सरोकार की मीडिया

test scroller


Click here for Myspace Layouts

Friday, December 2, 2011

महिला अस्मिता का प्रश्‍न और मानवाधिकार हनन


महिला अस्मिता का प्रश्‍न और मानवाधिकार हनन

(राजकिशोर (मीडिया चिंतक) से साक्षात्कार)



महिला अस्मिता का प्रश्न मानवाधिकार हनन के संदर्भ में कितना महत्त्वपूर्ण है?

          मानव अधिकारों के हनन के संदर्भ में महिलाओं की स्थिति विशेष रूप से विचारणीय है, क्योंकि उन्हें प्रतिपल इसका सामना करना पड़ता है। सच तो यह है कि वे भी मनुष्य हैं और इस नाते उनके भी कुछ अधिकार हैं, यह बोध दुनिया भर में हाल ही में पैदा हुआ है। कुछ समुदायों में तो यह बोध आना अभी भी बाकी है। जन्म से लेकर मृत्यु तक महिलाओं को परिवार तथा समाज में अनेकों दृश्य और अदृश्य बंधनों में रहना पड़ता है। गोरे मुल्क़ों को छोड़कर कहीं भी चुनने की उनकी आज़ादी का सम्मान नहीं होता। जो इस आज़ादी का प्रयोग करना चाहती हैं, उन्हें कठिन प्रतिरोध की स्थिति झेलनी पड़ती है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जो लोग महिला अस्मिता का हनन करते हैं, वे इसे ही सामान्य तथा मानवीय व्यवहार मानते हैं तथा इसे बदलने के आग्रह को विकृति एवं सांस्कृतिक पतन समझते हैं।

भारतीय परिदृश्य में नारीवादी आंदोलन महिला सशक्तिकरण की प्रक्रिया एवं उद्देश्य को किस प्रकार प्रभावित कर रहा है?

भारत में नारीवाद सिर्फ़ एक विचार है। यह दावा करना अतिशयोक्ति है कि नारीवाद हमारे यहां आंदोलन का रूप ले चुका है। अधिकतर नारीवादी अंगे्रज तक, पुस्तकों और पत्रिकाओं तक तथा कभी-कभी जुलूसों एवं धरनों तक सीमित है। गांवों और कस्बों तक नारीवाद का संदेश पहुंचना अभी बाकी है। लेकिन यह समय जागरण का है। परिवर्तन की हवा चारों ओर बह रही है। इससे महिलाओं में मानव अधिकारों की चेतना जाग्रत हो रही है। पर यह चेतना उनके दैनिक जीवन में कब और कितना प्रगट होगी, यह नहीं कहा जा सकता। प्रगति की रफ़्तार तेज न हो, तो संस्कारों को टूटने और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को बदलने में समय लगता है।

महिला शोषण के विरूद्ध सरकारी एवं गैर सरकारी सांगठनिक प्रयासों में एकरूपता के बावजूद नारी मुक्ति का सवाल वैचारिक विमर्शों के घेरे में कैद है, ऐसा क्यों?

मेरा खयाल है, नारी मुक्ति के संदर्भ में सरकारी या गैर सरकारी प्रयासों की तुलना में शिक्षा तथा आर्थिक हैसियत का प्रश्न ज्यादा निर्णायक है। सिर्फ़ स्त्री-पुरूष समानता का संदेश फैलाने या इसके लिए कानूनी ढांचा खड़ा करने से कुछ नहीं होता। वह वातावरण भी बदलना चाहिए, जिसमें स्त्रियों को रहना और काम करना होता है। असली चीज यह है कि शिक्षा का प्रसार कितना हो रहा है तथा स्त्रियों की आर्थिक स्थिति में कितनी उन्नति हो रही है। जहां शिक्षा है तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता है, वहां नारी मुक्ति की चेतना भी पैदा हो रही है। तुलसीदास ने ठीक ही कहा है- पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं

महिला उत्पीड़न से संबंधित मीडिया द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों तथा अन्य स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों में भिन्नता क्यों रहती है?

मुझें तो दोनों आंकड़ों में भिन्नता कम ही दिखाई पड़ती है, क्योंकि नारी उत्पीड़न के संदर्भ में मीडिया अपनी ओर से कोई सर्वेक्षण नहीं कराता। अन्य मामलों की तरह, इस मामले में भी वह सरकारी एवं गैर सरकारी सर्वेक्षणों पर निर्भर रहता है। यह जरूर है कि जहां अन्य माध्यमों में स्त्रियों के मानव अधिकारों का हनन महज़ आंकड़ों की भाषा में प्रस्तुत किया जाता है, वहीं मीडिया ऐसी घटनाओं की जीवंत तस्वीर पेश करता है। किसी खास वर्ष या महीने में बलात्कार की कितनी घटनाएं हुईं, इसकी तुलना में ये विवरण हममें ज्यादा आक्रोश पैदा करते हैं कि बलात्कारी कौन थे, जिसके साथ बलात्कार हुआ, उसकी उम्र क्या, थी, वह क्या करती थी, किस स्थिति में उस पर हमला किया गया, बलात्कार के बाद हमलावारों ने क्या किया, इस घटना के प्रति पुलिस का रूख क्या था आदि-आदि। जब इसे टेलीविजन पर दृश्य रूप में प्रस्तुत किया जाता है, तो असर और गहरा होता है।

महिला अधिकार हनन संबंधी ख़बरों को मीडिया में पर्याप्त जगह नहीं मिल पाती, आपका क्या मानना है?

