सरोकार की मीडिया

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Wednesday, November 30, 2011

बेजान के हाथों में देश की कमान


बेजान के हाथों में देश की कमान


देश की राजनीति इतनी गंदी हो गयी है कि सभी नेतागण अपने स्वार्थ के लिए भारत में भिन्न-भिन्न प्रकार के कानून पारित कर देते हैं। जो सरकारी कर्मचारियों के लिए है न कि, उनके लिए? भारत द्वारा बनाया गया नौकरी एक्ट व कानून जिसमें 60 वर्ष के व्यक्तियों को सेवानिवृत्त कर दिया जाता है। सरकार यह सोचती है कि उसमें कार्य करने की क्षमता नहीं बची, वो कोई काम करने में असमर्थ हो चुके हैं। इसलिए उन कर्मचारियों को 60 वर्ष पूरे होने के बाद सेवानिवृत्ति दे दी जाती है। क्योंकि भारत सरकार यह सोचती है कि जो वह पिछले 30 या 40 साल से काम कर रहा है अब नहीं कर सकता।
वहीं आज देखा जाए तो सभी पार्टियों में 60 वर्ष से अधिक उम्र के नेता सत्ता संभाले हुए हैं जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मायावती और मुलायम सिंह, इसके साथ-साथ लालकृष्ण आडवाणी, कल्याण सिंह, मुरली मनोहर जोशी, अर्जुन सिंह यहां तक कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल आदि अनेक नेता 55 से 65 वर्ष की उम्र पार कर चुके हैं। और वो हमारे भारत को अपने हिसाब से चला रहे हैं। उनके लिए कहावत है- ‘‘जब जागो, तब सबेरा’’। अगर कहा जाए तो इनमें से कुछ तो इतने कमजोर हो गए हैं कि बिना किसी के सहारे के एक कदम भी नही चल सकते। यह कहना गलत नहीं होगा कि वो क्या देश चलायेंगे जिन्हें चलने के लिए सहारे की जरूरत होती है। यदि देश को चलाने वाले 60 वर्ष से अधिक हो सकते हैं तो देश में कार्य कर रहे लोगों की उम्र 60 से अधिक क्यों नहीं हो सकती?

Tuesday, November 29, 2011

वृद्धावस्था की समस्याएं


वृद्धावस्था की समस्याएं

आज का मानव पूर्णतः मशीन में तबदील हो गया है जिसमें लोगों की दिनचर्या सुबह से आरंभ होकर देर रात तक चलती है। जो अपने लक्ष्य को पूरा करने पर ही रूकती है। यह अच्छी बात है किंतु, ऐसा करने में हम अपने नैतिक कर्तव्यों की बलि चढ़ते जा रहे हैं। जिसे निभाने की हमसे लगातर आशाएं की जाती है। इन आशाओं और नैतिक कर्तव्यों पर हम लोग खरे नहीं उतर रहे हैं। ये सभी जानते हैं कि, उम्र के एक पड़ाव के बाद वृद्धावस्था निश्चित रूप से आनी है। जो परेशान करती है और समय के साथ-साथ स्थिति बदतर होने लगती है।

यह बात सही है कि औद्योगीकरण एवं पश्चिमी सभ्यता के कारण जो परिवार जुड़े हुए थे अब उनमें एक बिखराव देखा जा सकता है। आज की नवयुवा पीढ़ी संयुक्त परिवार में रहना कम पसंद करने लगी है। जिससे वृद्ध व्यक्तियों को समस्याओं से जूझना पड़ रहा है और उनका जीवन वास्तव में कष्टकारी हो जाता है। यह एक ऐसी अवस्था होती है जिसमें वृद्ध व्यक्ति अपने बच्चों से शारीरिक, नैतिक, वित्तीय एवं भावनात्मक सहारे की जरूरत महसूस करते हैं। परंतु युवा पीढ़ी अपने माता-पिता को एक बोझ समझकर हमेशा उनकी उपेक्षा करते रहते हैं। यहां तक कि घर का कोई भी सदस्य उनकी ओर ध्यान भी नहीं देता है एवं हर बात पर उनका तिस्कार किया जाता है। वृद्ध व्यक्तियों के प्रति उनका रवैया अवमाननापूर्ण और असम्मानजनक होता है। जब भी कोई ऐसी बात होती है तो वृद्ध व्यक्ति निराशा के सागर में डूब जाते हैं। यदि किसी अच्छे कार्य के लिए वो परामर्श भी देते हैं तो उन्हें ऊंची आवाज में बोलकर अपमानित किया जाता है जिससे वो कभी-कभी कुंठाग्रस्त हो जाते हैं। इस अवस्था में उन्हें अपने सगे-संबंधियों से प्रेम भावना की जरूरत होती है। किंतु युवा पीढ़ी उनसे दूर रहना शुरू कर देती है। जिससे वे अंदरूनी आघात से टूट जाते हैं कभी-कभी अपने आपको खुद बोझ महसूस करने लगते हैं।

 बात यहां भी खत्म नहीं होती, उनके बच्चे चाव से भर पेट भोजन करते हैं और वे लोग उन्हें दो वक्त की रोटी भी देना भूल जाते हैं। वो तो अपने ही द्वारा बनाया गया घर में पराये हो जाते है जिसे उन्होंने अपनी जीविका में से काट-काट बनाया होता है। उसी घर के एक कौने में पडे़ रहते हैं। उनके द्वारा कमायी गयी संपत्ति उनके बेटों या उत्तराधिकारियों द्वारा आपस में बांट ली जाती है। और, वे लोग उनके यथाशीघ्र मरने का इंजतार करते हैं। ऐसे लोगों की स्थिति और भी दयनीय होती है जिनके आय का स्रोत समाप्त हो चुका होता है।

वृद्ध व्यक्तियों के प्रति ऐसी प्रवृत्ति का कारण समाज में बढ़ता भौतिकवाद है, आधुनिक परिवार में हर सदस्य प्रत्येक सदस्य से आय की अपेक्षा करता है, जिससे परिवारिक जीवन सुखद एवं आरामदेय हो। और यदि नहीं कमाते है तो परिवार पर बोझ माने जाते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि हम भी एक दिन वृद्ध होंगे और हमारे बच्चे भी हमारे साथ वैसा ही व्यवहार करेंगे तो हमने अपने वृद्धों के प्रति किया। इसलिए हमें हमारी प्रवृत्ति को सकारात्मक बनाने की जरूरत है। नहीं तो जब हमारे बच्चे हमारे साथ करें तो हमें भी अपने मां-बाप के दिन याद आयें कि हमने क्या-क्या किया था अपने बुर्जुगों के साथ।

Monday, November 28, 2011

किसी की आँखों मे मोहब्बत का सितारा होगा


किसी की आँखों मे मोहब्बत का सितारा होगा

 किसी की आँखों मे मोहब्बत का सितारा होगा
एक दिन आएगा कि कोई शक्स हमारा होगा
कोई जहाँ मेरे लिए मोती भरी सीपियाँ चुनता होगा
वो किसी और दुनिया का किनारा होगा
काम मुश्किल है मगर जीत ही लूगाँ किसी दिल को
मेरे खुदा का अगर ज़रा भी सहारा होगा
किसी के होने पर मेरी साँसे चलेगीं
कोई तो होगा जिसके बिना ना मेरा गुज़ारा होगा
देखो ये अचानक ऊजाला हो चला,
दिल कहता है कि शायद किसी ने धीमे से मेरा नाम पुकारा होगा
और यहाँ देखो पानी मे चलता एक अन्जान साया,
शायद किसी ने दूसरे किनारे पर अपना पैर उतारा होगा
कौन रो रहा है रात के सन्नाटे मे
शायद मेरे जैसा तन्हाई का कोई मारा होगा
अब तो बस उसी किसी एक का इन्तज़ार है,
किसी और का ख्याल ना दिल को ग़वारा होगा
ऐ ज़िन्दगी! अब के ना शामिल करना मेरा नाम
ग़र ये खेल ही दोबारा होगा
जानता हूँ अकेला हूँ फिलहाल
पर उम्मीद है कि दूसरी ओर ज़िन्दगी का कोई और ही किनारा होगा

मीडिया: समाज और महिलाएं


मीडिया: समाज और महिलाएं

 समाज में संतुलन की स्थिति को सबसे आदर्श माना जाता है। हमारे समाज में सामाजिक संतुलन की अपनी विशेष महत्ता होती है इसी क्रम में महिला और पुरूष का सामाजिक स्थान और दर्जे का संतुलन अतिमहत्वपूर्ण होता है। समाज ने अलग-अलग स्थान विशेष पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक वैचारिक तथा अवसर के स्तर पर महिला और पुरूष की सामाजिक संरचना के लिए गढ़ा, जो निरंतर चलता रहे तथा उनमें धीरे-धीरे परिवर्तन होता रहे। किन्तु आधुनिक समाज में स्त्रियों की सामाजिक दशा को उत्तोरोत्तर प्रगतिशील और दृढ़ता लाने के लिए अनेक अधिकारों के साथ संरचित किया गया और उन्हें समानता का अधिकार, दहेज निषेध, सती निषेध, विधवा पनुर्विवाह, महिला कल्याण की विभिन्न नीतियां, कामकाजी महिलाओं के अधिकार तथा शोषण के विरूद्ध अधिकार प्रदान किए गये।

भारत में संविधान के मूल कत्र्तव्यों में अनुच्छेद 51(क)(ड.) के अंतर्गत भीलोगों में समरसता और समान भ्रातत्व की भावना का निर्माण करेंजो सभी प्रकार के भेदभाव से परे हो तथा ‘‘ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरूद्ध हैं।इस परिप्रेक्ष्य में महिला उत्थान की भावना को संवैधानिक पोषण देने का प्रयास किया है। यही नहीं अनुच्छेद 15 में यह भी निर्धारित किया गया कि, लिंग के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव निषेध होगा।इस उददेश्य की प्रतिपूर्ति हेतु भारत में स्त्रियों के लिए समानता के अधिकार को सुरक्षित रखने के कानून का निमार्ण किया गया। भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों को देवी ओहदा तो कहीं-कहीं उसे दोयाम दर्जे के हाशिए पे धकेल दिया गया। अब महिलाओं के प्रति दोयाम दर्जे के व्यवहार का सामाजीकरण कुछ इस तरह प्रकट हो चुका है कि, महिलाएं मुख्य धारा में जुड़ने के बावजूद, सैकड़ों वर्षों से चली आ रही विपरीत स्थितियों से अपने आप को निकालने में असमर्थ महसूस कर रही हैं।

सूचना और संचार के युग में उपभोक्तावादी दृष्टि ने स्त्रियों के पात्र व चरित्र को विसंगत बना दिया है। इसमें लिंग आधारित भेद को किसी-न-किसी रूप में अवश्य पाया जाता है। जिसको समाज के एक विशाल वर्ग समूह द्वारा थोपा गया। इस बारे में एलिसन जैग्गर आदि विचारकों का मत है कि सेक्स और जेंडर एक-दूसरे के साथ द्वंढ़ात्मक और अविभाज्य रूप से संबंधित है।वहीं ‘‘टेलीविजन प्रसारण के विभिन्न कार्यक्रमों में स्त्री-चरित्र को हास्य व अंग प्रदर्शन से अश्लील और फूहड़ बना दिया गया है। यही नहीं बहुत तेजी से समाज में स्त्रियों के प्रति व्यवहार में गंभीरता का हा्रस होता जा रहा है। अगर कहा जाए तो भाषा, शब्दों, बातों व्यवहार आदि में महिलाओं के प्रति दोयम दर्जे का सामाजीकरण, इन कार्यक्रमों (कॉमेडी शो) की देन हैं जो एक अपसंस्कृति का निर्माण, आगामी समाज के समक्ष महिला उत्थान की कड़ी को मजबूत बनाने में बाधक सिद्ध हो रही हैं। स्त्री उत्थान के प्रति आवाज उठाने वाले संगठन भी, महिलाओं के प्रति स्वथ्य वातावरण का निर्माण बनाने की सफल मुहिम  के प्रयासों में जुझ रहे हैं। ’’आज कॉमेडी-शो, फिल्म व विज्ञापनों को व्यावसायिक दृष्टि से दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। इनमें अधिकांश चैनल व समाचार पत्र-पत्रिकाएं टी.आर.पी और सर्कुलेशन की दौड़ में आगे आने तथा प्रतिस्पद्र्धा की दौड़ में बने रहने के लिए महिला/नारी देह को शामिल कर रहे हैं। बात हम टी.आर.पी पर प्रसारित कॉमेडी-शो की करें तो ये महिला विरोधी साबित हो रहे हैं क्योंकि इनकी भाषा, भावगिमाएं और विषय-वस्तु में ऐसे अश्लील और फूहड़ तरीके से स्त्री विरोधी स्वर पैदा करते हैं। जिसके परिणामस्वरूप समाज में नारी अस्मिता की नयी पीढ़ी में छीटाकसी, अभद्रता का सामाजीकरण होना निश्चित तय लगता है। वरिष्ठ पत्रकार बी.जी. वर्गोज मानते हैं कि ‘‘यह चलन खतरनाक है। टेलीविजन कॉमेडी शो में इन दिनों गलत काम दिखाये जा रहे हैं।बतौर महिला स्वयं बरखा दत्त का कहना है कि हिंदी चैनलों में बेहुदे कार्यक्रमों को, खबरों तक में शामिल कर लिया जाता है।

सभ्यता के दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह शो कितने संवेदनशील हैं, इस पर किसी का ध्यान केंद्रित नहीं हो रहा है। जिसके दूरगामी परिणाम स्त्रियों के प्रति बडे़ खतरनाक होगें। आज ये चैनल इस बात की होड़ में है कि कौन कितना नीचे गिर सकता है? कौन किस प्रकार अश्लीलता ठाल बनाकर चलन में बना रह सकता है? टी.आर.पी. की अंधी दौड़ में स्त्री अस्मिता को लगातार कुचलने का प्रयास जारी है। इसी कारण के चलते इस प्रकार के कार्यक्रमों की बाढ़-सी आ रही है। कार्यक्रमों में स्त्रियों के चरित्र को विकृत करने के पीछे भी पुरूष मानसिकता का हाथ होता है जो आज के बाजारू और नवनिर्मित भूमंड़लीयकृत समाज के द्वारा संचालित होता है। वहीं पूंजीवाद और पितृसत्ता एक-दूसरे को मजबूती प्रदान करते हैं और मीडिया इन दोनों का संवर्धन करने का कार्य करती है।

वर्तमान कार्यक्रमों कॉमेडी शो, स्टेज शो आदि में विभिन्न दूषित मानसिकता द्वारा स्त्रियों के प्रति समाज में मूल नारी उत्थान को रोका जा रहा है। देखा जाये तो निर्माताओं ने नारी चरित्र को व्यापार का हिस्सा बना दिया है। कार्यक्रमों में अधिकाधिक पूंजी लगायी जा रही है और फिर स्त्रियों के प्रति अवमानना को मनोरंजन के साथ पेश किया जाता है। यह बात सही है कि यहां महिलाओं को अधिक मात्रा में पैसा भी दिया जाता है, लेकिन यह सब भी उस तरह से हो रहा है, जिस तरह पूंजीपति अतिरिक्त मूल्य के दोहन के जरिये मजदूरों का शोषण करता है।

आज हर क्षण बदल रहे सामाजिक परिवेश में, सामाजिक मान्यताएं तथा सामाजिक सरोकार हर पल बदल रहे हैं। सामाजिक मान्यताएं धराशायी हो रही हैं। नये मूल्यों का सृजन इस समाज को एक नए विश्व समाज में बदल रहा है तथा एक नए सामाजिक परिवेश का नया प्रारूप हमारे सामने है। जिसमें हम अपनी टूटती हुई परंपराओं का आईना देख रहे हैं। इसी को गौर करते हुए टेलीविजन प्रसारण के साथ-साथ संचार के अन्य माध्यमों ने अपने सामाजिक मूल्यों में अमूलचूल बदलाव किये हैं जिससे समाज पूर्ण रूप से इस बदलाव के प्रभाव में है। इसमें समाचार पत्र-पत्रिकाओं एवं इंटरनेट ने महिला छवि को सबसे अधिक दूषित किया है जहां समाचार पत्रों में विज्ञापन के नाम पर अश्लील चित्रों के साथ महिलाओं का चित्रण किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर इंटरनेट पर पोर्न चित्रों का बोलबाला है। यह स्त्रियों की छवि से खिलवाड़ करने का माध्यम बनता जा रहा है। मीडिया जहां एक ओर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पुरजोर वकालत करता है वही दूसरी ओर समाज में स्त्री-पुरूष दो वर्ग का विभाजन की रेखा खीचने का कार्य भी कर रहा है। भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त आरक्षण के अंतर्गत अब महिलाओं को आरक्षण बिल संसद द्वारा पारित किया जा चुका है जिसे क्या सर्वमान्य तरीके से मीडिया ने उन महिलाओं तक पहुंचाने की कोशिश की, शायद नहीं। जिन्हें वास्तव में आरक्षण की आवश्यकता है। मीडिया में चाहे वह प्रसारण हो या प्रकाशित, सभी माध्यमों में नारी चरित्र दोयम दर्जे का प्रस्तुत किया जा रहा है। सीमेंट के विज्ञापन में अर्द्ध नग्न महिला का चित्र हो या साबुनों के विज्ञापनों में नाममात्र के कपड़े पहने मॉडल, वही हाल फिल्मों का है। आज एक ओर मुन्नी बदनाम हो रही है तो दूसरी ओर शीला की जवानी जैसे फूहड़ गीत और उसका चित्रण। समाज द्वारा महिला को सदैव ही दोयम दर्जे पर रखा गया है। जिसे आज मीडिया ने अपने कार्यक्रमों (कॉमेडी-शो, स्टेज शो) के द्वारा फूहड़ व अश्लील बना दिया है तो दूसरी ओर विज्ञापन के नाम पर समाचार पत्र-पत्रिकाएं सार्थक करने में लगी हुई हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति और पूंजीवादी वर्ग मीडिया के द्वारा पुरूष व महिला नामक दो समाज का निर्माण बेहद कुटीलता व व्यावसायिक स्वरूप देकर कर रहे हैं जिससे मीडिया दोयम दर्जे का होता जा रहा है।

Sunday, November 27, 2011

मीडिया चरित्र और बाज़ारवाद

                                                   मीडिया चरित्र और बाज़ारवाद
 
            मीडिया का मूल उद्देश्य सूचना देना शिक्षित करना तथा मनोरंजन करना है। इन तीन उद्देश्यों में सम्पूर्ण मीडिया का सार तत्व समाहित किया जा सकता है अपनी बहुमुखी प्रवित्‍तयों के कारण पत्रकारिता व्यक्ति और समाज के जीवन को गहराई की चिन्तवृत्तियों, अनुभुतियों और आत्मा से साक्षात्कार करती हुई मानव मात्र को जानने की कला सिखाती है। मीडिया संचार का सामाजिक माध्यम है वह जन-समान्य की भावनाओं को अभिव्यक्ति देता है। समाज को कोई पक्ष हो, राष्ट्र की कोई भी चिन्ता हो, वह मीडिया के माध्यम से ही अभिव्यक्ति पाती है जन-मन के विचार भी इसी माध्यम से सामने आते हैं।

            भारतीय मीडिया सामाजिक, धार्मिक रूढियों-आडम्बरों के खिलाफ निरंतर संघर्ष करता रहा है। लोकहित, लोक-कल्याण उसका प्रमुख पक्ष रहा है। वह जनता को शिक्षित करने से लेकर उसे सचेत करने व सच-झूठ की वास्तविकता को सामने लाने का सूत्र धार रहा है।

स्वतन्त्रता के पश्चात मीडिया के मानक बिन्दु यही रहे पर, उनके संदर्भ व अर्थ निरंतर बदलते रहे। बाजार की अंधी दौड ने सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र को अपनी गिरफ्त में ले लिया, जिससे खासकर मीडिया सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है।

            1980 के दशक के आरंभ में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण ने ढेर-सारी बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता सामग्रियों के लिए देश के बाजारों के दरवाजें खोल दिए और संबंधित व्यापारिक प्रतिष्ठानों को अपने उत्पादों के बारे में सूचनाएं देने अपने मार्कानामों की छवि बनाने और उनका उपभोक्ता आधार बढ़ाने के लिए प्रसार माध्यमों की दर थी। सन् 1976 में व्यवसायिक हुआ टेलीविजन सबसे सशक्त माध्यम था जिसका इस्तेमाल व्यापार जगत ने उपभोक्ताओं तक पहुंचने में किया, दूसरा माध्यम भी चमकीले चिकने पत्रों पर छपने वाली नई पत्रिकाएं जो नए उत्पादों को विज्ञापित करने के लिए रंगीन माध्यम उपलब्ध कराने को वेताब थी। इन जुड़वा चुनौतियों का सामना करने के लिए अख़बारों के मालिकों ने अपने प्रतिष्ठानों का काया कल्प कर दिया और अपने-अपने अखबारों की प्रकाशन सामग्री को दूसरे माध्यमों के मुकाबले ज्यादा प्रतिस्पर्धी बना दिया। उनके यह सब करने का उद्देश्य न सिर्फ अपने अस्तित्व को बनाए रखना था, बल्कि नए माहौल में उपलब्ध इस अवसर को भुनाना भी था। उनकी मंशा बाजार में अपनी सबसे अलग हैसियत का उपयोग करके व्यापारिक निगमों से अधिक से अधिक विज्ञापन राजस्व जुटाने की थी।

            निगमीकरण और उसके फलस्वरूप अख़बार मालिकों के दृष्ठिकोण में आए बदलाव से मुनाफा तो कई गुना बढ़ गया है लेकिन अब अख़बार बजाय जनमत तैयार करने के मंच के विज्ञापनदाताओं के वाहन बन गए हैं। 1990 से 1995 के बीच अख़बारों को मिलने वाले विज्ञापनों में तीन गुने की वृद्धि हुई और विज्ञापनों से आने वाला राजस्व आठ सौ करोड़ रूपये से बढ़कर 26 सौ करोड़ रूपये तक जा पहुँचा, लेकिन इसी के साथ एक चीज का जबर्दस्त क्षरण हुआ जिसे हम पत्रकारीय नैतिकता कहते थे। राजनीतिक सिद्धान्तों की समझ पैदा करने या घटनाओं की व्याख्या करने की प्रतिबद्धता नहीं रह गयी। कुल मिला कर बाजारवाद का नतीजा यह हुआ कि संपादकों की भूमिका घटती चली गयी और मालिकों की दखलंदाजी बढ़ती गयी, जो आम जनता के प्रति नहीं, सिर्फ, शेयर धारको या विज्ञापनदाताओं के प्रति जवाबदेह होते है। 

            आधुनिक अखबार, अखबार नहीं, विभिन्न स्वार्थो के होल्डाल (टैबलायडीकारण) बन कर रह गये हैं। आजकल बड़ा और सफल दैनिक निकालने का सूत्र हैं- फैशन और डिजाइनिंग पर, खान-पान केन्द्रों पर, बडे़-बडे़ लेख छापना फिल्मी अ़फवाहें, स्त्रियों की अर्द्धनग्न अश्लील तस्वीरें, ताजा-तरीन फिल्मों, व्यापारिक गातिविधियों, खेल गातिविधियों, पूंजी-बाजार के सूचकांक और यात्रा स्थलों के बारे में छापना, इनमें से बहुत सारे लेख संबंधित व्यापारिक घरानों, व्यक्तियों, मालिकों और सितारों पर मुफ़्त के विज्ञापन होते हैं।

            विज्ञापनदाता अपने उत्पादों के बारे में लेखों की मांग करने लगे हैं। नतीजतन एडवरटोरियलनाम की अभूतपूर्व परिघटना का उद्य हुआ है। साफ है कि समाचार पत्रों की विज्ञापनों पर निर्भरता अत्याधिक बढ़ गयी हैं। नतीजन अखबारों पर विज्ञापनदाताओं का दबाव काफी बढ़ गया है। वे न सिर्फ अपनी शर्ते थोप रहे हैं बल्कि कुल मिला कर समाचारपत्र की अंतर्वस्तु को भी प्रभावित कर रहे हैं। अधिकांश सफल समाचारपत्रों में आर्थिक उदारीकरण, भूमण्डलीकरण और निजीकरण के खिलाफ समाचार-टिप्पणियों का प्रकाशन संभव नहीं है। समाचार पत्रों या चैनलों में कारपोरेट भ्रष्टाचार और अपराधों से जुड़ी खबरों के लिए कोई जगह नहीं है। समाचारपत्रों या मीडिया के कारपोरेटीकरण का एक और नतीजा यह हुआ है कि निवेशकों और खास करके विज्ञापनदाता के दबाव में अख़बार और चैनलों की अंतर्वस्तु में इस तरह से परिवर्तन किया गया है, कि वह नागरिकों के बजाय उपभोक्ताओं की जरूरत को पूरा करें क्योंकि, विज्ञापनदाता को उपभोक्ता चाहिए न कि पाठक। और जहाँ तक राजनीतिक खबरों का सवाल हैं, मीडिया समाज राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं की सत्ता की आपाधापी में की जाने वाली बयानबाजियों को निष्पक्षता से बराबर की जगह देते है और विभिन्न मुद्दों पर सरकारी विज्ञप्तियों की खब़रे छापते हैं। मुद्दे उठानें, सरकारी कार्यक्रमों योजनाओं की सफलता उनकी नाकामी या उनसे उठने वाली समस्याओं को रेखाकित करने की कोशिश नहीं की जाती, अब मीडिया सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक सुधारों को लेकर जनजागरण अभियान चलाने जनमत तैयार करने के धर्मयोद्धा नहीं रहे जैसा कि 1947 के आसपास के दौर में था जब उन्होंने अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ राष्ट्रवादी आंदोलन में हिस्सा लिया था या किसी हद तक 1975 के राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किया था। राजनीतिक दृष्टि से टकराववादी, यथार्थवादी रूझान चल रहा है जबकि 1947 में सत्‍ता हस्तांतरण के बाद मीडिया कुटीर-उद्योगों से बडे उद्योगों में बदल गयी और पत्रकारिता पेरो की जगह व्यावसायिक कैरियर बन गई। प्रेस पर आपात काल के दौरान लगाई गई सेंसरशिप की प्रतिक्रिया में खोजी पत्रकारिता का चलन चला उस समय राजनीतिक भ्रष्टाचार पसंदीदा विषय था। उन दिनों दहेज- हत्याओं, भुखमरी कच्ची शराब पीकर होने वाली मौतों और ऐसी ही दूसरी सनसनी ख़ेज ख़बरे छापना अख़बारों के लिए फायदे का सौदा था और पाठक भी इस तरह की ख़बरें पढ़ना चाहते थे। चूंकि अखबार समस्याओं के समाधान सुझाने में अक्षम थे। जिनको वह उजागर कर रहे थे इसलिए मामूली अंशों में ही सही, लेकिन जनता और पत्रकार-बिरादरी दोनों के मन में संदेश और निराशा पैदा हो गई थी। खोजी पत्रकारिता को छोड़ कर वह नया रवैया अपनाया गया जो कि उदारीकरण की प्रक्रिया से मेल खाता था आज की तारीख में पत्रकार सत्‍ता प्रतिष्ठान का हिस्सा बन गये हैं और मीडिया के मालिकान सत्‍ता के स्वयंभू दलाल बन गए हैं और भष्ट्र राजनीतिज्ञयों की कृपा दृष्टि चाहते है।

व्यापारीकरण की बाढ़ ने प्रेस की नैतिकता, उसकी प्रकृति और उसके आचरण में ऐतिहासिक बदलाव लाया है, सारे के सारे प्रसार माध्यमों में मुद्दों की जगह व्याक्ति-पूंजी हावी हो गयी है। मीडिया का सारा ढ़ांचा अभिजात है और पत्रकारों और जनता की ओर से जनमत तैयार करने का ठेका लिए लोगों, विशेषज्ञों को विशेषाधिकार दिलाता है, हाल फिलहाल में उभरकर आये नाम से खबरें आलेख छापने के चलन ने इस रूझान को और भी बढ़ावा दिया है। स्वयं सेवी, पत्रकार नामचीन शिक्षा, विद, वैज्ञानिक और लेखक भी अब इस खेल में शामिल हो गये है किया कुछ खोए वह कैरियर के लिहाज से अपने सामाजिक-पर्यावरणी आंदोलनों से काफी कुछ हासिल करते है। इन आन्दोलनो से संबंधित लोगों के लिए इसके नतीजे त्रासद होते हैं, क्योंकि मीडिया उन आन्दोलनों के सूत्रधारों के महिमामंडन के क्रम में उनसे जुडे़ मुद्दों की चर्चा करते है इस तरह के मुद्दों को लेकर संघर्ष करने वाले लोगों की भागीदारी और उनके महत्व को रेखांकित करने की कोशिश नदारद होती है आम तौर पर मामले को उठाने के बाद मुद्दों को दूसरी ख़बरों की बाढ़ में डूब जाने और भूला दिये जाने के लिए छोड़ दिया जाता है, आमतौर पर शोहरत की बाढ़ में बहकर आंदोलनों के प्रणेता (पत्रकार) यह गलतफहमी पाल बैठते है कि वह उद्देश्य की बड़ी सेवा कर रहे हैं। अलबत्‍ता कई बार होता यह है कि इससे बाजार में उनकी कीमत बढ़ जाती लेकिन यथास्थिति बनी रहती है लाखों तबाह-बर्बाद हो जाते है और उनकी आवाज कहीं नहीं पहुंचाती। पत्रकार भाडे़ के बास बन गए हैं, सच्चाई तटस्थता और जनता के बड़े तबके की अनावश्यक पीड़ा की चर्चा यों राह चलते कभी-कभार कर दी जाती है। ऐसे में आम नागरिक के मन में मीडिया की विश्वसनीता काफी गिर गई है जनता महसूस करने लगी है कि न सिर्फ राजनीतिज्ञ चुनावों में वोट मांगने के लिए बरसाती मेढ़कों की तरह बाहर आते और फिर परिदृश्य से अतंध्पति हो जाते हैं बल्कि पत्रकार भी किसी आपदा, किसी नरसंहार के बाद आते और उनका भला करने के बजाय बुत करके चले जाते हैं, दुबारा न लौटने के लिए दरअसल, अगर आपदाग्रस्त लोग पत्राकारों के सामने मुखर होकर अपनी व्यथा-कथा कहते है तो उनके जाने के बाद उनको स्थानीय सत्‍ताधरियों का कोपभाजन ही बनना पड़ता है यही कारण है कि लोग पत्रकारों के सामने मुहं खोलने से कतराते है। ऐसे में एैसा प्रतीत होता है कि आम नागरिक की अभिव्यक्ति की आजादी कहीं खो गई है। आश्चर्य नहीं कि आज मुख्य धारा के मीडिया में गरीबों के सवाल और मुद्दों के साथ-साथ उनके संघर्षों की खबरें गायब होती जा रही है। दूसरी ओर संपादकीय और पत्रकरीय मामलों में प्रबंधन की बढ़ती दखलंदाजी का नतीजा यह है कि पत्रकार यहाँ तक कि संपादक भी निश्चित अवधि के लिए अनुबंध पर आने लगे है। जो प्रबंधन, यानी मालिक की शर्तो पर चलना, उनके प्रति वफादार रहना, उनके विचारों वर्तावों के अनुरूप पेश आना उनकी सेवा-शर्तो का अनिवार्य हिस्सा हो गया है। बड़े अख़बार घराने रिपोर्टर और फोटोग्राफर के रूप में अस्थाई मज़दूर रखने लगे है कई जगहों कम वेतन पाने वाले प्रशिक्षु पत्रकारों को बरसों स्थाई नौकरी और तरीके का पद नहीं दिया जाता और उनसे मुख्य उपसंपादकों, समाचार संपादकों और सहायक संपादकों का काम लिया जाता है। एक नया चलन और देखने में आ रहा है कि अखबारी प्रतिष्ठानों में बिल्कुल नई उम्र के लड़के/लड़की भर्ती किए जा रहें है और उनसे नए तरीके की रिपोर्टिंग कराई जाती है और उनकी लाई ख़बरों को विशेष तरजीह दी जाती है, यह चलन अख़बारों में आम हो गया है कि वह नौजवानों से संबंधित सामग्री देकर उनकी जीवन शैली को बदलने की कोशिश कर रहे हैं।

इन प्रतिष्ठानों में बैठे युवा रिपोर्टरों और समाचार संपादकों को देशे के इतिहास और उसके सामाजिक यथार्थ का कोई ज्ञान नहीं हैं लेकिन यह फैशनशों की रिपोर्ट लिखने नामचीन हस्तियों के साक्षात्कार करने उनके व्यक्तित्व लिखने विश्वविद्यालय महाविद्यालय परिसरों की खबरें देने और शहर के नए-नए रेस्तराओं की जानकरी देने में पूरी तरह सक्षम होते हैं, उनकी भाषा फिसलन भरी और गलत होती है और आजकल के अख़बारों की प्रूफ रीडिंग का स्तर बहुत ही खराब है इन सबसे उस पीढ़ी का रवैया स्पष्ट झलकता है जो आसय कमाई की दीवानी है। कपड़ा-नीति जैसे विषयों पर डूबकर लिखने के लिए आवश्यक गंभीरता और अनुभाव का नितांत अभाव है फिर भी वह मीडिया प्रतिष्ठानों की मुनाफा-कमाओं नीति के साथ आसानी से संतुलन बना लिए हैं मुक्त बाजार के दौर में किस तरह कॉरपोरिट धराने मीडिया और लोकतंत्र को चला रहे है इसकी बानगी हमें पिछले लोकसभा और विधान सभा चुनाव में मिल चुकी है।

व्यावसायिक प्रतिस्पर्था के इस युग में कहीं न कहीं मीडिया उद्देश्य से विचलित होता दिखाई दे रहा है। भारत में पत्रकारिता की संकल्पना जनहित को को मूल में रखकर की गई थी स्वतंत्रता संग्राम में मीडिया की भूमिका की गहन छानबीन से इस बात की पुष्टि होती है कि पत्रकारिता किसी व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति से परे भारत की आजादी और उसके नवनिर्माण को समर्पित थी। इसी वजह से तत्कालीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं की बागडोर स्वतंत्रता सेनानियों के हाथ में थी। परंतु आज पत्रकारिता का परिदृष्य पूरी तरह से बदल चुका है यह मिशन से प्रोफेशन हो चुकी है। प्रिन्ट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों ही कारपोरेट कल्चर में पूरी तरह से रंग चुके हैं। समाचार के तत्वों में प्रमुख है सत्यता और विश्‍सनीयता। इससे समझौता करने का मतलब है कि मीडिया अपने मूल कर्तव्यों से विमुख हो रहा है। मीडिया ही एकमात्र ऐसा स्तंभ है जिसकी जन-जन में साख और विश्‍सनीयता बरकरार है। लेकिन जब जन पर धन को वरीयता दी जाएगी तो  लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ के नाम से अलंकृत मीडिया को भी सवालिया कठघरे में खड़ा होना पड़ेगा।

देश में मीडिया के भ्रमभगं का दौर शुरू हो चुका है। सवाल उठने लगे है। कि मुख्य धारा के मीडिया की संरचना क्या है। वह किसके हित और कब्जे में है। प्रभावशाली लोग कैसे उसका इस्तेमाल करते है। कोई खबर पाठकों या दर्शकों तक किस तरह पहुँचती है। एक तरफ से कॉरपोरेट मीडिया की पहचान स्वार्थी और मुनाफाखोर के तौर पर होने लगी हैं, ये बात भी छुपी नहीं रही कि मिथकीय पेशेगत पवित्रता की आड़ में यहां बहुत कुछ होता रहा है।

