सरोकार की मीडिया

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Saturday, June 25, 2011

फेसबुक और सोशल साइटों पर बढता साइबर क्राइम का मकड जाल

ये बडी अशोभनीय बात है कि भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह,कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व अन्य लोगों की तस्वीरों को इस तरह से अभिनेत्री व अभिनेताओं की तस्वीरों के साथ मेल कराकर पोस्ट किया जा रहा है और उस पर लोगों द्वारा तरह-तरह के कमेंट दिये जा रहे हैं.ये कौन-सा अधिकार है,जिसमें फोटों के उपर चेहरा लगाकर उसकी छवि को धूमिल करने का प्रयास किया जा रहा है.फेसबुक पर इस तरह की फोटों की भरमार मची हुई है और साइबर क्राइम कानून मौन साधे हुए सभी के मुंह ताकने में लगा हुआ है.जब देश के मंत्री, प्रधानमंत्री व अन्य नेता, राज्य नेताओं की तस्वीरों के साथ इस तरह का खिलवाड हो सकता है तो किसी भी नग्न तस्वीर को किसी लडके-लडकियों की तस्वी‍रों के साथ जोडकर उसको बदनाम करना बहुत ही आसान हो जाएगा, और कानून हाथों पर हाथ रखकर सबकुछ तमाशबीनों की तरह तमाशा देखता रहेगा.


सोशल साइट पर इस तरह का कृत्यऔ हमारी सभ्यता के खिलाफ है. माना कि सभी को अपनी-अपनी बात कहने की पूरी आजादी है, सभी पूर्णरूप से स्वतंत्र हैं परन्तु ये स्वतंत्रता तभी तक होती है जब तक किसी दूसरे की स्वक\तंत्रता बाधित न हो.इसके बावजूद हमसब के द्वारा किसी के चेहरे पर किसी का चेहरा लगाया जाना क्या उचित है.लोग तो अपने घर की इज्जत बचाने की भरसक कोशिश करते रहते है पर ये क्याक हम ही अपने देश की इज्जत को तार-तार करने में लगे हुए हैं.ये अपराध की श्रेणी में आता है,इस अपराध को रोकने के लिए साइबर कानून बना हुआ है. इसके बाद भी ऐसा हो रहा है, लगातार हो रहा है. शायद फेसबुक व सोशल साइटों पर साइबर कानून की नजर नहीं है या फिर सभी जगह चढने वाली चढोत्तोरियां इनके द्वार पर चढ जाती होगी.तभी तो इन साइटों के खिलाफ कुछ भी कार्यवाही नहीं हो रही हैं, जो साइबर क्राइम को बढावा देने में लगी हुई हैं.



Friday, June 24, 2011

नारी मांग रही अपनी देह पर अपना अधिकार

कुछ अधिकार प्रत्‍येक व्‍यक्ति को जन्‍म से ही मानवोचित गुण होने के कारण प्राप्‍त होते हैं.ये अधिकार मानव की गरिमा बनाये रखने के लिए अति आवश्‍यक हैं.इन अधिकारों का प्रभुत्‍व संदर्भ लैंगिक वैमनस्‍य के कारण मानवीय लक्ष्‍य को कमजोर बनाता है.ऐतिहासिक रूप से मानवीय विकास के साथ-साथ पुरूषों के सापेक्ष महिला अधिकारों में कमी को देखा जा सकता है .


समकालीन समाज में नारी का अस्तित्‍व पहले की तुलना में कही अधिक संकट में हैं.नारी पर दिनों-दिन अत्‍याचारों की संख्‍या में इजाफा हो रहा है,चाहे वो निम्‍न वर्गीय परिवार की हो या फिर उच्‍च वर्गीय परिवार से ताल्‍लुक रखती हो. अबोध बालिकाओं से लेकर वृद्धाओं पर भी अत्‍याचार हो रहे हैं. सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों के  आंकडें चीख-चीखकर बयां करते हैं कि किस तादाद में महिलाओं पर अत्‍याचार हो रहा है और किस तरह से उनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है. निसंदेह, वैदिक काल से चली आ रही मान्‍यताओं को तोडती आज की नारी अपने अधिकारों के प्रति सचेत है.अपने अधिकारों और अधिकारों की लडाई लडते हुए आधुनिक नारी ने समाज में अपनी अलग पहचान बनाने की संकल्‍पना धीरे-धीरे ही सही, लेकिन मजबूती के साथ शुरू कर दी है. आज वो बाल्‍यावस्‍था में पिता,युवावस्‍था में पति तथा वृद्धावस्‍था में पुत्र  पर निर्भरता आदि बंदिशें तोडकर अपनी देह पर स्‍वाधिकार की मांग कर रही है. नारी देह पर नारी के अधिकार का विमर्श एक व्‍यापक दृष्टिकोण की मांग करता है.इस संदर्भ में पाश्‍चात्‍य देशों में नारी की स्थिति भी तीसरी दुनिया की महिलाओं से कुछ खास अलग नहीं है. हालांकि, पश्चिमी देशों में नारी मुक्ति आंदोलन ने जिस गति से वैश्विक स्‍तर पर महिलाओं के अधिकारों को लेकर मुहिम चलाई है,उसका प्रभाव आज हर जगह देखा जा सकता है,महसूस किया जा सकता है.अब पुरानी मान्‍यताओं के विपरीत महिलाएं खुद महसूस करने लग हैं कि उनके शरीर पर पुरूष का अधिकार नहीं होगा.अपने शरीर की मालकिन वह स्‍वयं होगी. साथ ही में आज महिलाओं के खान-पान से लेकर रहन-सहन के तरीकों में बहुत बडा बदलाव देखा गया है.स्त्रियों के वैश्विक ध्रुवीकरण में हर जगह खुलेपन की मांग पर मतैक्‍य की पुरजोर कोशिश की जा रही है कि- मेरी देह-मेरी देह.और मात्र मेरी देह.

भारतीय महिलाएं पश्चिमी देशों की स्त्रियों द्वारा अपनाये गये खुलेपन को अपना आधार मानती हैं और उसके लिए तमाम स्‍त्रीवादी नारियों ने आंदोलन आरंभ कर दिये हैं जिसकी ध्‍वनि शायद अभी हमारे कानों तक नहीं सुनाई दे रही है. परन्‍तु, ये आंदोलन एक दबे हुए ज्‍वालामुखी के समान धधक रहा है, जो कभी भी फट सकता है और संपूर्ण समाज को अपनी चपेट में ले लेगा. इन आंदोलन को न तो दबाया जा सकता है और न ही इसकी छूट दी जा सकती है.क्‍योंकि,नारी मुक्ति और अधिकार का प्रश्‍न निरपेक्ष  नहीं है, इसलिए इस पर खासकर भारतीय परिवेश में एक खुली बहस का होना अनिवार्य प्रतीत होता है.आज नारी मुक्ति आंदोलन का रूख जिस खुलेपन को बढावा दे रहा है, जिस स्‍वच्‍छंदता को अपना रहा है, उसे नारी मुक्त्‍िा के नाम पर सामाजिक विघटन, नैतिक एवं मानवीय पतन जैसे परिणामों के साथ स्‍वीकार नहीं किया जा सकता.