यह सच है कि महिलाओं के मानव अधिकारों के हनन को मीडिया में पर्याप्त तो क्या आवश्यक जगह भी नहीं मिल पाती। इसके दो मुख्य कारण हैं। एक कारण यह है कि मीडिया में काम करने वालों की अपनी मानव अधिकार चेतना बहुत सीमित है। कहीं-कहीं यह चेतना स्वयं ही मानव-विरोधी है। दूसरी बात यह है कि मीडिया को सनसनी की तलाश रहती है, जबकि दैनिक जीवन में स्त्रियों के मानव अधिकारों का हनन इतना आम है कि उसे घटना तक नहीं माना जाता। किसी बस स्टॉप पर किसी लड़की को देखकर किसी लड़के ने सीटी बजाना शुरू कर दिया या दफ़्तर में फ़ाइल पकड़ाते वक़्त अफ़सर ने महिला का हाथ छूने के लिए अतिरिक्त प्रयास किया, तो इसकी रिपोर्ट किस अख़बार में छप सकती है? इसमें कौन रूचि लेगा? एक और बात है। अधिकांश महिलायें अपने मानव अधिकारों के हनन की घटनाओं को प्रकाश में लाना ठीक नहीं समझतीं, क्योंकि इससे उनका नुकसान होने की आशंका होती है-उनके मानव अधिकारों का हनन और बढ़ सकता है।

आज नारीवादी चेतना के बावजूद प्रायः भारतीय नारी विभिन्न स्तरों पर प्रताड़ित नज़र आती है। आप इसका प्रमुख कारण क्या मानते हैं?

जैसा कि मैंने ऊपर कहा, न तो नारीवादी चेतना का व्यापक प्रसार हुआ है, न ही पुरूष समाज की मानसिकता बदली है। परिवार तथा शैक्षणिक संस्थानों में और कार्य स्थल पर स्त्रियों की प्रताड़ना के विभिन्न रूप आज भी प्रचलित हैं। कामुकता की नई संस्कृति पैदा होने और सार्वजनिक स्तर पर स्त्रियों की उपस्थिति बढ़ने से उन्हें लालच की नज़र से देखना सामान्य बात होती जा रही है। परिवार में लड़की को बोझ माना जाता है, शैक्षणिक संस्थानों में उन्हें आसान शिकार समझा जाता है तथा कार्य स्थल पर उनके शोषण का प्रयास होता है। महिलाओं में स्वाभिमान की भावना आए और बढ़े, इसकी शुरूआत तो परिवार से ही करनी होगी। इससे उनमें प्रतिरोध की क्षमता पैदा होगी, जिसके सकारात्मक परिणाम आगे भी प्रगट होते रहेंगे।

प्रायः मीडिया महिला उत्पीड़न से संबंधित समाचारों को या तो पुलिसिया नज़र से प्रस्तुत करती है या फिर चटखारे लेकर प्रस्तुत करती है। आपकी समझ से क्या मीडिया इस परिप्रेक्ष्य में अपने उत्तरदायित्व से भटकती नज़र नहीं आती है?

यह बड़ा जटिल प्रश्न है। मीडिया को व्यावसायिक उद्देश्यों से पुरूष की यौन कामनाओं को उद्दीप्त करना पड़ता है और उन पर अश्लीलता का आरोप न लगे, इसका भी ध्यान रखना पड़ता है। फलस्वरूप एक ओर तो मीडिया स्त्री के रूप-सौंदर्य को बाज़ारवादी नज़र से पेश करता है, दूसरी ओर वह समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का पालन करता हुआ दिखाई पड़ना चाहता है। इस खंड़ित मनोवृत्ति के कारण नारी समाज के प्रति उसका रवैया अक़्सर अंतर्विरोधपूर्ण हो जाता है। मेरी धारणा है, जब तक मीडिया पर व्यावसायिक दबाव रहेंगे, तब तक इसे रोका नहीं जा सकता।

महिला उत्पीड़न से संबंधित मीडिया में प्रस्तुत ख़बरों को लेकर आपका अपना मत क्या है?

इस संदर्भ में कहने की विशेष बात यह लगती है कि नारी जीवन से संबंधित प्रश्नों पर मीडिया में जो कुछ छपता है या दिखाया जाता है, उसके पीछे समझ हो तो हो, पर संवेदना नहीं होती। सारी चीजें रूटीन हो चली हैं। लेकिन मीडिया की अंगभीरता सिर्फ़़ इस मामले में ही नहीं, दूसरे सभी मामलों में भी प्रकट होती है। इसलिए यही कहा जा सकता है कि अक़्सर मीडिया फड़फड़ाता जरूर है, पर उड़ान नहीं भरता।


No comments: