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Sunday, October 23, 2011

कांग्रेसी चुनावी जीत का इतिहास



कांग्रेसी चुनावी जीत का इतिहास

लोकतांत्रिक प्रणाली में जीत सतत सावधानी] सतत मेहनत और लोक कसौटी पर खरे उतरने से मिलती है। इसके बावजूद अगर हम कांग्रेस की चुनावी जीत का इतिहास पलटेंगे तो तसवीर खुद-व-खुद साफ होती नजर आयेगी कि सीटों की संख्या सरकार बना तो देती है, सरकार टिकाना उसमें एकदम भिन्न बात होती है।

सन्1951 के समय से गौर करें तो जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस को 44.0 फीसदसी वोट से 364सीटें मिली थीं। यह आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरू का सबसे मोहक व चमकीला सर्वण दौर था। इसके बावजूद भी कांग्रेस 50 फीसदी मत भी न ला सकी, जबकि लोकतंत्र बहुमत की बात करता है और बहुमत का मतलब है 51 फीसदी मत मिलना। जो कांग्रेस को आज तक नहीं मिलें।

संपूर्ण चुनाव का विश्लेषण करें तो सन् 1957 में 47.788फीसदी मत से कांग्रेस को मिलीं 371 सीटें। सन् 1962 में यह आंकड़ा 44.72 फीसदी के हिसाब से 361 सीटें। यह जवाहर काल का अंत था। इसके बाद सन् 1967 में कांग्रेस को 40.78फीसदी मत से 283 सीटें ही मिल सकी। सन् 1971 में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस तोड़ने का दांव खेला और अपने बल पर 43.68 फीसदी मत से 352 सीटें बटोर लायी। यह करीब-करीब जवाहरलाल नेहरू के समकक्ष का प्रदर्शन था। इसके बाद जो हुआ सब जानते हैं कि किसी प्रकार इंदिरा जी ने अपनी मनमानी का राजनीतिक खेल खेला। जो भारतीय परिदृश्य में पहले कभी नहीं देखा गया। सन् 1973-74 को 352 बहुमत वाली सरकार धराशायी हो गयी। सन्1977 के चुनाव में सब कुछ गवां कर कांग्रेस ने 34.52 फीसदी मतों से 154 सीटें ही ला सकीं। 352 सीटों वाली कांग्रेस जो पाठ नहीं पढ़ सकी, जनता पार्टी के मोरारजी देसाई भी नहीं पढ़ सकें और 1980 को फिर से चुनाव हुआ। 1977के परिणाम के मुगालते में रहने वाली जनता पार्टी इस बार ऐसी पिटी की पार्टी जैसी उसकी कोई हैसियत नहीं बची और इंदिरा गांधी 42.69 फीसदी मत से 353 सीटें पा गई।

इसके बाद सन् 1984 को हुई इंदिरा गांधी की शर्मनाक हत्या के बाद 1984 में दुवारा चुनाव हुए। जिसमें इंदिरा गांधी के सुपुत्र राजीव गांधी ने 49.01 फीसदी मतों से 404सीटों पर अपार बहुमत जुटा लिया। यह पहला अवसर था कि जब कोई पार्टी करीब-करीब 50फीसदी जैसा समर्थन जुटाने में कामयाब हो सकी। लेकिन 404 सीटों वाली राजीव गांधी की सरकार 1989 में हुए चुनाव के बाद 39.33 फीसदी यानी 197 सीटें ही जुटा सकी तथा गिरने से खुद को नहीं रोक सकी। 1991 में फिर राजीव गांधी की हत्या की लहर पर कांग्रेस सवार हुई तो 35.66 फीसदी मतों से 266 सीटें जमा कर ले गई। 1996 से 2004तक कांग्रेस 144 से 145 सीटों के बीच में घूमती रही। 1991 के बाद यह पहला मौका है कि कांग्रेस ने 200 सीटों की सीमा पर की है।

यह आंकडे बताते हैं कि सीटों की संख्या से सरकार की ताकत नहीं मापी जा सकती है। लोकतंत्र में आप आंकड़ों से जीतते हैं लेकिन आंकड़ों से जीत नहीं हैं। सवाल तो अब आगे खड़ा होता है कि भ्रष्टाचार और मंहगाई की मार झेल चुकी जनता आने वाले चुनाव में कांग्रेस को फिर से सरकार के रूप में चाहेंगी या फिर एक बार फिर से कांग्रेस को मुंह की खानी पडे़गी यह मेरे लिए एक शोध का विषय और कांग्रेस सरकार के लिए चिंता का विषय हो सकता है।
सभार
सबलोग] जुलाई] 2009

Thursday, October 20, 2011

मीडियानेट व प्राइवेट ट्रिटीज का मामला


                     मीडियानेट व प्राइवेट ट्रिटीज का मामला

यह कहा जा सकता है कि मुनाफे के पीछे भागने के कारण कुछ मीडिया संगठनों ने पत्रकारिता के उंचे सिद्धांतों व अच्छे कामकाज की शैली की बलि चढ़ा दी है। कुछ समस पहले तक इस तरह की चीजों में सिर्फ कुछ लोग लिप्त पाए जाते थे, जैसे कि रिपोर्टर व संवाददाताओं को नगद या अन्य तरह से लुभाया जाता था। उन्हें देश-विदेश में किसी कंपनी या किसी शख्स के बारे में अनुकूल खबरें छापने पर पैसा मिलता था पर हाल में ये सारी चीजें नियम न होकर अपवाद की तरह ही थीं। इस तरह की खबरें संदिग्ध समझी जाती थीं क्योंकि भले ही खबर पूरी तरह सही व वस्तुनिष्ठ होने का दावा करे पर जिस अंदाज से घटनाओं या व्यक्तियों के बारे में चापलूसी की जाती थी, वह आसानी से पकड़ में आ जाती थी। पत्रकारों की बाइलाइन सबसे उपर प्रमुखता से छपती थी। पर धीरे-धीरे इस तरह के निजी विचलनों ने संस्थागत रूप धारण कर लिया।

1980 के दशक में जब टाइम्स‍ ऑफ इंडिया समूह की पत्र-पत्रकाओं का प्रकाशन करने वाली कंपनी बेनेट कोलमैन कंपनी लिमिटेड (बीसीसीएल) में समीर जैन एक्जी्क्यूटिव हेड बने तभी से भारतीय मीडिया के कामकाज की शैली व नियमों में बदलाव आने शुरू हो गए। मूल्यों को तय करने में गलाकाट प्रतियोगिता के अलावा बीसीसीएल को देश का सबसे अधिक मुनाफे वाला मीडिया समूह बनाने के लिए मार्केटिंग का सबसे ज्यादा रचनात्मक इस्तेमाल किया गया। अब यह अन्य सभी प्रकाशन उद्योगों की कुल आय की तुलना में अधिक मुनाफा कमाता है, हालांकि एक कार्पोरेट समूह के रूप में स्टार ग्रुप ने हाल के वर्षों में अधिक मात्रा में सालाना कारोबार किया है।

मीडिया के क्षेत्र में आगे चलकर जिस चीज ने काफी खलबली पैदा की, वह था 2003 में बीसीसीएल द्वारा पैसे के बदले प्रकाशन यानी पेड कंटेंट की मीडियानेट नाम से सेवाएं आरंभ करना। इसके तहत पैसों के बदले पत्रकारों को किसी प्रोडक्ट के लांच या व्यक्ति से संबंधी कार्यक्रमों व घटनाओं को कवर करने के लिए भेजने का खुला प्रस्ताव दिया गया। जब दूसरे अखबारों ने इस तरह की गतिविधियों से पत्रकारिता के उसूलों के उल्‍लंघन का सवाल उठाया तो बीसीसीएल के अधिकारियों व मालिकों ने तर्क दिया कि इस तरह के एडवरटोरियल्स टाइम्स ऑफ इंडिया में नहीं छप रहे हैं। केवल वे शहरों के रंगीन स्थानीय पेजों के लिए हैं जिसमें ठोस खबरों के प्रकाशन के स्थान पर समाज की हल्की-फुल्की मनोरंजक बातों के बारे में सामग्री प्रकाशित की जाती है। यह भी कहा गया कि अगर जनसंपर्क से जुड़ी एजेंसियां पहले ही अपने ग्राहकों के बारे में खबरें छपवाने के लिए पत्रकारों को रिश्वत दे रही हैं तब इस तरह की एजेंसियों जैसे बिचौलियों के खत्म करने में क्या बुराई है।