महिला अधिकार और मीडिया

महिला अधिकार और मीडिया

भारत को स्वतंत्र हुए 63 वर्ष हो चुके हैं। किसी भी देश की कानून-व्यवस्था के लिए 63 वर्ष कम नहीं आंके जा सकते। इसके साथ-साथ भारत के संविधान को भी 58 साल बीत चुके हैं। भारत के संविधान में दी गई गारंटी एवं निहित वादों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को जीने, स्वतंत्रता, समानता एवं निजी गरिमा के अधिकार विशेष रूप से प्रदान किए गए हैं। मानव अधिकार वह मूलभूत अधिकार है, जो मनुष्य को जन्म से ही मानवोचित होने के कारण प्रदान किए जाते हैं। सरकार बिना किसी विशेष परिस्थिति के इन अधिकारों को छीन नहीं सकती है। मनुष्य स्वभावतः अधिकारों के उपभोग करने का अभ्यस्त रहा है। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि वह अधिक से अधिक अधिकारों से युक्त हो। इस प्रकार अधिकारों की जड़ें अत्यंत गहरी हैं। ‘‘अधिकारों की उत्पत्ति का श्रेय इंग्लैंड के मैग्नाकार्टा को जाता है। मैग्नाकार्टा के अतंर्गत सन् 1215 में सम्राट् जॉन से इंग्लैंडवासियों ने अपने मूल अधिकार प्राप्त किये। जिससे सन् 1689 में ‘बिल ऑफ राइटस’ अस्तित्व में आया।’’
‘बिल ऑफ राइट्स’ के अस्तित्व में आने के बाद सन् 1789 में फ्रांस ने मूल अधिकारों की घोषणा की। 20वीं शताब्दी से पूर्व द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका के कारण जनसमूह को अत्यधिक शारीरिक क्षति एवं वेदना को सहन करना पड़ा। इस तरह की पुर्नावृत्ति को रोकने के लिए मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को अंगीकार किया गया। 24 अक्टूबर 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ के गठन के बाद ‘लीग ऑफ नेशन्स’ के वृहत राष्ट्र सोवियत रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और ग्रेट ब्रिटेन आदि देशों ने मानवाधिकारों से संबधित पृथक-पृथक चार्टर तैयार करके उन पर हस्ताक्षर किए।
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति एवं विश्व स्तर पर शांति स्थापित हेतु तथा मानवीय मूल्यों को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए ’‘संयुक्त राष्ट्र की महासभा में प्रस्ताव संख्या 217ए (iii) द्वारा 10 दिसम्बर 1948 को मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा का उद्बोधन किया।’’ यही कारण है कि 10 दिसम्बर को सम्पूर्ण विश्व में ‘मानवाधिकार दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
 अन्तरराष्ट्रीय घोषणा पत्र में गरिमायुक्त जीवन - यापन के लिए ‘मानवाधिकार घोषणा पत्र’ 1948 में निम्नलिखित बिन्दुओं को उल्लेखित किया गया है-
•प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र पैदा होते हैं इसलिए प्रतिष्ठा एवं अधिकारों में भी समान हैं।
•प्रत्येक व्यक्ति में अपनी तर्क शक्ति एवं विवेक का गुण होता है। इसलिए उनके साथ पारस्परिक बन्धुत्व का व्यवहार होना चाहिए।
•प्रत्येक मुनष्य को जीवन, स्वतंत्रता तथा सुरक्षा का अधिकार है।
•न्यायालय के समक्ष सभी व्यक्ति समान होंगे।
•किसी भी मनुष्य को दास या गुलाम बनाकर नहीं रखा जाएगा।
•किसी भी मनुष्य के साथ अमानवीय व्यवहार नहीं किया जायेगा और न ही क्रूरतम दण्ड दिया जाएगा।
•प्रत्येक व्यक्ति को भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होगी।
•प्रत्येक व्यक्ति को स्वेच्छा से भ्रमण, शांतिपूर्ण सम्मेलन, व्यावसाय, वृत्ति अथवा किसी भी प्रकार का पेशा चुनने की स्वतंत्रता होगी।
•सभी व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास के लिए समुचित अवसर उपलब्ध होंगे।
•सभी व्यक्ति को शिक्षा पाने का अधिकार होगा तथा प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य एवं निःशुल्क दी जायेगी।
•प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सम्पत्ति बनाने का पूर्ण अधिकार होगा।
•अभियुक्त को तब तक निर्दोष समझा जाएगा जब तक कि उसके खिलाफ दर्ज आरोप साबित नहीं हो जाते।
•प्रत्येक व्यक्ति को सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर प्रदान किये जाएंगे।
•किसी भी व्यक्ति को मनमाने ढंग से गिरफ्तार नहीं किया जायेगा।
•सभी व्यक्ति को समान कार्य के लिए समान वेतन प्राप्त होगा।
•वयस्क पुरूष एवं स्त्रियों को राष्ट्रत्व तथा धर्म के बिना विवाह करने तथा कुटुम्ब स्थापित करने का अधिकार होगा।
•प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारों का उपयोग एवं स्वतंत्रताओं का उपभोग इस तरह करेगा जिससे किसी अन्य व्यक्तियों के अधिकारों एवं उसकी स्वतंत्रता बाधित न हो।
मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणों के साथ-साथ भारत के संविधान में भी मानव को निम्न अधिकार प्रदान किए गये हैं-
भारतीय संविधान में मौलिक मानवाधिकार
भारत में मूल अधिकारों की मांग सर्वप्रथम, संविधान संशोधन विधयेक 1985 के माध्यम से की गई, जिसे भारतीय संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक शामिल किया गया है। मूल अधिकारों की कुल संख्या पूर्व में 7 थी जो कि वर्तमान में 6 है। सम्पत्ति के अधिकार को 1979 में 44वें संशोधन द्वारा हटा दिया गया है। भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार निम्नलिखित हैं-
1. समता का अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18)  इसके अन्तर्गत निम्नलिखित अधिकार सम्मिलित होते है-
•विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण का अधिकार (अनुच्छेद 14)
•धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग, जन्म का स्थान, के आधार पर विभेद का प्रतिषेध (अनुच्छेद 15)
•लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता (अनुच्छेद 16)
•अस्पृश्यता का अंत (अनुच्छेद 17)
•उपाधियों का अंत (अनुच्छेद 18)
2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22)  वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार का स्थान मूल अधिकारों मंे सर्वोच्च माना जाता है। स्वतंत्रता के अधिकार निम्नलिखित प्रकार के होते है -
•वाक् स्वातंत्र्य विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण (अनुच्छेद 19)
•अपराधों के लिए दोष सिद्ध के संबंध में संरक्षण (अनुच्छेद 20)
•प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण (अनुच्छेद 21)
•कुछ दशाओं में गिरफ़्तारी और निरोध से संरक्षण (अनुच्छेद 22)
3. शोषण के विरूद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 से 24)  शोषण के विरूद्ध अधिकार निम्नलिखित हैं-
•मानव के दुव्र्यापार और बलात श्रम पर रोक (अनुच्छेद 23)
•कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध (अनुच्छेद 24)
4. धर्म स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28)  इस अधिकार के अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति को अग्रलिखित अधिकार प्रदान किए गए हैं-
•अन्तःकरण की स्वतंत्रता और धर्म के अबाध रूप में मानने और प्रचार करने की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25)
•धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 26)
•किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करो के संदाय के बारे में स्वतंत्रता (अनुच्छेद 27)
•कुछ शिक्षा - संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 28)
5. सांस्कृतिक और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29 से 31)  भारत के संविधान में सांस्कृतिक और शिक्षा संबंधी अधिकार निम्न हैं-
•अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण (अनुच्छेद 29)
•अल्पसंख्यकों को शिक्षा संस्थानों की स्थापना और उनके प्रशासन का अधिकार (अनुच्छेद 30)
•1978 में सम्पत्ति के अधिकार का विलोपन कर दिया गया है (अनुच्छेद 31)
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32 से 35)  मूल अधिकार के रूप में संवैधानिक उपचारों का अधिकार निम्न हैं-
•मौलिक अधिकारों को न्यायालय में प्रवर्तित कराने का अधिकार। इसके तहत न्यायालय 5 प्रकार की रिट जारी कर सकता है (अनुच्छेद 32)
•संसद द्वारा मूल अधिकारों के उपांतरण की शक्ति (अनुच्छेद 33)
•संसद विधि द्वारा मार्शल लॉ के प्रवर्तन के दौरान मूल अधिकारों के उल्लंघन की क्षतिपूर्ति (अनुच्छेद 34)
इसके साथ ही भारतीय संविधान में लिंग के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को निषेध किया गया है। ‘भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51(1) में मौलिक कत्र्तव्यों के अंतर्गत महिलाओं के प्रति सम्मान का विवेचन किया गया है। महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए बहुत से वैधानिक उपायों को उपबंधित किया गया हैं। यथा विशेष विवाह अधिनियम (1954), पारिवारिक न्यायालय अधिनियम (1954), दहेज निषेध अधिनियम (1961)। दहेज निषेध अधिनियम को 1984, 1986 में संशोधित किया गया। इसके अतिरिक्त बाल विवाह अधिनियम (1929, संशोधित- 1976), मेडिकल टमिनेशन ऑफ प्रैगनैंसी एक्ट (1971), समान पारिश्रमिक अधिनियम (1976), परिवार अधिकरण अधिनियम (1984), महिलाओं के अश्लील चित्रण पर रोक संबंधी अधिनियम (1986), बाल मजदूरी (प्रतिबंध तथा नियमन) अधिनियम (1986), सती निवारण अधिनियम (1987), प्रसव पूर्ण निदान सूचक तकनीक (1994), 73वां तथा 74वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम (1993), एवं घरेलू हिंसा अधिनियम, (2006) आदि महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने तथा उन्हें सशक्त बनाने के दृष्टिकोण से समय-समय पर पारित किया गया है। वर्ष 2006 में पारित ‘घरेलू दमन’ हिंसा कानून महिलाओं की हर प्रकार से शोषण, उत्पीड़न, दमन, हिंसा व अत्याचार से रक्षा के लिए बनाया गया है।’’ इन सभी कानूनों का मुख्य उद्देश्य समाज में महिलाओं की स्थिति को दृढ़ करना तथा उन्हें सम्मान एवं प्रतिष्ठा का उचित स्तर उपलब्ध कराना है।
मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषण, 1948 के सभी अधिकार महिला तथा पुरूष दोनों को समान रूप से प्राप्त है। जिसको इस प्रकार उल्लेखित किया गया है-
•लिंग के विभदे का अधिकार (अनच्छेद 2)
•विधि के समक्ष समान तथा समान संरक्षण का अधिकार ( अनच्छेद 7)
•वयस्क पुरूष तथा महिलाओं को बिना किसी भेदभाव के विवाह करने का अधिकार (अनच्छेद 16(1))
