सरोकार की मीडिया

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Monday, January 30, 2012

गांधी के पीछे दुनिया सारी


गांधी के पीछे दुनिया सारी



29 जनवरी, 2012 शाम के 7 बजे दोस्त का फोन आया। बोला क्या कर रहे हो? मैंने कहा कुछ खास नहीं, तब उसने कहा, कल का कुछ याद है। मैंने तुरंत ही कहा, हां याद है। कल तुम्हारा जन्मदिन है मैं कैसे भूल सकता हूं? तो उसने कहा कि, कल हम पव में चलेंगे, कुछ रूपये का इंतजाम करके आना। मैंने कहा ठीक है, उसने इतना कहकर फोन काट दिया।
कल पव जाना है और कुछ रूपये भी साथ ले जाना है, इसी कशमकश में, मैंने अपने पेंट की पॉकेट  में हाथ डाला, और पर्स को निकाल लिया। पर्स खोलकर देखा तो उसमें हरे रंग का एक नोट दिखाई दे रहा था। जिस देखकर पहचाना जा सकता है कि वो नोट कितने का होगा, यानी पांच सौ का नोट। पांच सौ के नोट को पर्स से निकालने के बाद दुबारा उसे पर्स में रख लिया और अपने लैपटॉप  पर काम करने लगा। काम करते-करते रात के 9 बज चुके थे। सोचा खाना खा लिया जाए नहीं तो खाना नहीं मिलेगा। तब लैपटॉप  को स्लीप मोड पर रखकर, मैं खाना खाने मेस में चला गया। खाना खाने के बाद कुछ समय मैंने टहलते हुए मोबाइल को भी दिया। रात के 10 बजकर 30 मिनट को पुनः अपने लैपटॉप  को ऑन करके अधूरे काम को पूरा करने में जुट गया। तब याद आया कि दोस्त को 12 बजे जन्मदिन की बधाई देनी है। फिर इकाइक मेरा ध्यान पर्स में रखे 500 के नोट पर चला गया। मैंने पर्स को उठाकर नोट बाहर निकाल लिया, और देखने लगा। मेरी दृष्टि नोट पर छपी गांधी की तस्वीर पर गई, तब याद आया कि 30 जनवरी को तो गांधी की पुन्यतिथि है। आज के दिन गांधी को नाथूराम गोडसे ने गोली मार दी थी। मेरा चिंतन मन गांधी के बारे में सोचने लगा, कि उन्होंने क्या अच्छा किया था और क्या बुरा? सोचते-सोचते 12 कब बज गए पता नहीं चला। मैं दोस्त को जन्मदिन की बधाई भी नहीं दे पाया। सोचा कल ही दे दूगां। फिर मेरा ध्यान गांधी जी की वस्तुओं पर चला गया कि आज भी उनकी वस्तुओं को सजोकर संग्रालय रखा गया है, खडाऊ, लाठी, धोती और उनका चस्मा, जो कभी-कभी गायब हो जाता है और पुनः कहीं से प्रकट भी हो जाता है। जिसे लोग असली मान लेते हैं। उनके बारे में सोचते हुए मेरी आंख लग गई।
सुबह के 10 बजे मैं सोकर उठा और अपनी दिनचर्या में लग गया। दोपहर के 1 बजे मैंने दोस्त को फोन लगाया। कि मैंने पव नहीं आ सकूगां, दोस्त ने कहा, क्यों किसी से मिलने जाना है? मैंने कहा नहीं। उसने पूछा तब क्या बात है? मैंने कहा, तुम्हें पता है कि आज गांधी जी की पुन्यतिथि है, दोस्त ने कहा, कहां गांधी के चक्कर में फंस गए, गांधी को मारो गोली और रात को ठीक 8 बजे पव पहुंच जाना। इतना कहकर फोन काट दिया। 