मीडियानेट के अलावा बीसीसीएल ने एक और नए तरह की मार्केटिंग व जनसंपर्क की रणनीति ईजाद की। 2005 में वीडियोकॉन इंडिया और कायनेटिक मोटर्स समेत 10 कंपनियों ने बीसीसीएल को अघोषित कीमत वाले इक्विटी शेयर प्रदान किए ताकि उन्हें बीसीसीएल द्वारा संचालित मीडिया के विभिन्न प्रकाशनों में विज्ञापन के लिए जगह मिल सके। इस योजना की सफलता ने बीसीसीएल को भारत के सबसे बड़े निजी इक्टिवी निवेशकों में बदल दिया। 2007 के अंत में इस मीडिया कंपनी ने अन्य क्षेत्रों समेत उडान, खुदरा बाजार, मनोरंजन, मीडिया आदि क्षेत्रों की 140 कंपनियों में निवेश का दावा किया जिसकी कीमत 1500 रूपये के करीब थी। बीसीसीएल के एक प्रतिनिधि (एस.शिवकुमार) द्वारा जुलाई, 2008 को एक वेबसाइट को दिए गए इंटरव्यू के मुताबिक कंपनी के साथ 175 से 200 के बीच निजी समझौतें (प्राइवेट ट्रीटी) वाले ग्राहक जुड़े हुए हैं और उनके साथ 15 से 20 करोड़ रूपये वाले समझौते किए गए हैं। इस तरह कुछ निवेश 2600 करोड़ रूपए से लेकर 4000 करोड़ रूपए तक का किया गया है।

यह अलग बात है कि 2008 में स्टाक मार्केट के धराशायी होने के फलस्व़रूप बीसीसीएल द्वारा किए गए निजी समझौतों के उद्देश्यों की हवा निकल गई। बीसीसीएल द्वारा खरीदे गए विभिन्न‍ कंपनियों के शेयरों की कीमतें गिर गईं, उसके बावजूद मीडिया कंपनी को विज्ञापन की जगह देने के पुराने समझौते को पूरा करना पड़ा, वह भी शेयरों की पुरानी उंची कीमतों पर और उसे आमदनी में भी दिखाना पड़ा जिस पर टेक्स भी चुकाना पड़ता है।

निजी समझौतों की इस योजना का उद्देश्य टाइम्स ऑफ इंडिया में विज्ञापन की प्रतिस्पर्धा को कमजोर करना था, पर बाद में कई दूसरे अखबारों व टीवी चैनलों ने भी इसी योजना को आरंभ कर दिया। बीसीसीएल द्वारा शुरू की गई निजी समझौतों की योजना में इक्विटी निवेश के बदले निजी कंपनियों व विज्ञापनदाताओं के लिए विज्ञापन प्रसारित किए जाते थे, हालांकि कंपनी के अधिकारी इस बात से इंकार करते हैं कि निजी समझौते करने वाली कंपनियों व ग्राहकों के बारे में प्रशंसापूर्ण खबरें छापी जाती हैं या उनके बारे में आलोचना को छापने से रोका जाता है।

पर भले ही बीसीसीएल के प्रतिनिधि अपनी पत्र-पत्रकाओं व चैनलों में पैसे लेकर अनुकूल खबरें छापने व दिखाने की बात का खंडन करें पर सच यह है कि खबरों से जुड़ी ईमानदारी व निष्पक्षता में समझौता किया गया है। 4 दिसंबर, 2009 को इकोनामिक टाइम्स व टाइम्स ऑफ इंडिया में निजी समझौतों (प्राइवेट ट्रिटीज) की सफलता पर जश्न मानते हुए आधार पेज के रंगीन विज्ञापन छपे, ‘हाउ टू परफार्म द ग्रेट इंडियन रोप ट्रिकजिसमें पेंटालून का खास उदाहरण दिया गया। जो बताने की कोशिश की जा रही थी, वह यह थी कि टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के साथ पेंटालून की रणनीतिक साझेदारी ने किस प्रकार से लाभ पहुंचाया है। विज्ञापन के मुताबिक, मीडिया हाउस के लाभ के तौर पर टाइम्सन प्राइवेट ट्रिटीज (टीपीटी) अपने साझीदार पर आर्थिक बोझ कम करते हुए निवेशक की चिर-परिचित भूमिका से बाहर निकल गया। ऐसा इसलिए भी हुआ क्यों कि भारत के सबसे आगे रहने वाले मीडिया घराने के पास विज्ञापन की अतुलनीय ताकत है। जब पेंटालून का तेजी से विकास हुआ, टाइम्सी प्राइवेट ट्रिटीज ने भी पूरी कोशिश की कि उसे विज्ञापनों के लिए अखबार में पूरा स्पेस मिले। टीपीटी ने इसके लिए बेहतर शब्द  इजाद किया, ‘बिजनेस सेंस