•विवाह के लिए इच्छुक पक्षकारों को स्वतंत्र और पूर्ण सहमति से विवाह करने का अधिकार (महिलाएं विवाह के लिए अपने माता-पिता अथवा अन्य व्यक्तियों पर निर्भर नहीं है (अनच्छेद 16(2))
•समान कार्य के लिए समान वेतन का अधिकार (अनच्छेद 23(2))
•विधवा महिलाओं को जीविकोपार्जन के अभाव में संरक्षा का अधिकार (अनच्छेद 25(1))
•मातृत्व विशेष देखभाल और सहायता का अधिकार (अनच्छेद 25(2))
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में महिलाओं के सामने सबसे बड़ी समस्या अपने अधिकारों को पाने तथा अधिकारों के हनन व अत्याचारों को रोकने की जद्दोजेहद में जीवन यापन की हैं। महिलाओं की स्थिति को देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि महिलाओं की स्थिति क्या है? महिलाओं को महिला होने के कारण तथा समाज के विशिष्ट वर्ग से संबंध रखने के कारण महिलाओं को दोहरे शोषण का शिकार होना पड़ता है। महिलाएं आज उपभोक्ता, मैनेजर, वकील, डॉक्टर जैसे बहुआयामी भूमिकाएं निभा रही हैं परन्तु, अधिकतकर महिलाओं के कार्यों को सरल तथा महत्वहीन समझा जाता है। आज पग-पग पर वे तिरस्कृत, असुरक्षित एवं उत्पीड़ित हो रही हैं। महिलाओं पर जितने कहर वर्तमान समय में ढाये जाने लगे हैं, उतने कभी नहीं ढाये गये। महिला उत्पीड़न की घटनायें द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ रही हैं। महिलाओं को आये दिन अपहरण, छेड़छाड़, दहेज उत्पीड़न/ दहेज -हत्या, भू्रण हत्या, वेश्यावृत्ति और बलात्कार से रूबरू होना पड़ रहा है। गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार ‘‘देश में प्रति 47 मिनट में एक नारी के साथ बलात्कार होता है। उल्लेखनीय है कि समाज की दृष्टि में पतित होने के भय से अधिकांश प्रकरण पंजीकृत ही नहीं किये जाते। दुर्भाग्यवश ये अधिकांश अपराध (लगभग 70 प्रतिशत) राजस्थान, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मध्यप्रदेश तथा बिहार राज्यों (हिंदी भाषी क्षेत्रों में ) होते हैं।‘’
आज सभ्य और शिक्षित समाज में जब नारी अधिकारों के विभिन्न प्रयास हो रहे हैं। सभी स्त्री पहले से अधिक जागरूक हो गयी हैं। हालांकि, आज भी बलात्कार की घटनाएं पुरजोर पर हैं। पुरूष अपने को स्त्री से श्रेष्ठ और शक्तिशाली मानता है और उस आक्रमण के योग्य और भोग्या मानता है। दरअसल हमारे समाज ने नैतिकता की रक्षा का पूरा बोझ महिलाओं पर ही डाल रखा है। पुरूष के लिए नैतिकता जैसे मूल्यों का कोई विधान नहीं है। इस असन्तुलित और पक्षपात-धारणा के कारण ही बलात्कार से उत्पन्न सभी प्रतिकूल प्रभाव स्त्री पर ही होते हैं। स्त्री में दोष देखने और पुरूष को दोष मुक्त रखने का हमारा दृष्टिकोण हमारे पुरूष प्रधान समाज की विरासत है। समाज के नैतिक बंधनों और मर्यादाओं में ह्रास के कारण बलात्कार जैसे अपराधों में वृद्धि हो रही है। बलात्कार एक ऐसा अपराध है, जिसमें हमारे असन्तुलित तथा तर्कहीन सामाजिक दृष्टिकोण के कारण अपराधी पुरूष नहीं, अपराध की शिकार स्त्री को सामाजिक प्रताड़ना और लज्जा सहना पड़ता है। और, उसका समाज में जीना मुश्किल हो जाता है।
स्वतंत्रता के पांच दशकों के इतिहास का यदि अवलोकन किया जाये, तो पायेंगे कि स्वतंत्रता का प्रयोग जितना पुरूषों ने किया है, उतना महिलाओं ने नहीं। क्या आज उसको समाज में समानता की वह स्थिति प्राप्त है, जिसका दावा हमारा समाज करता है? क्या भारत के राजनैतिक विकास में महिलाओं की भागीदारी उतनी है जितनी होनी चाहिए? क्या स्वतंत्रता के 63 वर्षों में महिला नेतृत्व तथा प्रतिनिधित्व की एक सशक्त पीढ़ी उभरकर सामने आयी है? दुर्भाग्य से समस्त प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक हैं।
आज महिलाएं मीडिया की ओर आशा भरी निगाहों से देख रही हैं, जबकि मीडिया लोलुप दृष्टि से। मीडिया अपनी चमक को और चमकीला बनाने के लिए नारी का उपभोग करता है, जबकि स्त्री अपनी वजूद को साबित करने के लिए मीडिया का उपयोग करने के वास्ते प्रतीक्षरत है। इस जुगलबंदी में मीडिया की नयम और उसका वर्तमान तो काफी हद तक स्पष्ट है, लेकिन स्त्री की मंशा और उसकी ऐतिहासिक स्थिति इससे काफी जटिल है। आंकड़ों की बात करें तो आधुनिक विश्व में सामजिक स्तर पर क्या विकसित, क्या विकासशील और क्या अविकसित सभी देशों में थोड़े बहुत हेरफेर के साथ महिला को पुरूष की तुलना में दोयम दर्जे का ही नागरिक माना जाता है। और, इसी आधार पर उनके साथ होने वाला व्यवहार और उत्पीड़न प्रायः सार्वभौमिक हैं। इसी दृष्टि से समूची दुनिया की महिलाओं के दुख, समस्याएं और परिस्थितियां लगभग एक जैसी है। पुरूष प्रधान समाज में महिला को अवर श्रेणी मंे रखना ही पुरूष के स्वामित्व और वर्चस्व को इंगित करता है। आधुनिक समाज में लगभग समस्त आर्थिक और सामाजिक जरूरतें पुरूष के अधीन हैं। ‘‘अनंत काल से पुरूष स्त्री पर अपना आधिपत्य जमा रखा है।’’ इस प्रकार पुरूष स्वयं को अधिकृत समझता है जबकि महिलाओं को अपने ऊपर अरक्षित।
भारतीय संस्कृति में पुरूष रक्षकों का एक ऐसा वर्ग है, जो स्त्री को अतिरंजित करके देवी की हद तक पहुंचाने और पूज्य सिद्ध करने का ढोंग करता है। महिलाओं की आकंक्षा बराबरी का मनुष्य माने जाने की है। हालांकि, स्त्री को मनुष्य की तत्सम इकाई न मानकर दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। इसी के चलते कहीं स्त्री को अबला, तो कहीं- कहीं एक मर्द के बराबर दो औरत तौली जाती है। पुरूष की ऐसी सोच ही महिला को निजी संपत्ति मानता है। आज स्त्री में मनुष्यबोध जाग्रत हो उठा है, वह अपनी निजता के प्रति सजग हुई है। और, पुरूष के बराबर ही स्वीकार किए जाने की उसकी आकांक्षाएं भी बेसब्र हुई हैं। इसी बेसब्री का परिणाम है कि महिला किसी - न - किसी तरीके से मीडिया के दर्पण में खुद को देखने की अभिलाषा से व्यग्र है। मीडिया उसकी इसी व्यग्रता को भुनाने के लिए उसे विविध आयामों में दिखाने की मुनाफाखोरी में इतरा रहा है। यहां कभी महिला की लाचारियां हैं, कभी आंसू, कभी उसका प्रेम, कभी उस पर हिंसा, तो कभी उसकी देहयष्टि। महिला के जितने भी आयाम हैं, वे सब के सब मीडिया के बिकाऊ माल हैं। नए जीवन मूल्यों की स्थापना और अपनी अस्मिता को उत्कीर्ण कराने के लिए संघर्षरत् महिलाओं का अवमूल्यन मीडिया का मुनाफा और शगल है, तो दूसरी ओर विकासमान समाज के लिए हैरतअंगेज!
आज की महिला अपने स्त्रीत्व के साथ वह सब कुछ  करके  अपनी दक्षता प्रमाणित कर रही है, जिस पर पुरूष वर्ग अपना एकाधिकार समझता रहा है। इससे पारंपरिक सोच के ढांचे में कैद समाज को कड़ी चुनौती मिल रही है। और, स्त्रियों पर हिंसा के आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं। घर हो या कार्यक्षेत्र- दोनों जगह स्त्रियों के उत्पीड़न लगभग एक जैसे होते हैं।
आधुनिक महिला समाज की आजादी के सपने देख रही है। मीडिया महिलाओं के अधिकारों तथा उन पर हो रहे अत्याचारों के मुद्दों को लेकर कोई स्तंभ स्थायी रूप से नहीं निकालता है। कोई लेख या इस तरह की सामग्री आती है, तो वह पूरक रूप में। महिला मुद्दों को लेकर कोई गंभीर और व्यापक प्रभाव डालने वाला प्रयास मीडिया में दिखाई नहीं देता है। जबकि, महिला से जुड़े तमाम मुद्दों को उठाया जा सकता है। मसलन ‘‘स्त्रियों की समस्याओं को उठाया जा सकता है। समाज में आज भी स्त्रियां असमानता, हिंसा, शोषण तथा पुरूष मानसिकता की शिकार होकर यातना झेलती हैं। कामकाजी स्त्रियों को दोहरी जिम्मेदारी निभानी पड़ती हैं। घर और बाहर की जिम्मेदारियों का निर्वाह करती स्त्री के सामने नई-नई समस्याएं आती हैं, जिनका सामना उसे करना पड़ता है। दहेज प्रथा के बारे में बात करना अब घिसी-पिटी बात लगती है, परन्तु व्यावहारिक तौर पर आज भी स्त्रियों को दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाता है, जलाया जाता है। महिलाओं को अपने लिए अपनी अस्मिता व आत्मसम्मान के लिए लगातार संघर्ष करना पड़ रहा है। जितनी वह आगे बढ़ी हैं, स्वाधीन हुई हैं, उतनी ही असुरक्षित भी हुई हैं। उसे आर्थिक ही नहीं,दैहिक तथा मानसिक शोषण का भी शिकार होना पड़ रहा है।’’
भारतीय पत्रकारिता ने नारी अस्मिता का जितना मजाक उड़ाया है, उतना शायद और किसी ने नहीं। कोई भी ऐसा दिन नहीं जाता, जब महिला से बलात्कार की खबर किसी दैनिक में न छपती हो। खोजी पत्रकार तुरंत-फुरंत महिला के अनगित चित्र छाप देते हैं। अब, मीडिया जो ‘‘ बिकेगा वही छपेगा’’ के सिद्धांत पर चल रहा है। मीडिया की आलोचना इस बात को लेकर ज्यादा होती है कि वह मीडिया विषयक विशेषकर घरेलू हिंसा और सेक्स अपराध की घटनाओं का खुलासा महिलाओं के संरक्षण से ज्यादा उनके खबरों में दर्शकों को रस देने की दृष्टि से ज्यादा कर रहा है। इस स्थिति पर भी लगाम कसने की जरूरत है। महिलाओं के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के लिए जो उपक्रम मीडिया कर सकता है, परन्तु ‘‘सभ्य समाज की ही तरह मीडिया भी इन औरतों से एक तरह का परहेज करता है, इनके स्वास्थ्य, रहन-सहन, मानवाधिकारों की चर्चा से हर अखबार -चैनल- पत्रिका बचना चाहते हैं। अगर कभी इनके हक या परिस्थितियों की बहसें शुरू होती भी हैं, तो उन खबरों, मुद्दों का फालोअप शायद ही मीडिया कभी करता है।’’
वस्तुतः मीडिया आज संक्रमण के दौर में है। अपने कंटेंट और प्रस्तुति के स्तर पर वह आज कई घटकों से संचालित हो रहा है, प्रभावित हो रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीति, प्रशासन और भ्रष्टाचार के घातक त्रिभुज ने मीडिया को बुरी तरह से जकड़ लिया है। महिलाओं के संबंध में मीडिया के नजरिये में आए बदलाव के कारण को जानने के लिए हमें स्च्ळ के नतीजों को खंगालना आवश्यक हो जाता है। वैसे भी समाज की लेखनी यहां आकर कमजोर पड़ जाती है और वह किसी अन्य पहलु की तलाश में लग जाती है। और, आधुनिक नारी विमर्श, आंदोलन के रूप में सिमट कर रह जाता है।
सदंर्भ:-
1.बाबेल, डॉ. बसन्ती लाल - मानवाधिकार- पृ. 14
2.शर्मा, डॉ. शिवदत्त - मानवाधिकार- पृ. 42
3.बिसवाल, डॉ. तपन - मानवाधिकार जेंडर एवं पर्यावरण - पृ. 61
4.गृह मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली
5.तिवारी, डॉ. आर. पी. एवं डॉ. डी.पी. शुक्ला- भारतीय नारी: वर्तमान समस्यायें और भावी समाधान- पृ. 29।
6. मार्च 4-11, 1995 राष्ट्रीय सहारा, समाचार पत्र
7.भट्ट, संदीप- वंचित स्त्रियों का विमर्श और मीडिया - पृ. 57