व्‍यवहारिक धरातल पर ऐसा महसूस होता है कि नारी मुक्ति आंदोलन के सारे प्रयास अपने मूल स्‍वरूप व लक्ष्‍य से हटकर कहीं और भटक गया है.नारी मुक्ति के तमाम प्रयास मानव संसाधन और विकास से जुडा हुआ होना चाहिए. लेकिन नारी विमर्श के केन्‍द्र से यह ज्‍वलंत मुद्दा लगभग गायब है,नारी मुक्ति का मतलब पुरूषों का विरोध नहीं है बल्कि पुरूषवादी मानसिकता का विरोध है जो किसी-न-किसी रूप में सामाजिक एवं मानवीय संसाधन के विकास मार्ग में बाधक है.अफसोस की बात यह है कि नारी अधिकार की समझ आज जिन महिलाओं के पास है उनकी बढी तदाद मॉल कल्‍चर, पब कल्‍चर आदि में न केवल आस्‍था व्‍य‍क्‍त करती हैं, बल्कि उसका पोषण भी करती हैं. खुद को आधुनिक और सशक्‍त मानने वाली अधिकांश महिलाओं के लिए नारी देह पर अधिकार का प्रश्‍न मानव संसाधन एवं विकास का प्रश्‍न नहीं है. उनकी सोच का मुख्‍य केन्‍द्र दुर्भाग्‍यवश शारीरिक खुलापन है, आंशिक या पूरी नग्‍नता................ बिना किसी रोक-टोक के. मशहूर मॉडल पूनम पाण्‍डे का क्रिकेट विश्‍वकप के दौरान का कृत्‍य किसी भी रूप में नारी मुक्ति और विकास से जुडा हुआ नहीं माना जा सकता.देह का प्रश्‍न निसंदेह व्‍यक्ति विशेष से जुडा हुआ है.हर व्‍यक्ति प्राकृतिक रूप से अपने शरीर का स्‍वामी होता है लेकिन शरीर का स्‍वामित्‍व उसके व्‍यक्तिगत विकास से जुडा हुआ है, सामाजिक एवं नैतिक विकास के साथ-साथ उसके समग्र एवं चंहुमुखी विकास से जुडा हुआ है.नारी का अपनी देह पर मौलिक अधिकार है और कोई व्‍यक्त्‍ि इसका हनन नहीं कर सकता. आज राष्‍ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय कानून भी इसकी संपुष्टि करते हैं. लेकिन देह पर अधिकार का प्रश्‍न आज केवल मुक्‍त सेक्‍स की अवधारणा तक सिमटकर रह गया है.निजी तौर पर समाज की सुशिक्षित, आधुनिक,सशक्‍त महिलाओं के साथ-साथ पुरूषों से मैं अपील करता हूँ कि नारी देह के प्रश्‍न को मुक्‍त सेक्‍स की अवधारणा से मुक्‍त कर मानवीय संसाधन एवं वि‍कास के साथ जोडकर देखें.

Sunday, June 19, 2011

उच्च वर्गीय समाज के लिए है सूचना अधिकार अधिनियम 2005

सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 को संसद ने 15 जून, 2005 को पास किया था, जिसे 12 अक्टूबर, 2005 को पारित किया गया. सरकार द्वारा सूचना अधिकार अधिनियम 2005 को पारित करने का मुख्यि कारण समाज में व्याप्त हो चुकी भ्रष्टाचार, दलाली, गैर कानूनी ढंग से किया जाने वाला कार्य, गरीब जो अधिकारों से वंचित हैं आदि पर अंकुश लगाने के लिए किया गया. इस विधेयक के द्वारा कोई भी व्यक्ति जो भारत का नागरिक है किसी भी सरकारी विभाग एवं सरकार द्वारा संचालित गैर-सरकारी विभागों से सूचना मांगने का अधिकार प्रदान करता है. सूचना प्राप्त करने के लिए निर्धारित शुल्‍क के रूप में 10 रू. का पोस्टल ऑर्डर, अगर आप अनुसूचति जाति/ जनजाति/ गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले परिवार के सदस्य हैं तो निशुल्क. प्रदान की जाएगी. परन्तु इसके लिए इनके जाति प्रमाण पत्र या बीपीएल की छाया प्रति संग्लक करनी पडेगी. सूचना को राज्य में किसी भी भाषा में (भारत में बोली जाने वाली भाषा) मांगी जा सकती है, मांगी गई सूचना को हस्‍तलिखित या टाइप कराकर, स्वायं या डाक के माध्यम से प्रेषित किया जा सकता है. सूचना अधिकार अधिनियम विधेयक के नियमानुसार सूचना की आपूर्ति करने के लिए निम्न‍ समय अवधि को लागू किया गया है जैसे-


• सामान्यक स्थिति में सूचना की आपूर्ति के लिए -30 दिन में.

• जब सूचना व्य‍क्ति के जीवन या स्वतंत्रता से संबंधित हो, तब सूचना की आपूर्ति -48 घंटों में.

• जब आवेदन सहायक लोक सूचना अधिकारी के जरिये प्राप्‍त है वैसी स्थिति में सूचना की आपूर्ति को दोनों स्थितियों में 5 दिनों का समय जोडकर प्रदान की जाएगी.

ये सूचना अधिकार अधिनियम 2005 विधेयक की सामान्य कार्य प्रणाली है जिसको संक्षेप में व्यक्त् ‍ किया गया है. जिसको सरकार आसान, सहज, समयबद्ध और सस्ता‍ माध्याम मान रही है उसकी जटिल प्रक्रिया पर विधेयक बनाते समय गौर नहीं किया गया. देखने में लगनी वाली आसान, कितनी जटिल और विलंम वाली है ये तो सूचना मांगने वाला ही आसानी से बता सकता है. कि सूचना मांगने पर उसे क्यां-क्या झेलना पडता है. इस जटिल प्रक्रिया को सामान्य व्यक्ति आसानी से नहीं झेल पाता तो सोचने वाली बात है कि गरीब व्यक्ति कैसे अपने अधिकारों की मांग कर सकने में सक्षम हो पता होगा.

सूचना मांगने की संपूर्ण प्रक्रिया पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि क्या–क्या् होता है. सबसे पहले लिखित आवेदन, टाइप या हस्‍तलिखित यदि अनपढ है तो किसी का सहारा, इसके बाद 10 रूपये का पोस्टल ऑर्डर, यदि अनुसचित जाति/ जनजाति/ गरीबी रेखा से नीचे के सदस्य है तो शुल्क में छूट. इसके बाद जहां से सूचना मांगी जा रही है यदि वो नजदीक है तो ठीक नहीं तो, डाक के माध्यम से प्रेषित करना पडेगा, इसके लिए 25 रूपये डाक का खर्च. इस सब प्रक्रिया के बाद 30 दिनों का लंबा समय का इंतजार की सूचना मिल जाएगी. ऐसा भी नहीं है. 30 दिनों के भीतर सूचना नहीं मिलती तो 15 दिनों के भीतर एक पत्र प्रथम अपी‍लीय अधिकारी को प्रेषित करना होगा, जिसमें 25 रूपये का डाक खर्च लगेगा. इसके बाद भी सूचना मुहैया नहीं करायी जाती तो पुन एक पत्र 25 रूपये खर्च करके डाक के माध्यम से द्वतिय अपीलीय अधिकारी को प्रेषित करना पडेगा. इन सब प्रक्रिया के बाद भी सूचना मिलेगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता. संबंधित विभाग द्वारा सूचना प्रदान करा दी जाती है तो उसमें भी भ्रमित या सारी सूचना ही गलत प्रदान की जाती है. अब कहां जाए, रह जाता है राज्य/केन्द्र सूचना आयोग. अपनी समस्या के निस्तारण के लिए आपको राज्य/केन्द्र् सूचना आयोग में आवेदन करना होगा. इसको भी रजिस्टर्ड डाक से यानी के 25 रूपये का पुन खर्च करके प्रेषित करना होता है. वहां से कुछ समय के अंतराल में आपको आवेदन की समस्या के निस्तारण के लिए बुलाया जाता है, वहां पहुंचने में लगभग 100 से 200 रूपये खर्च हो जाते है ये खर्च दूरी के हिसाब से बढाता ही जाता है. पहली बार में ही निस्तारण हो जाए तो ठीक नहीं तो दुबारा आपको फिर बुलाया जाता है, लगभग उतना ही खर्च फिर हो जाता है. दोनों पक्षों की दलील सुनने के बाद राज्य/केन्द्र सूचना आयोग संबंधित विभाग के अधिकारी को आदेश देते हैं कि शीघ्र-अति-शीघ्र उक्त व्यक्ति को सूचना प्रदान करें. नहीं तो नियमानुसार जुर्माना हो सकता है. तब जाकर सूचना प्राप्त् होती है.

सम्पूयण खर्चों और दिनों के विवरण पर नजर दौडायें तो आश्चर्यजनक तथ्य सामने आयेंगे-

आवेदन का खर्च                                   10 रू. पोस्टल ऑर्डर                    30 दिन

डाक द्वारा प्रेषित करने पर                 25 रू. डाक खर्च

प्रथम अपी‍लीय अधिकारी को पत्र       25 रू. डाक खर्च                           15 दिन
           
द्तिया अपीलीय अधिकारी को पत्र      25 रू. डाक खर्च                          07 दिन

केन्द्र/राज्य सूचना आयोग को पत्र     25 रू. डाक खर्च

प्रथम बार निस्तारण के लिए          100-200 रूपये (भाडा व्यय)      10 दिन (लगभग)

दुबारा निस्ता्रण के लिए                    100 -200 रूपये (भाडा व्यय)      05 दिन (लगभग)

कुल                                    510 रूपये ( पेपर व्यय सम्मिलित नहीं है) 67 दिन (लगभग)

इसके बाद सूचना प्राप्त हो तो क्या फायदा ऐसी सूचना से. सामान्यं आदमी इस झमेले में पडने से बचता रहता है उसके पास पैसा तो है परन्तु समय का अभाव. वहीं गरीब जनता जिसके पास न तो समय होता है (क्यों कि दिन भर मेहनत-मजदूरी करके ही अपने परिवार के भरण-पोषण कर पाता है) और न ही इतना रूपया, कि वो सूचना आयोग के चक्कर लगा सके.

इससे एक बात तो साफ होती है कि सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 कितना सहज, सरल और समयबद्ध है. यह केवल उच्चत वर्गीय समाज के लिए ही कारगर सिद्ध हो रहा है. आम जनता तो अपने अधिकारों की लडाई लड पाने में सक्षम नहीं हो पाते, फिर इतनी खचीर्ली और लंबी प्रक्रिया से गुजरने के बाद सूचना हासिल कैसे कर सकते हैं, और क्यान फायदा ऐसे सूचना अधिकार का.

Saturday, June 18, 2011

सार्वजनिक चुम्बन को मान्यता मिलनी चाहिए

चुम्बन को प्यार का प्रतीक माना जाता है. वैदिक काल से वर्तमान परिदृश्य में चुम्बन को विभिन्न रूपों में परिभाषित किया गया है.वहीं वात्स्‍लयान ने कामसूत्र में तीन तरह के चुम्बन की बात कही हैा जहां प्यार, मुहब्बत की बात होती है तो हम चुम्बन को कैसे भूल सकते हैं. चुम्बन प्यार की कोमल भावनाओं को प्रदर्शित करने का माध्यम ही नही बल्कि, रिश्तों में मजबूती और मधुरता भी लाता है. ऐसा नही है कि चुम्बन का नाम सुनते ही पति-पत्नी और प्रेमी-प्रेमिका का ही ख्याल मन में आये बल्कि, यह किसी भी रिश्ते में प्यार प्रदर्शित के लिए जरूरी है. मां और बच्चों के बीच प्रेम, भाई-बहन के बीच में प्रेम, सुरक्षा की भावना प्रदर्शित करने का काम करता है.

वैसे चुम्बन को हमारी संस्कृति स्वीकार्य नहीं करती. और सार्वजनिक चुम्बन को तो कतैयी नहीं. सदियों से लुका-छिपी की ही चूमा-चाटी चली आ रही है. सार्वजनिकता का इसमें कोई स्थान नहीं है. परन्तु पाश्चात्य संस्कृति ने इसे पूर्ण रूप से अपने परिवेश में अपना लिया है. एक-दूसरे को इज्जत देने, अलविदा कहने, शुभकामना देने और प्रेम दर्शन के लिए सार्वजनिक तौर पर प्रयोग किया जाता है. 28 अप्रैल के दिन ब्राजील कनाडा और अमेरिका जैसे देशों में वकायदा चुम्बन समारोह का आयोजन होता है. इसमें शामिल होने वाले युगल एक-दूसरे को सार्वजनिक रूप से चूमकर अपने प्यार का इजहार करते है. वहीं भारत में इसे अपराध के रूप में देखा जाता है. इसके लिए संविधान में भारतीय दंड संहिता की धारा294 में कहा गया है कि व्यक्ति दूसरों को नजर अंदाज करते हुए सार्वजनिक स्थाडनों पर किसी अश्लीसल हरकत में लिप्ता पाया जाता है(इसमें चुम्बन भी शामिल है) सजा का हकदार होगा. इस पर वरिष्ठ् एडवोकेट के.पी.एस. तुलसी कहते हैं दो वयस्कों की परस्पर रजामंदी से लिया गया चुम्बन अपराध की श्रेणी में नही गि‍ना जा सकता. परन्तु ऐसा नहीं है. यदि आप सार्वजनिक रूप से चुम्बन करते पाये जाते है तो पुलिस या आम लोगों द्वारा सजा के भागीदार बनाये जा सकते हैं. जिससे व्येक्ति की स्वतंत्रता का हनन होता है. मानवाधिकार को संज्ञान में लाते हुए सार्वजनिक रूप से लगी पाबंदी पर रोक हटनी चाहिए. वयस्क लोगों की सहमति से लिया गया चुम्बलन को सही, रजामंदी के विपरीत हो तो गलत.