कई मीडिया संगठनों में खबर को विज्ञापनों से अलगाने के लिए एडवरटोरियल या एडवरटीजमेंट जैसे शब्दी इस्तेमाल किए जाते हैं। विज्ञापनों के लिए अलग किस्म के फांट व फांट साइज, उनके चारों ओर लकीरें खींचने या स्पांसर्ड फीचर अथवा विज्ञापन में कहीं कोने में एडीवीटी जैसे शब्द बहुत छोटे आकार में लिखने का काम किया जाता है जो कई बार पाठकों की निगाह में पड़ता है और कई बार नहीं। जैसा कि टाइम्स ऑफ इंडिया के सिटी सप्लीमेंट के तौर पर छापने वाले दिल्ली टाइम्स के त्वंचा की देखभाल वाले प्रोडक्ट ओले के बारे में एक साल तक छपी स्टोरी अपने सारे खंडन या अखबार के द्वारा किए इंकार के बावजूद पेड न्यूज की ही श्रेणी में आती है। बीसीसीएल के प्रतिनिधि प्राय: यह कहते हैं कि कंपनी की प्राइवेट ट्रिटीज स्कीम किसी भी सार्वजनिक जांच के लिए खुली हुई है, क्योंकि जिन कंपनियों में बीसीसीएल की भागीदारी है, वह सब कुछ सार्वजनिक ही है और उसका अपनी वेबसाइट में उल्लेख है। पर बहस व विवाद का कारण कुछ और है। वह यह कि ये सभी कंपनियां अखबार में छपने वाली सामग्री को प्रभावित करती हैं।

इसी तरह सीएनएन-आईबीएन टीवी न्यू्ज चैनल पर प्रसारित रेजर ब्लेड बनाने वाली कंपनी जिलेट का विज्ञापन अभियान-वार अगेंस्टू लेजी स्टरबल में फीचर कथाएं व नामचीन हस्तियों के साक्षात्कार दिखाए गए। इसके अलावा इस मुद्दे पर पैनल की बहस आयोजित की गई कि मर्दों को शेव करना चाहिए या नहीं और इस निष्कुर्ष को पहले से इस बहस में केंद्र में रखा गया कि भारतीय स्त्रियां क्लीन शेव मर्दों को ज्यादा पसंद करती हैं। यह दावा किया गया कि जिलेट व सीएनएन-आईबीएन की साझेदारी दोनों के लिए लाभप्रद है। एडवरटोरियल से जुड़े ऐसे अन्य कई उदाहरण और भी हैं।

Tuesday, October 18, 2011

मीडिया परहेज करें अपराध खबरों से

मैं कोई नई विधा नहीं बता रहा हूँ जैसा सभी जानते हैं कि भारत सांस्कृतिक और लोकतांत्रिक देश है। जहां सभी को समान अधिकार प्राप्त हैं। इसके बावजूद यह अनेक विवादों और समस्याओं से लबालब भरा हुआ है और भरता ही जा रहा है। जिस हम मीडिया में आसानी से देख सकते हैं। वैसे मीडिया में आपराधिक कार्यक्रमों की बाढ़-सी आ गयी है। वह लगातार बढ़-चढ़कर उसका कवरेज कर रहा है। मीडिया ने अपने कार्यक्रमों के माध्यकम से क्षेत्रीय, धार्मिक, जा‍तीय एवं भाषाई विवादों का भी निर्माण किया है जिसमें अनेक संवेदनशील मुददों पर गंभीरतापूर्वक बहस को भी स्थान दिया है़ जो कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी रूप में सामाजिक सरोकरों से हमारा परिचय करवाती है। इन सामाजिक सरोकार के साथ-साथ मीडिया जन समस्याओं और आम लोगों की दु:ख-तकलीफों, उत्पीड़न, शोषण, प्रशासनिक बेरूखी और लापरवाही देह व्या‍पार एवं अंधविश्वास की समस्याओं से भी रू-ब-रू कराते रहते हैं। जो कहीं-न-कहीं किसी रूप में समाज में होने वाली अपराध घटनाओं को कम करने में सहायक सिद्ध होती हैं। इस आलोच्य में मीडिया से हम लोकतांत्रिक होने की आशा करते हैं। जो समाज में मौजूद विवधाओं के बावजूद एक लोकतांत्रिक समाज बनाने मदद करता है।