घरेलू हिंसा का समाजशास्त्र


घरेलू हिंसा का समाजशास्त्र



प्राचीन भारत में पितृसत्तात्मक युग से पहले मातृसत्तात्मक युग था। नारी शक्ति की परिचायक हुआ करती थी। यह पाषाण युग के बाद का काल था।1 लेकिन सहस्त्राब्दियों के बाद नारी के जीवन में बदलाव आने लगा और नारी पर धीरे-धीरे पुरूषों का अधिपत्य स्थापित होने लगा। मातृसत्ता की समाप्ति और पितृसत्ता के उदय ने नारी के जीवन को पूर्णतः बदलकर रख दिया। उनके अधिकारों का दोहन शुरू हो गया था। वैसे महिलाएं शारीरिक रूप से अपेक्षाकृत कमजोर होती हैं इसलिए पुरूष जब-तब उन्हें ताकत के बल पर झुका लेना चाहता है। औरतों को घर के बाहर तो शारीरिक उत्पीड़न का शिकार होना ही पड़ता है लेकिन घर के भीतर भी वे सुरक्षित नहीं हैं। घर के भीतर महिलाओं को पति के हाथों पिटना पड़ता है। यह किस्से -कहानियों की बात नहीं है कि कुछ पति अपनी पत्नियों को जानवरों की तरह मारते-पीटते हैं। यह निम्न वर्ग के अशिक्षित लोग ही अपनी पत्नियों को मारते-पीटते हैं तो यह गलत है। सच्चाई तो यह है कि उच्च शिक्षित अत्याधुनिक युवतियां भी घरेलू हिंसा का शिकार होती है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि, ‘‘घरेलू हिंसाएक प्रकार की अनचाही बलि है जो पत्नी के साथ मारपीट करने, उसकी हत्या करने उसे पागल घोषित करने या छोड़ देने, तलाक देने या किसी स्थान पर बंदी बनाने की घटनाओं के रूप में दिखायी देती हैं। घरेलू हिंसामें घमकी देने के रूप में महिलाओं को घूरकर और इशारे से डराया धमकाया जाना  एवं उसकी सम्पत्ति नष्ट किए जाना आदि है।’’2

अक्सर ऐसा होता है कि पति-पत्नी के बीच किसी बात को लेकर विवाद पैदा हो जाता है। विवाद कभी-कभी इतना बढ़ जाता है कि पुरूष हिंसक हो उठता है और वह अपनी पत्नी को लात-घूंसों से पीटने लगता है। चूंकि महिलाएं शारीरिक रूप से पुरूषों के मुकाबले कुछ अक्षम हैं इसलिए पारिवारिक हिंसा का शिकार सदैव औरतें ही होती हैं। घरेलू हिंसाकिसी एक देश या समाज तथा सीमित नहीं बल्कि दुनिया भर की औरतें घरेलू हिंसाका शिकार होती है। निम्न वर्ग के लोग भी घर में औरतों को पीटते है तो उच्च शिक्षित औरतें भी घरेलू हिंसा अभिशप्त हैं। और तो और कामकाजी महिलाओं को घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है, पति के हाथों पिटना पड़ता है।

       ‘‘विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बड़े पैमाने पर किए गए अध्ययनों के आधार पर दोनों प्रकार के देशों - औद्योगिक रूप से विकसित और विकासशील देशों में घेरलू हिंसा भड़कने के कारण की एक सूची तैयार की है जो इस प्रकार है’’3 -

§  पुरूषों की आज्ञा न मानना

§  उलटकार बहस करना या जवाब देना

§  वक्त पर खाना तैयार न होना

§  घर के बच्चों की ठीक से देखभाल न करना

§  पुरूषों से घन या गर्ल फ्रेंड्स के बारे में पूछताछ करना

§  पति की अनुमति के बगैर कहीं चले जाना

§  पुरूषों को सेक्स के लिए मना करना

§  पुरूषों को पत्नी पर विश्वासघाती होने का संदेह

लगभग सभी वर्ग और सभी सभ्यताओं में महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हैं। यह बात महिला के व्यक्तित्व पर बेहद प्रतिकूल प्रभाव डालती है क्योंकि इसके कारण महिलाओं को अपना अस्तित्व खतरे में नजर आने लगता है। घरेलू हिंसा का सीधा-सा अर्थ घर के भीतर महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा और मार-पिटाई से है। घरेलू हिंसा के कई आयाम हैं आमतौर पर घरेलू और वैवाहिक हिंसा को एक दूसरे का पर्याय माना जाता है। वास्तव में ऐसा नहीं है इन दोनों के बीच में एक बारीक-सा अंतर है। घरेलू हिंसाएक व्यापक शब्द है जिसे पारिवारिक हिंसा भी कहते है। इसमें सास, ससुर, देवर, जेठ, नंनद आदि द्वारा स्त्री(बहू) को सताना और मारना-पीटना भी शामिल है। घरेलू हिंसा कानून को बने पांच साल से भी ज्यादा का समय हो चुका है। पर अब तब तस्वीर साफ नहीं हुई है कि इस कानून के तहत देश भर में कितने मामले दर्ज किए गए है। पर 2009 में जारी तीसरे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में यह बात निकलकर सामने आई है कि ‘‘तकरीबन 40 फीसदी महिलाएं रोजाना अपने पतियों से पिटती हैं।’’4