युवा पीढी द्वारा सार्वजनिक रूप से किए जाने वाले प्रेम इजहार का हमें अपना चाहिए और समाज में समानता लाने तथा सभ्ये समाज के निर्माण को ध्यान में रखते हुए बरसो से थोपी जा रही सभ्याता को तोडकर सार्वजनिक चुम्बोन को मान्यता मिलनी चाहिए. जिससे व्यकित की स्वतंत्रता बाधित न हो, और समाज में प्रेम की पृष्ठमभूमि तैयार की जा सकें, जो धीरे-धीरे हमारे समाज से खत्म होती जाती है.

Thursday, June 16, 2011

बाबाओं की पत्रकारिता छोडकर, मीडिया संस्थाहनों और बाबाओं को गोद लेना चाहिए : एक गांव

शुरू-शुरू में देखा गया कि कुछ चैनल सुबह-सुबह किसी-न-किसी बाबा को उपदेश देते दिखाते थे. अब सभी समाचार चैनलों पर दिखाये जाने लगे हैं. इन बाबाओं द्वारा चैनलों पर जाति, धर्म, हिंसा-अहिंसा, पाप-पुण्या आदि का ज्ञान बांटते दिखाया जाता है. जिसके पीछे इन बाबाओं की चाल काम करती है. एक तो समाज में बाबा अपनी प्रसिद्धि बढाते हैं दूसरी इनके द्वारा किए जाने वाले कुकर्मों को छिपाने में भी मदद मिलती है. इन कुकर्मों को छिपाने में समाचार चैनल भी सहयोग करते हैं. क्योंकि अपना प्रचार-प्रसार करवाने के एवज में बाबा स्वयं बहुत-सा धन इन चैनलों को प्रदान करते हैं. इस कारण से समाचार चैनल इनके द्वारा फैलाए जाने वाले पाखंडों को दिखाने के वजह, इनके योग को दिखाते है, भगवान में आस्था को दिखाते हैं, ज्ञान, बुद्धि और चमत्कार को भी दिखाते रहते हैं. चैनलों के द्वारा बाबाओं का गुणगान गाने से जनता, इनको ही भगवान मानने लगती है, इन बाबाओं में आस्था रखने लगती है. परन्तु ये जनता नहीं जानती कि बाबाओं के भेष में बहुत-से बाबा क्या-क्या कुकर्म करते रहते हैं. ऐसे बहुत-से नामचीान बाबा है जिनके द्वारा महिलाओं के साथ बलात्कार, नरवलि, आस्था के नाम पर लूटना आदि मामले भी प्रकाश में आए हैं, जिनको समाचार चैनलों ने ही उजागर किया है.

पिछले दो सप्ताह से देखता आ रहा हॅू कि सभी चैनलों पर बाबाओं का जमावडा दिखाया जा रहा है, इन बाबाओं द्वारा भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए अनशन, सत्याग्रह भी किया गया. जिसको सभी चैनल ने प्रकाशित किया. ये बाबा मीडिया की सुर्खियों में बने रहे. आज एक चैनल ने एक और बाबा को प्रकट किया. इन बाबा का नाम है अर्थी बाबा. ये भी कालेधन तथा भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए शामशान घाट पर सत्याग्रह कर रहें हैं. अब तक ये बाबा 50 अर्थियों के सामने हवन कर चुके है और 58 अभी बाकी हैं. यानि कुल मिलाकर 108 अर्थियों के सामने सत्याग्रह. जिसको मीडिया ने अपनी स्टोरी बनाकर जनता के सामने पेश किया. अब तो एक बात समझ में आ चुकी है कि भारत अंधविश्वासों का देश है, सभ्यताओं के नष्ट और सत्ता् परिवर्तन के बाद भी चमत्कार को नमस्कार करने की प्रथा बदस्तू्र जारी है. भारत की जनता इतनी भोली है या बनने का नाटक करती है. तभी तो कोई भी उसे उल्लू बनाकर चला जाता है चाहे सरकार हो, बाबा हो, या मीडिया.

तकनीकि के युग देश जहां प्रगति के मार्ग पर अग्रसरित होने की कोशिश कर रहा है. वहीं बाबाओं की जमात दिन-प्रति-दिन बढती जा रही है. और जनता भी आंख मूंद कर इन पर विश्वास कर रही है. बचपन में बताया गया था कि ये बाबा बहुत ही ज्ञानी होते हैं, तपस्या करते हैं, अपने ज्ञान के पुंज को बढाते हैं और इनको इस माया नगरी, धन-संपदा से कोई मोह नहीं होता. परन्तु वो सब बातें गलत साबित हुई, कि इन बाबाओं को किसी-न-किसी का मोह होता है, जरूर होता है. आज जितने भी बाबाओं को देखों सभी के पास किसी- न- किसी नाम से करोडों रूपये की संपत्ति है. कहां से आती है करोडों रूपये की संपत्ति. इस पर बात नहीं करना चाहता. यदि ये बाबा वास्तहव में गरीब जनता के लिए कुछ करना चाहते है तो अपने करोडों रूपये में से कुछ करोड रूपये इन गरीब जनता के विकास में खर्च करें. इसके साथ-साथ बाबाओं के साथ मिलकर मीडिया एक-एक गांव को गोद ले. ताकि गांव-गांव से मिलकर देश का विकास हो सकें.