आम तौर पर देखा जाए तो जिस तरह से मीडिया कार्यक्रमों में निरंतर बदलाव हो रहें हैं जिस कारण से एक नई संस्कृति का उदभव हो रहा है। इस नई संस्कृति को भविष्य में होने वाले विनाशक के रूप में देखा जा सकता है। मीडिया विशेषज्ञों का मत है कि भारतीय मीडिया में नित्य नये प्रयोग किया जा रहे हैं। अगर हम संपूर्ण देश की तुलना भारतीय मीडिया से करें तो इतने समाचार चैनल वो भी एक भाषा में कहीं नहीं चल रहे होंगे। एक भाषा में चलने की वजह से मीडिया में प्रतिस्पर्द्धा बढ़ है। जो समय के साथ-साथ निरंतर गहरी होती जा रही है। इस प्रतिस्पर्द्धा के फलस्वरूप हर चैनल अलग दिखाने की कोशिश में लगा हुआ है। आज के आधुनिक जीवन में फेशन और क्राइम बड़ी खबरों के रूप में उभरकर सामने आयी हैं। सेलीब्रिटी आज एंकर बन गये हैं। जो पत्रकारिता में निरंतर बदलाव करने पर अमादा हैं। वर्तमान में मीडिया द्वारा खबरों को नये ढ़ग से परोसने का काम रहा है। जो मीडिया का अभिन्न अंग बन गया है। हालांकि मीडिया आज सच्चाई को या यर्थाथ को दिखाने से पहरेज करता रहता है वह केवल चटपटा मसाला और कंटेट को मिक्स कर खबरों का निर्माण कर रहा है। वह यह कहने से नहीं चूकता कि जो बिकता है उसी को परोसा जा रहा है। इसे हम बाजार की मांग भी कह सकते हैं।

इसके अनेकों उदाहरण हमारे आंखों के सामने से प्रतिदिन गुजरते रहते हैं जैसे राखी मीका का विवाद या मटुकनाथ का प्रेम प्रसंग। इन खबरों पर मीडिया ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और समाज के सामने परोस दिया। जिसे हम खबर कहे या एक संकट। जो हमारे लिए चितंन-मनन का विषय बना हुआ है। यह कहने में कोई दोराह नहीं होना चाहिए कि मीडिया दिनभर कचरा परोसता रहता है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीडिया अपराध से संबंधित खबरों व कार्यक्रमों पर जोर देने में लगा हुआ है जिसका ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। दिनप्रति अपराधों से संबंधित खबरें देख-देखकर दर्शक उबने लगे हैं। यह कहना गलन न होगा कि निजी चैनल लड़कपन से निकलकर परिपक्य युवा हुआ है जिसे समझदार होने में समय लग सकता है। यह मीडिया के लिए बदलाव का दौर है इसमें सबकुछ जायज है। इस सबकुछ के चलते मीडिया से कंटेट ही गायब हो गया है। बिना कंटेट की खबरें और बदलते वक्त से मुखातिक होने के कारण समाज का नजरिया भी बदल गया है और 24 घंटे अपराधों को दिखाने के कारण समाज के सभी वर्गों पर एक बुरा प्रभाव देखने को मिल रहा है। क्योंकि जिस तरह से मीडिया नई तकनीक का सहारा लेकर अपराध से संबंधित खबरों को दिखा रहा है वो हमारे दिलों-दिमाग में जल्दी ही अपनी पैठ बना लेती है जिससे हमारे अंदर भी अपराध करने की प्रवृति पनपने लगती है। जो समाज और आने वाली पीढ़ी के हित में नहीं है। मीडिया को चाहिए कि अपराध खबरों को सामाजिक हितों को ध्यान में रखकर दिखाना चाहिए न कि अपने हितों को।