मैं बड़ी असमंजस की स्थिति में आ गया, एक तरफ गांधी जी की पुन्यतिथि, दूसरी तरफ दोस्त का जन्मदिन। मन मारके आखिरकार 8 बज में पव पहुंच ही गया। वहां पहुंचकर देखा तो कम-से-कम 70-80 जोड़े, शराब के नशे में बेसुध होकर डिस्को की धुन पर थिरक रहे थे, उनमें से कुछ जोड़ें आपत्तिजनक स्थिति में भी थे। जैसी पव की संस्कृति है वैसे ही। मैं और मेरे दोस्त ने भी एक-एक पैग का ऑर्डर  दिया। मैंने अपने पर्स में से वही पांच सौ का नोट निकाला और उसे देखने लगा। फिर मेरा ध्यान गांधी पर चल गया कि आज गांधी जी की पुन्यतिथि है। तभी बार मालिक ने कहा क्यों नोट नकली है क्या? मैंने मुस्कुराते हुए कहा, नहीं भाई, नकली नहीं है। इस नोट पर छपे गांधी को देख रहा हूं आज उनकी पुन्यतिथि है। तब बार मालिक और मेरा दोस्त दोनो खुलकर हंसने लगे, जैसे मैंने कोई जोक्स मारा हो?
पांच सौ के नोट को बार मालिक ने ले लिया और कहा। इन लोगों को देखों जो शराब के नशे में अपने परिजनों को धोखा देते हैं गलत काम करते हैं, जिनके लिए उनका सुख ही सबकुछ है। जब वो अपनों को भूल जाते हैं और तुम गांधी की बात कर रहे हो। गांधी ने शराब को बुरा कहा, तभी तो गुजरात और वर्धा में शराब पर प्रतिबंध लगा हुआ है। इसके बावजूद सबसे अधिक मात्र में शराब वहां ही बिकती है, वो भी ब्लैक में। मांस खाना बुरा कहा और भारत में ही सबसे ज्यादा मांस खाया जाता है। अगर कहें तो हमें चलने वाले नेताओं को उनके द्वारा दिये गये उपदेश भी याद नहीं रहते तो हमें  क्या पड़ी है। खाने को तो नहीं दे जाएगें गांधी? काम तो करना ही पडेगा, गांधी को पाने के लिए। क्योंकि गांधी की हर जगह मांग है, गांधी के पीछे ही पूरा देश लगा हुआ है उन्हें हासिल करने के लिए, चाहे जैसे भी हो। एक तरफ नेता, बाहुबली, भ्रष्टाचारी हैं जो अपनी तिजौरी में गांधी को कैद करना चाहते है जिसके लिए वो अपना जमीर तक बेच देते हैं। तो दूसरी तरफ गरीबी, भूखमरी है, दो वक्त की रोटी पाने के लिए अपना जिस्म भी बेच देते हैं। इनके नसीब में गांधी नहीं होते। 
मेरा माथा कुछ शराब से तो कुछ बार मालिक की बातों से ठनक चुका था, सोचने लगा था कि ये बार मालिक सही कह रहा है या गलत? फिर मेरे दोस्त ने कहा क्यों गांधी के नाम पर मेरे जन्मदिन की वाट लगाने पे तुला है। मेरा ध्यान गांधी से हटकर दोस्त पे चला गया। दोस्त ने एक-एक पैग का ऑर्डर  दिया जिसको पीने के बाद पुनः एक-एक पैग का ऑर्डर । जैसे-जैसे शराब का सुरूर चढ़ता जा रहा था, गांधी का नशा उतरता जा रहा था। पैग पीने और डिस्कों की धुन पर नाचने के बाद, दोस्त ने कहा-चल अब हमें होस्टल चलना चाहिए, रात बहुत हो चुकी है। और हम एक गाड़ी में सवार होकर अपने होस्टल आ गए। कमरे में आने के बाद, बेड पर लेट तो, कब आंख लग गई, कुछ पता ही नहीं चला और न ही ये पता चला कि गांधी जी कहा गायब हो गए।

Wednesday, January 25, 2012

राजनीति में बरकरार रहेगा अपराधिकारण


राजनीति में बरकरार रहेगा अपराधिकारण

अंग्रेजी के सीअक्षर से शुरू होने वाले तीन शब्द जो पूरी व्यवस्था को भूकंप की तरह डगमगा रहे हैं। जिसमें करप्शन(भ्रष्टाचार),क्रिमनलाइजेशन(अपराधीकरण)और कास्टिज्म (जातीयता)/कम्युनलिज्म (सांप्रदायिकता) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जो दिन-प्रतिदिन हमारे जीवन और व्यवस्था को खोखला करने पे उतारू हो चुके हैं। वहीं राजनीति में भ्रष्टाचार और अपराधीकरण का मेल (करेला ऊपर से नीम चढ़ा) खतरनाक साबित हो रहा है जिस करण से हमारे प्रजातंत्र व राजनीति के सामने गंभीर समस्या आ खड़ी हुई है। सीधे तौर पर कहा जाये तो, भ्रष्टाचार और अपराधीकरण का ताल्लुक बेकारी, अशिक्षा, क्षीण स्वास्थ्य सेवाओं आदि से है जिसका सीधा असर देश पर पड़ता है।
इस संदर्भ में बात की जाए तो स्वतंत्रता प्राप्ति से भी पहले भ्रष्टाचार अपना वीभत्स रूप दिखाने लगा था और यह भ्रष्टाचार खासतौर से 1935 में कानून के तहत राज्यों में बनी लोकप्रिय सरकारों के अस्तित्व में आने के बाद और पनपने लगा। इसी भ्रष्टाचार के धुसपैठ के चलते राजनीति में अपराधीकरण (अपराधियों और राजनीतिज्ञों के बीच साठ-गांठ) का बोलवाला शुरू हो गया। इसकी शुरूआत राजनीतिज्ञों द्वारा चुनावों में अपराधियों की मदद लेने से हुई थी। मोटे तौर पर, चुनावों में अपराधीकरण का अर्थ है,-
1.
राजनीतिज्ञों द्वारा पैसाऔर बाहुबलका प्रयोग, खासतौर से चुनाव के दौरान
2.
सत्ता में रहने वाले राजनीतिज्ञों द्वारा अपराध में सहायता और बढ़ावा देना तथा अपराधियों को शरण देना, इसके लिए आवश्यकता पड़ने पर कानून लागू करने वाले एजेंसियों की कार्रवाही में भी दखल दी जाती है।
3.
प्रशासन का राजनीतिकरण, खासतौर से पुलिस विभाग का, इसकी वजह से प्रभावशाली राजनीतिज्ञों को दखल अंदाजी करने दी जाती है और कई बार तो उन्हें विशेष सुविधाएं भी मुहैया करवाई जाती है।
4.
हत्या, लूटपाट, अपहरण जैसे जघन्य अपराधों में लिप्त व्यक्तियों का राज्यसभा और लोकसभा में चयन तथा
5.
सरकार में अपराधियों को प्रतिष्ठित पद या सम्मान मिलना जैसे, मंत्री या राज्यपाल बनना आदि।