Wednesday, June 15, 2011

मीडिया राजनीतिक पूर्वग्रह की गिरफत में

बहुत दिनों से सोच रहा था कि इस मुद्दे पर लिखा जाए या नहीं, रहा नहीं गया. सोचा मन में उथल-पुथम मची रहेगी, मन में जो गुवार उठ रहा है शायद शांत हो जाए. लिखने का एक और मकसद भी है कि मैं इसे अपने ब्लॉग पर पोस्ट करूगां तो ब्‍लॉग पढने वाले मेरे द्वारा प्रकाशित लेख पर अपनी टिप्पणीयां जरूर देगें, साथ-ही-साथ आम जनता भी इस मुद्दे से मुखातिब भी हो जाएगी, कि किस प्रकार मीडिया राजनीतिक पूर्वग्रह की गिरफत में आ चुका हैं.मैं सही कह रहा हूं या गलत. बहुत से लोगों को मेरी बात पर विश्वास नहीं होगा, वो भी मेरे द्वारा कहीं जाने वाली एक-एक बात को कहीं पूर्वाग्रह से ग्रसित न समझ लें. समझ लेने में कोई बुराई नहीं है, परंतु मीडिया पूर्वाग्रह से ग्रसित हो चुकी है, वो भी राजनैतिक पार्टियों के हाथों में अपनी कमान सौंपकर. फिर इस जनसरोकर से किस को सरोकार रह जाएंगा. वक्‍तवे-वक्त ये मीडिया हम गरीब बेरोजगारों, भूख से तिल-तिल मरते लोगों,और जब भूख बर्दास्त नहीं होती तो आत्ममहत्या के लिए मजबूर होते लोगों की सुध लेता था. अब वो भी राजनैतिक पार्टियों का बंदर बन गया है. उछलता है, कूदता है, करतब दिखाता है और मादरियों के गुणगान गाता रहता है.पिछले कुछ सप्ताह से मैं देख रहा था कि एक न्यूज चैनल किसी पा‍र्टी विशेष की महिमामडन कर रहा है.कि इस पार्टी की सरकार के कार्यकाल में जनता को क्या-क्या सुख-सुविधा मुहैया करायी गयी,गरीब लोगों के लिए क्या-क्या किया गया, गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे लोगों के लिए आवास की व्यवस्था करायी गई आदि-आदि. बढा चढाकर दिया जा रहा था.क्या ये राजनीति से ग्रसित मीडिया है,जो सत्ता में काबिज लोगों का व्यखायान कर रही है.इसका तात्पर्य यह है कि मीडिया राजनैतिक पार्टियों के हाथों बिक चुका है. आज बहुत सारे समाचार चैनल खबरों को दिखाने का काम कर रहे हैं. इनमें से अधिकांश समाचार चैनल किसी न किसी पार्टी का गुणगान गाते रहते है.जिसको आम जनता समझ नहीं पाती कि ये समाचार चैनल किस पार्टी के लिए काम कर रहें है.परंतु मीडिया को सोचना चाहिए कि वो आम जनता के साथ खिलवाड कर रही है.जिस पार्टी के बारे में मीडिया बढा चढाकर प्रस्तुत करती है उसके कार्यकाल में और क्या -क्या घटित हुआ,उसको दरकिनार करने की कोशिश मीडिया द्वारा बखूवी की जाती है. इसका मूल कारण इन राजनैतिक पार्टियों के द्वारा दी जाने वाली मोटी रकम से है जिससे ये चैनल चल रहे है और इन न्यूज चैनल के संवाददाता व रिर्पोटरों को प्राप्त होने वाली सुख-सुविधाओं से भी है जो इन पार्टियों द्वारा दी जाती है.जिसकी वजह से मीडिया इनके आगे-पीछे इनकी बढाई करते नहीं थकता.मीडिया का पूर्वग्रह से ग्रसित होना वा‍कैयी में चिंता का विषय बनता जा रहा है. इस प्रकार से नेताओं और पार्टियों द्वारा किये जाने वाले कार्यों को मक्खन लगाकर परोसने को हम पेड न्यूओज की श्रेणी में भी रख सकते हैं.वैसे सभी समाचार चैनल में कार्यरत पत्रकार भ्रष्ट और लालची नहीं होते, और न ही नेताओं तथा राजनीति के हाथों में खेलने के लिए खुद को प्रस्तु्त करते हैं.परन्तु एक बडी संख्या में पत्रकार व न्यूज चैनल के मालिक इस मक्खलनबाजी में लिप्त हैं.जो पूर्वग्रह से ग्रसित होकर इन नेताओं की गाते बजाते रहते हैं.ये मीडिया आज ये भी भूल गई है कि समाज में हर तबके पर जनता के साथ इन नेताओं द्वारा शोषण किया जा रहा है. किसी भी राज्य के काबिज सरकार की बात करें या फिर केन्द्र में बैठी सरकार या फिर विपक्ष में हल्ला मचाने वाली कोई पार्टी.सभी के द्वारा जनता का शोषण हो रहा है,आये दिन मानवाधिकार का हनन,महिलाओं के साथ छेड्छाड,बलात्कारर,बाहुबलियों द्वारा जमीनों को अधिग्रहण, पुलिस द्वारा निर्दोष लोगों के खिलाफ, तमंचे या चाकू दिखाकर शस्त्रु अधिनियम में मुकदमा चलाना और वाहवाही लूटने के लिए या किसी रंजिश का बदला लेने के लिए किसी-न-किसी व्यलक्ति को मुठभेड में मारने का दम भरना और समाज को बताना कि जिस व्यक्ति को मुठभेड में मारा गिराया है वो फलां-फलां गिरोह का वांछित संगीन अपराधी था.ऐसी बहुत सारी वारदातें आए दिन घटित होती रहती है,जिससे अपराध का ग्राफ दिनों-दिन बढता जा रहा है और मीडिया भी वो ही खबरों को प्रसारित/प्रकाशित करता है जिसमें उसका कुछ स्वार्थ सिद्ध्‍ा हो रहा हो. रह तो वो लोग जाते है जो अपने हक की लडाई लडने में अस्मसर्थ हैं, गरीब है, और हर बार सरकार द्वारा छले जाते है.इन असमर्थ लोगों का सहारा बनी मीडिया ने भी इस तबके से मुंह मोड लिया है और पीडित जनता को अपने हाल पर छोड दिया है. क्यों कि मीडिया अब राजनैतिक पूर्वाग्रह से ग्रसित हो गई है.

Monday, June 13, 2011

जन्म ले चुकी धंधा पत्रकारिता /अश्लील पत्रकारिता

रह-रहकर एक बात मन में कौंधती है कि आखिर मीडिया किस ओर जा रहा है. मीडिया जनता का पहरूआ था, हितैसी था. अब वो बात नहीं रही. ये पहरूआ अब उद्घोगप तियों के आगे दुम हिलाने लगा है और जनता को काटने. यह जो भी घटित हो रहा है सब टीआरपी की माया है. टीआरी जो न करा दें, मीडिया से. सब करने को तैयार है. किसी को नंगा तो किसी को पूरा नंगा करके दिखाना तो इसके लिए आम बात है. जनता भी क्या करें, जो पहरूआ था वो ही नंगा करने लगा है. अश्लीलता परोसने का काम तो इसके अन्द.र बखूब कूट-कूट कर भरा है या फिर भर दिया गया है,क्योंकि वर्तमान परिप्रेक्ष्या में अश्लीलता ही टीआरपी का पैमाना नाप रही है.

