरूर। जिस पर सालों मुकदमा चलेगा, और किसी को सजा नहीं होगी।

इसी सब से तिरस्त होकर एक बार फिर पांच सालों के लिए प्रदेश की जनता ने अपनी कमान सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह के हाथों में सौंप दी है। क्योंकि प्रदेश की जनता अखिलेश यादव जैसे युवा नेता के रूप प्रदेश का विकास तलाश कर रही है। हां यह बात और है कि सपा सरकार कितना अपने वायदों को पूरा करते हुए प्रदेश का विकास करती है या फिर एक बार फिर यूपी की जनता अपने आप को लुटा-पिटा, छला हुआ महसूस करेगी। और पांच साल बाद का इंतजार करेगी। यह तो गर्भ के इतिहास में कैद है। हां यहां एक बात और कहना चाहूंगा कि सत्ता में दुबारा इसी बहुमत के साथ आना है तो प्रदेश को भयमुक्त और विकास प्रदेश तो बनाना ही पड़ेगा, नहीं तो ये पब्लिक है सब जानती है। आगे क्या करना है।

Monday, March 5, 2012

मुलायम सिंह होगें यूपी के नए मुख्‍यमंत्री




मुलायम सिंह होगें यूपी के नए मुख्‍यमंत्री

जिस तरीके से यूपी के रूझान और नतीजे समाचार चैनलों द्वारा प्रस्‍तुत किए जा रहे हैं, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार बनेगी। वैसे सपा को पूर्ण बहुमत के साथ सरकार नहीं बना सकेगी, उसे किसी न किसी पार्टी का सहयोग लेना ही पड़ेगा।
जैसा कि ज्ञात हो रहा है कि यूपी की मुख्‍यमंत्री मायावती आज दोपहर के3.30 मिनट पर राजपाल के समक्ष इस्‍तीफा देंगी। केंद्रीय पार्टियों की स्थिति अब भी बदतर बनी हुई है। भाजपा और कांग्रेस तीसरे और चौथे पायदान पर रहने की स्थिति स्‍पष्‍ट दिखाई दे रही है। भाजपा की स्थिति तो पहले से ही खराब थी, रही बात कांग्रेस की तो राहुल गांधी ने प्रयास तो किया परंतु अण्‍णा हजारे के आंदोलनों ने यूपी से उसकी पकड़ को दूर कर दिया। और उनकी पार्टी का हासिए पर धकेल दिया।
मेरे हिसाब से जो रूझान मैंने और मेरे दोस्‍तों ने निकाले हैं वो इस प्रकार हो सकते हैं-
उत्‍तर प्रदेश विधान सभा की403 सीटें में से
सपा 167
बसपा 102
भाजपा 64
कांग्रेस 47
अन्‍य 23
यानि सपा को कांग्रेस और भाजपा दोनों ही समर्थन दे सकते हैं, जिससे यूपी मे सपा की सरकार या यूं कहें कि मुलायम सिंह यादव का मुख्‍यमंत्री बनना तय है। बाकी नतीजे कुछ समय के बाद आपके समक्ष स्‍वत:ही आ जाएंगें