इस तरह, आज हम न सिर्फ राजनीति के अपराधीकरण का सामना कर रहे हैं बल्कि उससे भी घृणित अपराधियों के राजनीतिकरण का भी मुकाबला कर रहे हैं। एक समय ऐसा आया जब अपराधियों को एहसास हुआ कि राजनीतिज्ञों की मदद करने की बजाए वे स्वयं ही विधानसभा या संसद में क्यांे न प्रवेश करें और मंत्री पद हासिल करें ताकि भविष्य में उनकी अपराधिक गतिविधियों के लिए इसका इस्तेमाल भी हो सके।
यह बात सही है कि राजनीति के अपराधीकरण का पहला शिकार प्रशासन और पुलिस बने, इसके परिणामस्वरूप कानून की एक व्यवस्था तैयार हुई जो न तो ईमानदार है और न निष्पक्ष। पुलिस सेवा की नैतिकताएं पूर्णतयः ताक पर रख दी जाती हैं और इसकी वजह से सुव्यवस्थित अपराध के विकास को प्रोत्साहन मिलता है, खासतौर पर बड़े शहरी क्षेत्रों में। अब परंपरागत अपराध जैसे- उठाईगिरी, चोरी, सेंधमारी, छीनाझपटी और डकैती के दिन लद गए हैं जबकि पहले इन्हीं अपराधों का मुकाबला करना होता था। आज संगठित अपराधपर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। इसमें जबरन वसूली (व्यापारियों, बिल्डरों और अब तो फिल्म निर्माताओं से भी) फिरौती के लिए अपरहण, शहरी संपत्ति को जबरन हथियाना और बेचना, मादक दृव्यों का व्यापार, हथियारों की तस्करी और जघन्य हत्याएं।
आज कल हमारे सार्वजनिक जीवन में गंदगी फैला रहे ऐसे व्यवस्थित अपराधियों के दल राष्ट्रीय समुदाय के लिए भी चिंता का विषय बन चुके हैं क्योंकि वे इतना अधिक मुनाफा कमा रहें हैं कि इससे कई देशों की अर्थव्यवस्था ठप्प हो सकती है। चूंकि वे अपने काम के लिए हिंसा, धमकी और भ्रष्टाचार के लिए तैयार रहते हैं। इन अपराधों का कहीं-न-कहीं सीधा संबंध नेताओं से भी है जो अपने स्वार्थ के चलते आम जनता के जीवन से खिलवाड़ करते हैं और इन अपराधियों की मदद के साथ-साथ इनको अपनी पार्टियों में भी जगह देने से नहीं हिचकिचाते।
इसी परिपे्रक्ष्य में कहें तो आज अधिकांश नेता किसी-न-किसी अपराध में लिप्त हैं कई नेताओं पर एक से भी अधिक केस चल रहे हैं, जिसको या तो समय-समय पर विपक्षी पार्टियां उठाती रहती हैं और प्रभावी लोग पैसों और पावर के बल पर दबाते रहते हैं। यह समाज के लिए गहरी चिंता का विषय बना हुआ है। क्योंकि इन्हीं भ्रष्टाचारियों और नेताओं के चलते समाज में अपराधों का आंकड़ा चरम सीमा पर चुका है।
मैं इस आलेख को अपूर्ण ही छोड़ रहा हूं क्योंकि यह कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता। जब तक ये नेता रहेगें तब तक तो कभी नहीं।