मीडिया द्वारा बार-बार दिखाये जाने वाली अश्लीलता के कारण, युवा पीढी अश्लीलता के माया जाल में इस कदर फंस चुकी है कि उससे निकलना मुश्किल ही नहीं न मुमकिन हैं. चारों तरफ अश्लीलता की मंडियां लगी हुई हैं, चाहे समाचार पत्र-पत्रिकायें, विज्ञापन, होडिंग, टीवी, न्यूज चैनल एवं इंटरनेट ही क्यों न हो. अश्लीलता बेचने का काम बखूबी हो रहा है. कहना न होगा कि मीडिया दलाल की भूमिका में आ चुका है. यदि कोई इस तरह परोसी जा रही अश्लीलता का विरोध करता है तो ये लोग साफ कहते हैं कि हमें वी यंग बनना चाहिए, किस तरह के ढर्रे में जी रहे हो, वी यंग बनों. क्योंकि हम जो बाजार में बिकता है वही दिखाते हैं.दिखाने के नाम पर जो जी में आता है दिखाते ही रहते हैं, आखिर 24 घंटे कैसे खबरें ही खबरें दिखा सकते है; क्योंकि टेलीविजन की शुरूआत तो मनोरंजन के लिए ही हुई थी.मीडिया के लिए मनोरंजन का मतलब मात्र-और-मात्र अश्लीलता को भिन्न-भिन्न एगलों से केसे डिफरेंट करके परोसा जाए, और व्यवसायियों से कैसे मौटी रकम बसूल कर सकें.

मीडिया ने तो अपने आप को अश्ली्लता के रंग में रंग लिया है.चारों तरफ युवा पीढी भी अश्लीरलता को अपना चुकी है. ये युवा पीढी मीडिया द्वारा परोसी जाने वाली अश्लील सामग्री को सही माने या गलत, इसके बाद भी युवा पीढी इसको अपना रही है. क्योंकि अश्लीलता में एक तरह का लगाव होता है जो युवा पीढी को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है. इस आकर्षण को मीडिया ने भाप लिया है. और अश्लीलता को परोसने का काम शुरू कर दिया है. बिना की रोकटोक के. वैसे अश्लीलता को समाज में फैलने से रोकने के लिए धारा 292-294 तक में कानून बनाये गये हैं, कि कोई भी व्यक्ति अश्लीलता को प्रदर्शित नहीं करेगा, और न ही स्त्री के नग्न शरीर को या फिर स्त्रीं के किसी आपत्तिजनक छाया चित्रों को या फिल्म को नहीं दिखा सकेगा. यदि कोई ऐसा करता है तो वह सजा का भोगी होगा. और उसे कडी से कडी सजा दी जाएगी. इसके बावजूद भी सभी कानूनों को तांक पर रखते हुए परोसते रहते है अश्लीलता.

अश्ली्लता को रोकने के लिए बने कानून कहां तक संज्ञान में लाए जाते है समझ से परे है. क्योंकि समाचार पत्र हो या न्यूज चैनल सभी जगह अश्लीलता परोसी जा रही है और किसी के खिलाफ कोई कार्रवाही नहीं होती. इंटरनेट की बात को छोड दें. शायद इंटरनेट इस कानून के दायरे में नहीं आता.सारी मर्यादाओं को लांघकर ये भी अश्लीलता को उच्च स्तर पर परोसता रहता है.क्योंकि इनको भी अपना धंधा चलाना है.आज इंटरनेट पर लगभग 386 साइटें ऐसी है जिनमें मात्र अश्लीलता ही दिखाती है. इन सबकों ध्यान में रखते हुए हम कर सकते है कि मीडिया अब धंधा पत्रकारिता पर उतारू हो चुकी है. इक ऐसा धंधा, जिसमें मुनाफा ही मुनाफा हो हानि न हो. तभी तो टीआरपी और अपने वीवरसिपों को बढाने के लिए अश्लीलता को सभ्य समाज में फैलाने का काम मीडिया ही कर रहा है. और उसने एक नई पत्रकारिता को जन्म भी दे दिया है. ये पत्रकारिता, अश्लील पत्रकारिता या फिर धंधा पत्रकारिता हो सकती है.जिसमें सिर्फ-और-सिर्फ धंधा किस तरह से किया जाए और अश्लीलता को किस तरह से दिखाकर अपने चैनलों को लाभ पहुंचाया जाए. ताकि चैनल नम्बर वन की पदवी हासिल कर सकें.



Sunday, June 12, 2011

भटक रही मीडिया : मिशन से कम्पी्टीशन तक

मीडिया ने बाबा को हीरों बना दिया, चारों तरफ बाबाओं की गूंज सुनाई दे रही है. रामदेव-रामदेव. बाबा न हो गया कोई अभिनेता हो गया, या देश पर मर मिटने वाला सिपाही. सपाही ही होता तो मान लेते कि हमारी रक्षा का उत्तरदायित्वो इनके कंधों पर है, और हम चैन की नींद सो सकते हैं. पर ये तो बाबा हैं. मीडिया ने हीरों बना ही दिया. आखिर मीडिया करती भी क्याप. खुद में तो कुछ करने का सामर्थ नहीं बचा, चलो किसी के पिछलग्गू ही सही, खुद को जनता के सुख-दुख में शामिल करने का दिखावा तो किया.

मीडिया का आगमन होते ही इसने जनता के दिलों में अपनी एक नई पहचान बना ली थी, कि हम जनता के हितैसी है, और समाज के सामने उन लोगों के बेनकाव करेंगे जो अपराध, हिंसा और भ्रष्टाचार को बढावा देते हैं. और किया भी. परन्तु मीडिया अब अपने मिशन से भटक चुका है, मीडिया मिशन से प्रोफेशन में और प्रोफेशन से कमीशन में अपने आप को तबदील कर चुका है. उसका मिशन अब कमीशन बन चुका है. धीरे-धीरे इस कमीशन में भी बदलाव देखा जा रहा है अब कमीशन से कम्पीटीशन का रूप धारण कर लिया है. मीडिया में इसकी होड मच चुकी है और कम्पीटीशन चल रहा है कि कौन कितना कमीशन लेकर जनता को उल्लू बना सकता है. जनता भी इनके बहकावे में आ ही जाती है. क्योंकि मीडिया ऐसा माध्यम है जो समाज के मनमस्तिष्क पर सीधा प्रभाव छोडता है.