घरेलू हिंसा के बारे में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, ‘‘हिंसा के विरूद्ध शिकायत करने वाली महिलाओं में 12 प्रतिशत महिलाएं दहेज के कारण प्रताड़ना की शिकायत करने वाली होती है।’’5  घरेलू हिंसापर काम कर रहे इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वीमेन की संचालनात्मक अनुसंधान परामर्शदाता सुश्री नंदिता भाटला ने अपने एक लेख में कैई चैकाने वाले तथ्य दी कि, ‘‘महिलाओं के विरूद्ध हिंसा के अखिल भारतीय आंकड़े बेहद खतरनाक प्रवृत्ति का संकेत दे रहे हैं- पिछले पांच साल में ने केवल महिलाओं के विरूद्ध अपराधों में वृद्धि हुई है, बल्कि उत्तरोत्तर अपराधों की संख्या में वृद्धि हुई है। घर के अंदर भी महिलाओं के विरूद्ध घरेलू हिंसा में अत्यंत नाटकीय बढ़ोतरी हुई है। घरेलू हिंसा के मामले में महिलाओं के विरूद्ध हिंसा करने वाले उनके पति और रिश्तेदार शामिल होते हैं। महिलाओं पर घर में हिंसात्मक प्रहार करने वालों में इन लोगों की संख्या सबसे अधिक है।’’6

इंडिया सेफस्टडी द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार, ‘‘घरेलू हिंसा पूरे भारत में वर्ग, जाति शिक्षा और रोजगार के स्तर से परे व्यापक रूप से फैली हुई है। अध्ययन से ज्ञात हुआ कि 58 प्रतिशत महिलाओं ने पति द्वारा उन पर की जा रही हिंसा को स्वीकार तो किया पर साथ ही यह भी कहा है कि वे उसके साथ इन मान्यता के आधार पर रह रही हैं, क्योंकि विवाहित जीवन में हिंसा की घटनाएं आम बात होती है।’’7

‘‘भारत एक ऐसा देश हैं जहां हर साल महिलाओं के विरूद्ध अपराध के 1.5 लाख मामले दर्ज किए जाते हैं।’’8 राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण कार्यक्रम में घरेलू हिंसा के संबंध में चैकाने वाले आंकडे़ं पेश किये। सर्वेक्षण में 37.2 प्रतिशत महिलाओं ने स्वीकार किया कि विवाह के बाद पति के हिंसात्मक आचरण का शिकार हुई। विवाहित महिलाओं के विरूद्ध की जाने वाली हिंसा के मामलों में बिहार सबसे आगे है जहां 59 प्रतिशत महिला घरेलू हिंसा की शिकार हुई, उनमें से 63 प्रतिशत शहरी इलाकों से थे। दूसरे राज्यों की स्थिति बहुत ठीक नहीं है। मध्य प्रदेश में 45.8, राजस्थान में 46.3, मणिपुर में 43.9, उत्तर प्रदेश में 42.4, तमिलनाडु में 41.9 तथा पश्चिम बंगाल में 40.3 प्रतिशत विवाहित महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा हुई।

घरेलू हिंसाएक विश्व व्यापी समस्या है और दुनिया भर की महिलाएं किसी-न-किसी रूप से इसका शिकार हैं। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोश की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 15 से 49 वर्ष की 70 फीसदी महिला किसी-न-किसी रूप से कभी-न-कभी घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत में घरेलू हिंसा के मामले में 53 प्रतिशत की दर बढ़ रहे हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी) की धारा 498ए के अंतर्गत दर्ज मामले (पति और रिश्तेदारों द्वारा अत्याचार व क्रूरता) के होते है।

घरेलू हिंसा को रोकने के लिए भारत सरकार ने सन् 2006 के अंत में घरेलू हिंसा निषेध कानून, 2005’ को लागू करने संबंधी अधिसूचना जारी की जिससे यह कानून पूरे देश में लागू हो गया है।‘‘9 महिलाओं का घरेलू हिंसा से संरक्षण विधेयक, 2005 को लोकसभा द्वारा 24 अगस्त, 2005  और राज्यसभा द्वारा 29, अगस्त, 2005 को पारित किया गया। 25 अक्टूबर का दिन देश की महिलाओं ने लिए कोई सामान्य दिन नहीं था। वह भारत में वैवाहिक मामलों के लिए बेहद महत्वपूर्ण दिन था। ‘‘उस रोज देश के राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने घरेलू हिंसा से संरक्षण कानून पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी। इस कानून के तहत वित्तीय अधिकारों की रक्षा करते हुए पहली बार घर में ‘‘अदृश्य हिंसा’’-शारीरिक यातना और गाली गलौज एवं यौन अत्याचार को दूर करने का प्रयास किया गया है।’’10 प्रारंभ में इस कानून के तहत महिलाओं को पति व बिना विवाह के साथ रह रहे पुरूष और रिश्तेदारों के हाथों हिंसा से बचाने की बात कहीं गयी थी लेकिन बाद में पति की मां, बहन तथा अन्य महिला रिश्तेदारों को भी इसके दायरे में ले लिया गया।

घरेलू हिंसा निवारण कानून एक महत्वपूर्ण कानून है और इसके द्वारा घरेलू हिंसा को प्रभावी तरीके से रोका जा सकेगा। इस कानून में निम्नलिखित कृत्यों को अपराध घोषित किया गया है।

§  महिला का शारीरिक, भावनात्मक, आर्थिक या यौन शोषण करना या इसकी धमकी देना।

§  महिला को ताने मारना।

§  पुरूष द्वारा घर में महिला के स्वास्थ्य, सुरक्षा जीवन और शरीर को कोई नुकसान या चोट पहुंचाना।

§  महिला को किसी प्रकार का शारीरिक या मानसिक कष्ट देना या ऐसा करने की मंसा रखना।

§  महिला का यौन उत्पीड़न

§  महिला की गरिमा व प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाना

§  बच्चे न होना या पुत्र न होने पर ताने मारना

§  महिला को अपमानित करना।

§  महिला की आर्थिक व वित्तीय जरूरतों को पूरा न करना।

§  महिला (पत्नी को ) शारीरिक संबंध बनाने या अश्लील चित्र आदि देखने को मजबूर करना।

§  सेक्स के दौरान ऐसा कृत्य जिससे पत्नी को चोट पहुंचती हो।

§  दहेज न लाने के लिए प्रताड़ित करना।

§  महिला या बच्चों को पीटना, धक्के मारना, घूंसे मारना।

§  महिला को आत्महत्या की धमकी देना।

इस कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करने को संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध माना जायेगा। दोषी पाए जाने पर एक साल की सजा या 12 हजार रूपये का जुर्माना या दोनों सजा साथ-साथ दी जा सकती है। कानून में पीड़ित महिलाओं की मद्द के लिए एक संरक्षण अधिकारी और गैर-सरकारी की नियुक्ति का प्रावधान है ये पीड़ित महिला की मेडिकल जांच, कानूनी सहायता, सुरक्षा व छत मुहैया कराने का काम करेंगे। इन कानून में घरेलू हिंसा को रोकने के लिए बेहद सख्त प्रावधान बनाये गये हैं। लेकिन कानून बना देना ही समस्या का समाधान नहीं है। कानून के बावजूद महिलाओं को घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है। इस कानून में यह प्रावधान किया जाये कि प्रत्येक जिले में कम-से-कम एक संरक्षण अधिकारी अवश्य नियुक्त किया जाये और कोशिश की जाये कि यह अधिकारी यथासंभव महिला ही हो, और इन अधिकारी द्वारा ग्रामीण और निम्न वर्ग की महिलाओं को इस कानून और इसके प्रावधानों के बारे में विस्तार से समझाया जाये ताकि वे घरेलू हिंसा निवारण कानून के लाभ को प्राप्त कर सके और घर में भी सिर उठकर सम्मानपूर्वक जीवन यापन कर सके।

संदर्भ ग्रंथ सूची

1- कादम्बिनी-मातृसत्तात्मक युग से अब तक नारी-नवंबर, 2009, पृ. 24

2- ममता, प्राक्कथन प्रो. आभा आहूजा- घरेलू हिंसा अधिकारों के प्रति महिलाओं की जागरूकता-   रीजनल  पब्लिकेशन, नई दिल्ली-2010, पृ. 15

3- देवसरे, विभा- घरेलू हिंसाः वैश्विक संदर्भ- आर्य प्रकाशन मंडल, दिल्ली- 2008, पृ. 124-125

4- पति से रोज पिटती हैं, चालीस फीसदी महिलाएं- बेवदुनियां, हिंदी- 26 अक्टुबर, 2008

5-देवसरे, विभा- घरेलू हिंसाः वैश्विक संदर्भ- आर्य प्रकाशन मंडल, दिल्ली- 2008, पृ. 113

6- वही,  पृ. 114

7- वही, पृ. 115

8- इंडिया टुडे- नए कायदे विवाह के- 6 दिसंबर, 2006, पृ. 20

9- अरोड़ा, सत्यार्थ- घरेलू हिंसा से महिलाओं का सरंक्षण अधिनियम, 2005- अरोड़ा बुक कम्पनी, मेरठ-2010, पृ. 8

10-इंडिया टुडे- नए कायदे विवाह के- 6 दिसंबर, 2006, पृ. 18