Tuesday, January 17, 2012

महिला अस्मिता और उनका आत्मसम्मान


महिला अस्मिता और उनका आत्मसम्मान

महिला अस्मिता का प्रश्न इंसानी बराबरी के सवाल से जुड़ा हुआ है। जबसे दुनिया में जनतंत्र की शुरूआत हुई है तब से ही महिला अस्मिता का सवाल भी उठा है। इसलिए सबसे पहला प्रश्न यह उठता है कि इंसानी बराबरी क्या है? मनुष्य की बराबरी से संबंधित सबसे पुराने विचार अमरीकी और फ्रांसीसी क्रांतियों में देखने को मिलते हैं। वैसे अमरीकी संविधान में लिखा है कि‘‘ऑल मेन आर क्रिएटेड ईक्वल’’व और फ्रांसीसी क्रांति के सबसे अहम दस्तावेज राइट्स ऑफ मैन एंड सिटिजनमें भी लिखा है कि ‘‘आॅल मेन आर ईक्वल’’। लेकिन दिलचस्प बात है कि इन दोनों दस्तावेजों में मैनशब्द का प्रयोग मनुष्य मात्र यानी स्त्री-पुरूष दोनों के लिए नहीं बल्कि, पुरूष के लिए उपयोग किया गया। इसी परिप्रेक्ष्य में सबसे पहली स्त्रीवादी लेखिका मेरी वोल्सटनक्रॉफ्टने इस बात का विरोध किया कि अधिकारों में सिर्फ पुरूषों के अधिकारों की बात क्यों सामने आती है, स्त्रियों के अधिकारों की बात कहां नदारत हो जाती है। क्योंकि अमरीकी जबान में मैनका अर्थ सिर्फ पुरूष होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिन इंसानों की बराबरी की बात की जा रही है, वे सिर्फ पुरूष हैं, उनमें स्त्रियां शामिल नहीं हैं। यानी केवल पुरूष बराबर हैं,स्त्री-पुरूष दोनों बराबर नहीं हैं। जब हम स्त्रियों को पुरूषों के समकक्ष ही नहीं मानते,तो उनकी अस्मिता या पहचान देने या दिलाने का प्रश्न ही नहीं उठता।
हालांकि,आधुनिक कानून की बात करें तो उसके दृष्टिकोण में सबको बराबर का दर्जा प्रदान किया गया है, चाहे स्त्रियां हों या पुरूष। इसी संदर्भ में हेगेल का मत है कि सिर्फ भौतिक समृद्धि से समाज में बराबरी पैदा हो ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि बराबरी के दो हिस्से हैं। एक है इक्वैलिटी’ (बराबरी), चाहे वह संपत्ति की हो या कानून की, और दूसरी है रिक्ग्नीशन’ (पहचान), जिसे आज हम सोशल इक्वैलिटी’(सामाजिक बराबरी) या मॉरल इक्वैलिटी’ (नैतिक बराबरी) कह सकते हैं।
इस तरह महिला अस्मिता का प्रश्न भी दो सवालों से जुड़े़ हुए हैं। एक तो यह कि अगर आपको आर्थिक बराबरी नहीं मिलती, तो बाकी किसी भी तरह की बराबरी नहीं मिल सकती। आप चाहे जितने बिल पास करा लें। उन्हें आर्थिक बराबरी नहीं मिलेगी, जब तक स्त्री-पुरूष की बराबरी की बात सिर्फ कागजों में होती रहेगी। दूसरी बात यह कि सिर्फ आर्थिक बराबरी मिल जाने से बाकी सब मामलों में आप खुद-ब-खुद बराबर हो जायेंगे, ऐसी बात भी नहीं है। मसलन,अगर आप समाजवादी क्रांति करके व्यक्तिगत संपत्ति को खत्म कर देते हैं और सोचते हैं कि उसके साथ-साथ लोगों के बीच ऊंच-नीच का भेद भी खत्म हो जायेगा और सबको हर तरह की बराबरी मिल जायेगी, तो ऐसा सोचना पूर्णतयः गलत लगता है। उससे हर तरफ की बराबरी नहीं आयेगी। उसके लिए समाज में और भी बहुत कुछ बदलना पडे़गा, क्योंकि बराबरी का जो दूसरा पहलू है-अस्मिता वाला -वह सिर्फ आर्थिक मसला नहीं, बल्कि सामाजिक मसला है,जिसके साथ सभ्यता और संस्कृति के मसले भी जुड़े हुए हैं। उन मसलों को भी हल करने की जरूरत है।
अस्मिता पहचान के बारे में यह बात याद रखनी होगी कि वह कोई निजी या व्यक्तिगत चीज नहीं है। वह हमेशा सामाजिक परिपे्रक्ष्य में परिभाषित होती है यदि समाज में आपकी इज्जत नहीं है, तो स्वयः की नजरों में आपकी कोई इज्जत नहीं होगी। इस आलोच्य में कहा जाए तो समाज के हर स्तर पर महिलाओं को पुरूष जैसा आत्मसम्मान या पहचान नहीं मिल सकी है। उन्हें प्राकृतिक स्त्रियोचित गुण होने के कारण तथा उनके अपने मनोविज्ञान के कारण हमेशा ही पुरूष से नीचा माना जाता है। इससे महिलाओं के मनोस्थिति,चेतना के साथ-साथ उनके शरीर पर भी बुरा असर पड़ता है। उनकी देहभाषा ही बदल जाती है। एक तरफ मर्द सीना तानकर चलता है, तो दूसरी तरफ औरत झुककर। एक अध्ययन के अनुसार महिलाओं की रीढ़ की हड्डी मर्दों की रीढ़ की हड्डी की तरह सीधी नहीं होती, बल्कि झुकी हुई होती है,क्योंकि उन्हें झुककर चलना पड़ता है। इसका मतलब है कि अस्मिता कोई अर्मूत या हवाई चीज नहीं है। उसके न होने का असर महिलाओं के जिस्म पर और उनके हड्डियों के ढांचे पर भी पड़ता है। इस तरह अस्मिता को प्रश्न आत्मसम्मान के प्रश्न से अलग नहीं है और आत्मसम्मान का संबंध केवल मनोविज्ञान से ही नहीं बल्कि दोनों चीजें सामाजिक,सांस्कृतिक और इन दोनों का संबंध समाज की अर्थव्यवस्था और राजनीति से है।
वहीं अक्सर यह देखा जाता है कि समाज की वास्तविकता को न देखते हुए उनकी स्थिति की बात हमारे समाज में खूब होती है। मसलन, किसी पंडित से पूछिए कि भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति क्या है,तो वह वेदों और पुराणों में से उदाहरण दे-देकर बतायेगा कि हमारे यहां तो स्त्रियों का बड़ा मान-सम्मान होता है, उनकी पूजा की जाती है, वगैरह। यानी भारतीय स्त्रियों बराबरी से ऊपर की जिंदगी जी रही हैं। लेकिन हकीकत क्या है, सब जानते हैं। इसलिए महिला के अस्मिता की बात हवा में नहीं हो सकती,उसे समाज की ठोस वास्तविकताओं के संदर्भ में ही करना होगा। यानी स्त्रियों के अस्मिता पर सही ढंग से बात वेदों और पुराणों के आधार पर नहीं आज की परिस्थितियों को देखते हुए स्त्रियों के लिए बनाये गये कानूनों के आधार पर करनी होगी। और उसके आर्थिक अधिकारों, भेदभाव की समाप्ति, हो रहे जुल्म की समाप्ति के विषय पर बात किये बिना और इन सब समस्याओं को समझे बिना इस समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता और न ही इसके बिना महिलाओं के अस्मिता की बात आगे बढ़ सकती है।
अगर इंसानी बराबरी और महिला अस्मिता के प्रश्न को उठाते हुए महिलाओं की स्थिति में सुधार लाना है तो उसकी नैतिकता को भी अस्मिता से जोड़ना होगा। और, जो पुरानी नैतिकता सदियों से चली आ रही है या थोपी जा रही है उसको पूर्णतयः खत्म करना होगा। तभी महिला अस्मिता का प्रश्न और उनकी स्थिति मजबूत होगी तथा उन्हें पुरूषों के बराबर का हक तथा स्थिति में सुधार हो सकेगा।