अगर वर्तमान में चल रहे बाबा के मुद्दे की बात करें तो हम सुनते आए है कि बाबा मोह माया से परे होते हैं, वो तो केवल ईश्वमर में आस्था रखते हुए अपना पूरा जीवन उनको समर्पित कर चुके होते हैं. पर देखने में ठीक उल्टा ही आ रहा है. ये बाबा आलीशन घरों में, मंहगी गाडियों में और मौज मस्ती करते देखे जा सकते हैं. कहने को अपने को बाबा कहते है. यदि बाबा रामदेव की बात करें, या फिर बाबाओं की जमात की. ये मात्र धर्म ने नाम पर जनता को दीमक की तरह चूस रहे है. और जनता को अपने पीछे धर्म के नाम पर जोड लेते हैं. ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जिहाद के नाम पर लोग जुड जाते है और इनके मुखिया के आदेशानूसार अपराध को बढावा देते रहते हैं. अगर बाबाओं की सम्पत्ति की बात की जाए तो इनकी सम्पत्ति करोडों रूपये है. जिसका ब्योरा सरकार के पास नहीं है. ये बाबा भ्रष्टाचार से कमाये कालेधन की बात करते हुए उसकी वापसी के लिए अनशन पर बैठते जरूर है परन्तु यह भूल जाते है कि उनके खाते में जो करोडों रूपये जमा है उसमें से कितना पैसा भ्रष्टाचार की काली कमाई का है.जो कहीं-न-कहीं जनता की मेहनत का पैसा है.जिसको उच्च पदों पर आसीन अधिकारियों ने हडपकर अपने खाते में जमा कर लिया है. और उसमें से कुछ रूपया इन बाबाओं को धर्म के नाम पर दे दिया जाता है. आखिर पैसा है आता हुआ रूपया किसको बुरा लगता है चाहे वो मेहनत का हो या फिर लूट का. आज पैसे ने भगवान का रूप धारण कर लिया है तभी तो आम आदमी की बात क्याह करें, ये बाबा लोग भी पैसे के पीछे पडे रहते हैं. पैसा ही भगवान है. इस तरह से पैसा कमाने में मीडिया भी इन बाबाओं की मदद करती है. बाबाओं को इतना हाईलाईट करके दिखाया जाता है कि आम जनता इनको ही सब कुछ मान लेती है. क्योंकि मीडिया चाहे तो किसको राजा तो किसी को राजा से रंक बना सकती है. आज मीडिया भी इन बाबाओं को बाबाओं से भगवान बनाने पर आमदा है, इसका मुख्य कारण है कि बाबाओं से मोटे तौर पर कमीशन मिलता रहता है. इसलिए जिससे भी इनको फायदा होना दिखाई देता है उसके पीछे दुम हिलाते हुए देखे जाते है.

यदि मीडिया इसी तरह अपने मिशन से भटककर बाबाओं को हीरों बनाने में लगा रहा तो आम जनता का क्या होगा. जिसको मीडिया ने पहले ही भुला दिया है और जनता अब भी इनका आसरा तांके हुए है. कल एक समाचार चैनल पर एक विद्वान ने ठीक ही कहा था कि, मीडिया ने ही बाबा रामदेव को हीरों बना दिया है. अगर सभी समाचार चैनल खबरों को बार-बार प्रकाशित नहीं करते तो बाबा का अनशन बहुत पहले ही खत्म हो चुका होता. परन्तु सभी चैनलों ने बढचढ कर बाबा को दिखाया. क्योंकि मीडिया का मिशन अब कम्पीटीशन बना गया है

Saturday, June 11, 2011

सवाल कालेधन के 280 लाख करोड़ का है ...

भारतीय गरीब है लेकिन भारत देश कभी गरीब नहीं रहा"* ये कहना है स्विस बैंक के डाइरेक्टर का. स्विस बैंक के डाइरेक्टर ने यह भी कहा है कि भारत का लगभग 280 लाख करोड़ रुपये उनके स्विस बैंक में जमा है. ये रकम इतनी है कि भारत का आने वाले 30 सालों का बजट बिना टैक्स के बनाया जा सकता है. या यूँ कहें कि 60 करोड़ रोजगार के अवसर दिए जा सकते है. या यूँ भी कह सकते है कि भारत के किसी भी गाँव से दिल्ली तक 4 लेन रोड बनाया जा सकता है. ऐसा भी कह सकते है कि 500 से ज्यादा सामाजिक प्रोजेक्ट पूर्ण किये जा सकते है. ये रकम इतनी ज्यादा है कि अगर हर भारतीय को 2000 रुपये हर महीने भी दिए जाये तो 60 साल तक ख़त्म ना हो. यानी भारत को किसी वर्ल्ड बैंक से लोन लेने कि कोई जरुरत नहीं है. जरा सोचिये ... हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और नोकरशाहों नेकैसे देश को लूटा है और ये लूट का सिलसिला अभी तक 2011 तक जारी है. इस सिलसिले को अब रोकना बहुत ज्यादा जरूरी हो गया है. अंग्रेजो ने हमारे भारत पर करीब 200 सालो तक राज करके करीब 1 लाख करोड़ रुपये लूटा. मगर आजादी के केवल 64 सालों में हमारे भ्रस्टाचार ने 280 लाख करोड़ लूटा है. एक तरफ 200 साल में 1 लाख करोड़ है और दूसरी तरफ केवल 64 सालों में 280 लाख करोड़ है. यानि हर साल लगभग 4.37 लाख करोड़, या हर महीने करीब 36 हजार करोड़ भारतीय मुद्रा स्विस बैंक में इन भ्रष्ट लोगों द्वारा जमा करवाई गई है. भारत को किसी वर्ल्ड बैंक के लोन की कोई दरकार नहीं है. सोचो की कितना पैसा हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और उच्च अधिकारीयों ने ब्लाक करके रखा हुआ है. हमे भ्रस्ट राजनेताओं और भ्रष्ट अधिकारीयों के खिलाफ जाने का पूर्ण अधिकार है.हाल ही में हुवे घोटालों का आप सभी को पता ही है - CWG घोटाला, २ जी स्पेक्ट्रुम घोटाला, आदर्श होउसिंग घोटाला ... और ना जाने कौन कौन से घोटाले अभी उजागर होने वाले है ........

Friday, June 10, 2011

मीडिया भी भ्रष्टा चार में लिप्त हो चुकी है

भ्रष्टाचार सरकार और जनता में समान रूप से अविश्वास पैदा करता है तथा दोनों के नैतिक बंधनों को तोड देता है. इससे नागरिक का दैनंदिन जीवन भी प्रभावित होता है. भ्रष्टाचार ही वह कारण है कि आज हमें मिलने वाला खाद्धान्नक, यहां तक कि दवाएं भी मिलावटी और नकली हैं. न सिर्फ इतना भ्रष्टाचार किसी राष्ट्र के भविष्य और विकास को भी प्रभावित करता है, जनकल्याण के लिए बनाई और लागू की जानेवाली विभिन्ना विकास योजनाओं में भ्रष्टाचार नामक छिदों के कारण आज जो अमरण अनशन और घरना प्रर्दशन हो रहा है इससे सरकार जरूर सकते में होगी.

वस्तुत सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार की बीमारी के लक्ष्ण प्रकट हो चुके हैं. इस बीमारी का इलाज ढुढने के लिए मीडिया भी अपनी भूमिका में रही थी.और मीडिया ही भ्रष्टारचार की गांठों को खोलकर जनता के सामने असलियत रखती थी तथा दोषियों के चेहरे से नकाब उतार में मददगार साबित हो सकती हैं. परन्तु मीडिया भी इन्हीं की जमात में शामिल होती नजर आ रही है. इसका मुख्य कारण सरकार द्वारा मीडिया को दी जाने वाली सुख सुविधाओं से है. जिसके बलबूते पर सरकार इन चैनलों व अखबारों को अपने वश में करती जा रही है.