Saturday, March 3, 2012

पुरूष प्रधान समाज की कुरूपता


पुरूष प्रधान समाज की कुरूपता


प्राचीन काल में जब मानव समाज को सुव्यवस्थित, सुसंस्कृत बनाने की कल्पना की गई होगी। तब बल, बुद्धि के आधार पर पुरूष ने इस समाज में प्रधानता की भूमिका अदा की होगी। ऐसा सोचा जा सकता है, यथार्थता अकल्पनीय है। लेकिन सदियों से समाज में पुरूष का वर्चस्व यही सिद्ध करता है। और यदि ऐसा ही है तो इसे सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत समाज की अवधारणा काल की पहली कमुकता कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि जिस समाज विशेष का हम गठन करने जा रहे हों उससे प्रत्येक भागीदार की प्रत्येक सीडी पर बराबर की भागीदारी ही प्रत्येक के अधिकारों को सुरक्षित रख सकती है।
इतिहास के गर्भ में देखा जाए तो सदियों से पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं की हैसिरत उनकी प्रारंभ से उपेक्षा का ही दर्शन कराती है। प्रारंभ में हुई गलती फलती-फुलती एक विकराल स्वरूप में पहुंची, तो कई स्वरूपों में उनका समाधान खोजा गया। कभी सामाजिक कुरीति के नाम पर सतीप्रथा बंद करायी गई, तो कभी बाल-विवाह के नाम पर अवयस्क को मातृत्व के बोझ से बचाया गया, कभी अशिक्षा के नाम पर बच्चियों को पाठशाला भेजा जाना तय किया गया। जबकि समस्या के मूल में बरती गई लापरवाही यदि न की जाती तो, न तो उपेक्षा ही फलती-फूलती और न ही प्रधानता, न ही जन्म लेती कोई कुरीति और न किसी के मौलिक अधिकारों का हनन ही होता। उक्त सारे देशों में पुरूष प्रधान समाज की स्वार्थपरता और उपेक्षित नारी मन की सहज स्वीकारोक्ति की बाध्यता ही प्रमुख कारण रहे होगें। अन्यथा यह स्थिति जब बराबर की भागीदारी के तहत प्रारंभ की गई होती, तो क्या अबला या नारी मन की व्यथा से संबंधित अन्य संज्ञाओं का साकेतिक अर्थ नहीं समझा जाता।
प्रारंभ में घटित परिणाम कहें या परिणति, जो आज हमें जहां-तहां पुरूष प्रधानता का असर और नारी की सहज स्वीकारोक्ति को समाज में कुरूप होते हुए भी सौंर्दय समझने का ढोंग के दर्शन करा रही है। वर्तमान परिवेश में नारी को मिली स्वतंत्रता राजनैतिक हिस्सेदारी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। आज महिला सीट होने के नाते पुरूष अपनी महिलाओं को जिन्हें वह कल तक पर्दे के भीतर रखे था खुले आ चुनाव मैदान में ला रहा है। और कल तक मर्यादा के नाम पर चैखट पार न करने वाली महिला बिना किसी विरोध के पुरूष का अनुसरण करती हुई नजर आती हैं। इसे बेशक त्याग, आज्ञाकारी, पतिवृता या अन्य संज्ञाओं से नवाज दें, मगर अन्ततः आप पायेगें, पुरूष प्रधान समाज की दबी हुई नारी का चेहरा। विजयी महिला नेत्रियों को ले लें और देखें कि आत्म निर्भर नेत्रियों का प्रतिशत क्या है? तो और स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। सरकार द्वारा महिलाओं को पुरूष के समकक्ष लाने का प्रसाय वास्वत में सराहनीय तो है मगर अधूरा है। मुख्य विचार आकर्षक हैं, मगर उसके सापेक्ष की गई मंत्रणा में लापरवाही पुरूष प्रधान समाज द्वारा उपेक्षित के पक्ष में दी गई भिक्षा जैसी ही है। आज किसी महिला प्रधान के पति के प्रधान के रूप में स्वीकारा जाना ऐसी ही एक कुरूपता है और इसे सहजता से समाज स्वीकार कर लेता है। वास्तविकता देखें तो उनके पति या संबंधी पुरूष ही यह भूमिका निभा रहे हैं। सीट पर विजय पाने के लिए महिला को इस्तेमाल करना और फिर उसको उसकी पुरानी औकात पर भेज देना कुरूपता नहीं तो और क्या है? जरूरत है पुनः विचार की, उचित संशोधन की, उचित क्रियान्वयन की, सही मार्गदर्शन की तथा अनुपालन की।
इस आलोच्य में कहें तो सदियों बाद किये गये भूल सुधार का वास्तविक असर देखना और उसके परिणाम में राजनैतिक भागीदारी का अधिकार सुनिश्चत करना ही नारी संवेदनाओं और उनकी सृजनात्मक क्षमताओं को बढ़ावा देने के लिए रही होगी। मगर पुरूष की प्रधानता का वर्चस्व बिना किसी अवरोध के जारी है। परंतु नारी के लिए यह एक ऐसी उपलब्धि में जिसका जन्म ही नहीं हो पाता। यह नारी मन के साथ अप्रत्यक्ष हिंसा है व ऐसी सामाजिक कुरूपता जिसे हम अपनी स्वार्थपरता के चलते अपना अधिकार समझ ढो तो रहे हैं। मगर हम जानते भी हैं अन्य देशों में प्रगतिशील नारी की स्थिति और उस स्थिति में होने की उसकी वास्तविकता का कारण। लेकिन कौन-सा पुरूष प्रधान समाज चाहेगा या चाहता है कि उनकी स्त्रियां भी उनके समक्ष खड़ी होकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ें। वो तो यदा-कदा अपनी सुविधा के मुताबिक उनको अधिकारों से अवगत कराता रहता है, जिस में उनका ही स्वार्थ छिपा होता है। वैसे यह सौभाग्य केवल विदेशों या पश्चिमी सभ्यता की महिलाओं को प्राप्त है। और यदि नारी को पुरूष के इस कुरूपता भरे जाल से निकलना होगा तो महिलाओं को अपनी लड़ाई स्वयं ही लड़नी होगी और अपना हक पा के रहना होगा, नहीं तो यह पुरूष प्रधान समाज उसे इसी तरह गर्भ में ही मारता रहेगा। और छलता रहेगा जिस तरह से सदियों से छलता आया है।