Wednesday, January 11, 2012

मीडिया तो अभी बच्चा है



मीडिया तो अभी बच्चा है


मैं यह बात प्रिंट मीडिया के परिप्रेक्ष्य में नहीं बल्कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संदर्भ में कह रहा हूं। जिसको पैदा हुए जुमा-जुमा 16-17 साल ही हुए हैं। इसको इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि, इलेक्ट्रॉनिक अपने बचपन के दिनों को पूर्ण करके युवा अवस्था में कदम रख रहा है। इसके पैदा होने पर ऐसा अभास नहीं होता था कि वो सारी दुनिया को अपने आगोश में समेट लेगा। पर, धीरे-धीरे इस मीडिया ने एक्टोपस की तरह काम किया। वैसे मीडिया की युवा अवस्था को लेकर मीडियाविद् और शिक्षक दोनों के विचारों में इसे लेकर खासा मतभेद नजर आता है। एक तरफ मीडियाविद् इसके द्वारा किए गये सभी कारनामों को उचित ठहराते हैं वहीं मीडिया शिक्षक कारनामों को पूर्णरूप से न नकारते हुए मीडिया पर लगातार उंगली उठाते रहे हैं। हम किसकी बात पर ध्यान दें? कौन सही है? कौन गलत? चिंतन करने की आवश्यकता है।
हालांकि हर एक वस्तु में कुछ सकारात्मक पक्ष और कुछ नकारात्मक पक्ष विद्यमान होते हैं, यह हमको ही तय करना पड़ेगा कि हमें किस पक्ष को आगे बढा़ना है और किसका परित्याग करना है। मूलतः वर्तमान परिदृश्य में मीडिया के कारनामों और अपनी कारगुजारियों के चलते सुर्खियों में बना हुआ है, जिसको नकारा नहीं जा सकता। चाहे मीडियाविद् इस पक्ष में कितनी भी दलीलें पेश कर दें।
आमतौर पर कहा जाए तो मीडिया का उद्देश्य शिक्षित बनाना, मनोरंजन करना आदि की पूर्ति हेतु हुआ था, परंतु धीरे-धीरे इस मीडिया ने अपने पैरों को चादर से बाहर निकालना शुरू कर दिया। यह सिलसिला यहीं थमने का नाम नहीं ले रहा है वो अपने पैरों को दिन-प्रतिदिन बढ़ाता ही जा रहा है, चादर तो अब रूमाल का रूप इख्तियार कर चुकी है। उसके द्वारा की जा रही बचपन की शरारतों को हम मौन स्वीकृति देते हुए हाथों पर हाथ रखे बैठे हुए हैं। और सोचते हैं कि वक्त के साथ-साथ इसकी हरकतों में सुधार जरूर आएगा। परंतु सब कुछ भ्रम के मायाजाल की भांति, सुधार तो दूर, उसकी हरकतें अब प्रायः सारी सीमाएं पार कर रही है। जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
इस आलोच्य में कहा जाए तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संविधान में प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का फायदा उठा रहा है, वैसे संविधान में मीडिया को मूलतः किसी भी प्रकार की आजादी प्रदान नहीं की गई है, वो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ही अपनी आजादी मान बैठा है। जिसकी आड़ में वो लगातार अपने उद्देश्यों को अनदेखा करते हुए पथभ्रष्ट हो रहा है। चाहे हम इसे बच्चा कहें या युवा। फिर हमारे मीडियाविद्जन इसकी पैरवी क्यों करते रहते है यह बात सिर से ऊपर चली जाती है। हालांकि मीडियाविद् इस बात को नजरअंदाज करते हैं कि वो पहले समाज का एक हिस्सा हैं या फिर मीडियाविद्। परंतु यह मीडिया अपने बच्चे होने का फायदा उठा रहा है। और, इसका साथ मीडियाविद्जन बखूवी दे रहे है, यह लगातार कहा जा रहा है कि मीडिया तो अभी बच्चा है। उसको कितना समय हुआ है जन्म लिए हुए। उसने अभी युवा अवस्था में प्रवेश नहीं किया है, इसलिए उसकी सारी गलतियों को बच्चा समझकर माफ कर देना चाहिए। वैसे यह गलतियां कब तक और चलेगी जिसको बच्चा के नाम पर माफ कर दिया जाएगा। सवाल अभी भी वक्त कठघरें में खड़ा कैद है? जिसका उत्तर हम सभी निकाल सकते है कि इस बौराई मीडिया या छुट्टा धूमता सांड़ पर कब लगाम लगेगी, जो इसके द्वारा मचाया जा रहा उत्पात को कम करने में मद्दगार साबित होगा।