आज मीडिया की भूमिका में दोहरापन आ चुका है, उसे देखना और उसका इलाज करना भी जरूरी हो गया है. अगर भ्रष्टाचार को उजागर करने की बात करें तो कुछ बडे घोटालों या भ्रष्टाचार के मामले तो मीडिया ने बखूबी जनता के सामने लाए हैं, लेकिन देश के कमजोर और बेआवाज आम नागरिक के साथ हर दिन जो बेइंसाफी और ज्यादती के हजारों मामले घटित होते हैं, उनसे मीडिया आंखें चुरा लेता है.पिछले दो दशकों में पत्रकारिता के कामकाज का यह सर्वमान्य तरीका बना गया है कि पुलिस और प्रशासन द्वारा जारी की जाने वाली विज्ञाप्तियों को उनमें किए गए दावों और दिए गए विवरणों को तथ्यों की जांच पडताल के बिना ही प्रकाशित किया गया. क्योंकि भ्रष्टाचार के दलदल में मीडिया भी पूरी तरह से घस चुका है.ऐसे मीडिया के खिलाफ बहुत मामले भी प्रकाश में आते रहे हैं उनमें से एक मामला जिला स्तर पर सरकारी जमीन को कौडियों के भाव में लेने का भी है. एक और मामला लगभग पंद्रह वर्ष पुरान है जिसमें इंडियन एक्सजप्रेस के तत्कालीन संवाददाता ने मध्य प्रदेश में अखबारनवीसों को बडे पैमाने पर मकानों की मिल्कियत बांटने का भी है. इसके साथ साथ आज पेड न्यू ज का मामला भी रह रहकर सामने आता रहता है.

ऐसे बहुत से मामले हैं जिनमें मीडिया में कार्यरत संवाददाता, पत्रकार तथा मीडिया के सर्वेसर्वाओं का भी नाम आता है जो सरकार द्वारा या सरकार पर दबाव बनाकर उनसे अपना उल्लू सीधा करते हैं, और सरकार भी किसी पचडे में पडने के वजह इनकी मांगों को निसंकोच पूरा कर देती है. ये बात कहने में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए कि भ्रष्टा्चार के कालेधन में मीडिया भी लिप्त हो चुका है. जनसंचार के एक विद्वान ने सही कहा था कि संचार माध्याम जनता के मन मस्तिक पर सीधा प्रभाव करता है और इन मीडिया संस्थानों के हाथों में अपनी बागडोर सौंप देता है.जिसे आज मीडिया भ्रष्टाचार के मामलों को जनता के सामने रखने के बजह, खुद ही बागडोर सरकार के हाथों में दे चुका है.जब मीडिया सरकार का दल्ला बन चुका है तब क्या मीडिया समाज के सामने भ्रष्टाचार को उजागर कर सकेंगा.ये मात्र और मात्र सरकार के कालेधन में लिप्ते रहकर अपनी अयस्सीम के साधनों ही जुटाता रहेगा.यहा एक कहावत सही सबित हो सकती है कि मीडिया का काम बनना चाहिए, चाहे जनता भाड में क्यों न जाए.

सभार- हर्षदेव (क्राइम, कानून और रिपोर्टर)





Sunday, June 5, 2011

बाबा को धरने पर बैठना है तो अकेले बैठकर दिखाए

क्रांतिकारियों का अपनी क्रांति दिखाने के लिए एक सुनहरा अवसर मिल गया है, इस अवसर को तथाकथित क्रांतिकारी भुना सकते है. और अपने आप को क्रांतिकारी साबित भी कर सकते हैं. शायद ऐसा न हो. वैसे जिस तरह का माहौल कल से लेकर आज तक गरमाया है सभी उससे भलीभांति परिचित है, और शायद ये भी कयास लगा रहे होगें कि कल क्या घटित होने की संभावना है.

जिन मुद्दों को लेकर बाबा रामदेव रामलीला मैदान पर अनशन पर बैठे, उनमें से 99 प्रतिशत मुद्दों को सरकार ने मान लिया था. पर हालात को मद्देनजर रखते हुए सरकार ने रात को कार्रवाही करते हुए बाबा रामदेव को धरना स्थ ल से पकडकर उनको हरिद्वार भेज दिया. ये जो हुआ प्री प्लान था. परंतु इसमें निर्दोष जनता बीच में मारी गई. ये कहावत यहा उचित बैठेगी कि गेंहू के साथ घुन भी पिसता है. वही आलम जनता का भी हुआ. जनता बाबा रामदेव के बोल वचनों में आकर फंस गई और पुलिस की लाठयों का शिकार हुई. ये वाकई सरकार के द्वारा कराया गया निन्दनीय कार्य है. जिसका खामयाजा सरकार को भुगतना पडेगा. वही केन्द्रा में बैठे विपक्षी सरकार भी मौन साधे हुए है. मात्र 24 घण्टों का सत्या ग्रह. क्या साबित करना चाहते है. कि हम भी क्रांतिकारी है और सरकार द्वारा जिस तरह का कार्य किया गया है उसके खिलाफ हैं. नहीं, मात्र विपक्षी हीरों बनने की फिराक में हैं.

मैं बाबा रामदेव से एक बात पूछना चाहता हूँ कि कुछ समय पहले इन्होंने कहा था कि मेरे पास उन लोगों की सूची है जिनका पैसा विदेशी बैंकों में जमा है. कहां है वो सूची. उनमें किन-किन लोगों का नाम है. जिनकों बाबा रामदेव ने अभी तक उजागर नहीं किया. क्याम वो किसी को बचाना चाहते हैं. यदि वो वास्तिव में जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए सरकार के खिलाफ खडे हुए हैं तो ठीक है, नहीं तो चोर-चोर मौसेरे भाई का किस्साक यहां उचित बैठेगा. वैसे बाबा रामदेव ने हरिद्वार में अपना अनशन जारी कर दिया है, मेरे अनुसार कल तक हरिद्वार से भी उनका अनशन समाप्त हो जाएगा.

आज मैं उन माक्सववादी, समाजवादी, लेनिनवादी और क्रांतिकारी लोगों की तरफ मुंह तांक रहा हूँ जो अपने आप को उमदा किस्म के जनता के नुमायदे मानते है, और जनता पर हो रहे अत्यालचारों के खिलाफ आवाज उठाते है. फिर क्योंत चुप हैं सभी के सभी.
बाबा रामदेव में यदि कुवत है तो अकेले, बिना पंडाल के, बिना फंखे के और बिना किसी के सहयोग के धरने पर बैठकर दिखाये, तो उनको उनकी औकात समझ में आ जाएगी. कि जिस तरह से गरीब जनता अपने हक की लडाई लडता है तो उस पर क्या -क्या बितती है, ये तो वो ही जानता है. जब बाबा रामदेव कहां चले जाते है. शायद अलोम-विलोम करने.

बाबा को सभी योग गुरू के नाम से जानते है, वो खुद गरीब जनता को लुटते है. तब कहा जाता है बाबा रामदेव का का अनशन. वक्त रहते सभंल जाये तो ठीक है, नहीं तो जो जैसा करेंगा वैसा ही भरेंगा.