Sunday, January 8, 2012

राष्ट्रीय

राष्ट्रीय

राष्ट्रीय रोबोटमनमोहन सिंह
राष्ट्रीय छिछोराएनडी तिवारी
राष्ट्रीय रहस्यसोनिया गांधी
राष्ट्रीय नतमस्तक केंद्रदस जनपथ
राष्ट्रीय हादसादिग्विजय सिंह का जन्मदिन
राष्ट्रीय चुगलखोरस्वामी अग्निवेश
राष्ट्रीय मज़ाकसरकारी लोकपाल
राष्ट्रीय दामादकसाब, अफज़ल गुरू और रॉबर्ट वढेरा के बीच टाई
राष्ट्रीय गणितज्ञकपिल सिब्बल
राष्ट्रीय मसखरालालू यादव
राष्ट्रीय इंतज़ारसचिन का सौंवा शतक
राष्ट्रीय गालीआम आदमी
राष्ट्रीय धोखा...अन्ना एंड कम्पनी
राष्ट्रीय टाइम पास..मूंगफली
राष्ट्रीय गिरगिटअजित सिंह
राष्ट्रीय टेडीबीयरनितिन गडकरी
राष्ट्रीय रथ यात्रीलालकृष्ण आडवाणी
राष्ट्रीय पागलखानाबिग बॉस का घऱ
राष्ट्रीय भोजन कसम
राष्ट्रीय मैगज़ीन..मनोहर कहानियां
राष्ट्रीय गालशरद पवार
राष्ट्रीय बहन-मायावती
राष्ट्रीय मां-बहनराखी सावंत
राष्ट्रीय अतिथि - हिना रब्बानी खार
राष्ट्र कोकिला- मीरा कुमार
राष्ट्रीय चिंता- सलमान की शादी, ऐश्वर्या का बच्चा
राष्ट्रीय समस्या - अनशन
राष्ट्रीय डिमांड - 'मेरा वाला लोकपाल'
राष्ट्रीय बेरोजगार मेला- जंतर मंतर और रामलीला मैदान
राष्ट्रीय झूठ - इंडिया अगेंस्ट करप्शन
राष्ट्रीय भूल - रामदेव इज साधु, अन्ना इज गाँधी
राष्ट्रीय बेवडा - ओमपुरी
राष्ट्रीय गाली - भ्रष्टज़ादा
राष्ट्रीय धंधा - एनजीओ
राष्ट्रीय सुन्दरी - रामदेव
राष्ट्रीय बहुरूपिया - अन्ना हजारे
राष्ट्रीय असंतुष्ट - अरविन्द केजरीवाल
राष्ट्रीय नटवरलाल - किरण बेदी
राष्ट्रीय पार्श्व-संस्था - आरएसएस
राष्ट्रीय स्ट्रगलर - अभिषेक बच्चन
राष्ट्रीय मांडवली - नीरा राडिया
राष्ट्रीय सन्देश वाहक - बरखा दत्त
राष्ट्रीय 'ईंधन दुरूपयोगकर्ता' - लाल कृष्ण आडवाणी
राष्ट्रीय नृत्यांगना - सुषमा स्वराज
राष्ट्रीय मेंढक - नितिन गडकरी
राष्ट्रीय हंसी - राहुल महाजन
राष्ट्रीय गर्लफ्रेंड - दीपिका पादुकोण
राष्ट्रीय रईसजादा - सिद्धार्थ माल्या
राष्ट्रीय गरीब - विजय माल्या
राष्ट्रीय दहशत - रा वन का सीक्वल

Friday, January 6, 2012

जुदा हूँ मैं,


जुदा हूँ मैं,
न जानू की कौन हूँ मैं,
लोग कहते है सबसे जुदा हूँ मैं,
मैने तो प्यार सबसे किया,
पर न जाने कितनो ने धोखा दिया।
चलते चलते कितने ही अच्छे मिले,
जिनने बहुत प्यार दिया,
पर कुछ लोग समझ ना सके,
फिर भी मैने सबसे प्यार किया।
दोस्तो के खुशी से ही खुशी है,
तेरे गम से हम दुखी है,
तुम हंसो तो खुश हो जाऊंगा,
तेरे आँखो मे आँसु हो तो मनाऊंगा।
मेरे सपने बहुत बढे़ है,
पर अकेले है हम, अकेले है,
फिर भी चलता रहऊंगा,
मजिंल को पाकर रहऊंगा।
ये दुनिया बदल जाये पर कितनी भी,
पर मै न बदलऊंगा,
जो बदल गये वो दोस्त थे मेरे,
पर कोई ना पास है मेरे।
प्यार होता तो क्या बात होती,
कोई तो होगी कहीं न कहीं,
शायद तुम से अच्छी या,
कोई नहीं नही इस दुनिया मे तुम्हारे जैसी।
आसमान को देखा है मैने, मुझे जाना वहाँ है,
जमीन पर चलना नही, मुझे जाना वहाँ है,
पता है गिरकर टुट जाऊंगा, फिर उठने का विश्वास है
मै अलग बनकर दिखालाऊंगा।
पता नही ये रास्ते ले जाये कहाँ,
न जाने खत्म हो जाये, किस पल कहाँ,
फिर भी तुम सब के दिलो मे जिंदा रहऊंगा,
यादो मे सब की, याद आता रहऊंगा।