Thursday, October 13, 2011

तत्काल की दुनिया

                                              तत्काल की दुनिया

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में दुनिया कहा से कहा पहुंचती जा रही है। हम कह सकते है कि चांद तक पहुंच चुकी है। पर चांद तक पहुंच के हम क्या करेंगे, ये किसी ने नहीं सोचा। शायद तब तक हमारा बजूद ही न रहे। परंतु पहले ऐसा नहीं था, सभी का बजूद होता था, लोग दिन-रात मेहनत करते थे और लंबी उम्र तक जीवित रहते थे। वो बीमार होते थे और बिना दवाईयों के जल्द ही स्वस्‍थ्‍य भी हो जाते थे। लेकिन आज के भागमभाग की दुनिया में ऐसा देखने को नहीं मिलता। आज की संस्कृति में लोग तत्काल के पीछे दौड़ रहे हैं। रेल व हवाई यात्रा के आरक्षण के लिए तत्काल, कहीं का प्रोग्राम बने तत्काल, किसी से प्यार हो तत्काल, प्यार के बाद रिश्ते बने और फिर बनके बिगड़ जाए तत्काल, स्कूल से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई तत्काल, कोई काम करना हो तो पैसे दो तत्काल, नेताओं को चुनाव के समय वोट चाहिए तत्काल, किसी बीमारी को ठीक करना हो तो डॉक्टर के पास जाओं तत्काल, एडस चाहिए तो बिना कंडोम के सेक्स करो तत्काल, जेल की हवा खानी हो तो अपराध करो तत्काल, जुर्म करके साफ निकल जाना हो तो जर्ज को खरीदो तत्काल, गरीबों का खून चूसना हो तो नेता बनो तत्काल, घोटाले करना हो तो ए राजा बनो तत्काल, समाज से भ्रष्टाचार मिटाना हो तो अन्ना हजारे बनो तत्काल, मरने के पहले अपनी प्रतीमा बनानी हो तो मायावती बनो तत्काल, मीडिया को बेचना हो तो प्रभु चावला बनो तत्काल, भारत में जुर्म फैलाना हो तो दाउद बनो तत्काल, परीक्षा में पास होना हो तो मुन्ना भाई बनो तत्काल, पढ़ाई पूरी हो चुकी है नौकरी चाहिए तत्काल, पता करना हो पेट में लड़का है या लड़की अल्ट्रा्साउड करवाओं तत्काल और बहुत से ऐसे काम जो तत्काल में किए जाते हैं या कर सकते हैं या हो रहे हैं।

ये तत्काल की दुनिया भी अजीबों-गरीब है। जिसको देख भाग रहा है तत्काल के पीछे। और भाग-भागकर खुद के वो सुखद पल जिनको वो जिया करता था, कब दुखद पल में तबदील हो गये हैं पता ही नहीं चला। अगर इसी तरह तत्काल के पीछे दौड़ते रहे तो ऐसा न हो एक दिन खुद तत्काल बनकर इस दुनिया से ही रूखसत हो जाओ और तुमको पता ही न चले तत्काल।

Sunday, October 9, 2011

पेड न्‍यूज या मीडिया की हवस

पेड न्‍यूज या मीडिया की हवस
मीडिया एक सामाजिक संस्था है। इसका उद्भव और विकास व्यक्तियों और समूहों की सांस्कृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन के रूप में हुआ था, लेकिन वर्तमान समय में इसका संचालन व्यापारिक संगठनों की तरह, से किया जा रहा है। हाल के वर्षों में मीडिया-व्यापार का अनेक कारणों और साधनों से तीव्र गति से विस्तार हुआ है। जिसका एक मुख्य कारण पेड न्यूज भी है, जो संभवत: एक दृष्टि से व्यापार के दबदबे के चलते मीडिया की रग-रग में समा चुका है। जिसका नकारात्मक असर कम करना मीडिया के लिए चुनौती है।
वैसे पेड न्यूजकोई नई तकनीक नहीं है। इसका जिक्र इतिहास के पन्नों में भी मिलता है। पहले यह लुक-छिप कर होता था, परंतु वैश्विकरण के दौर में यह खुलेआम हो रहा है। पेड न्यू‍जएक ऐसा बहुरूपिया है जो समय-समय पर अपना रूप बदलता रहता है। इस बदलते रूप के कारण मीडिया का समाज के प्रति दायित्व से भटकाव हो रहा है, जो वर्तमान सामाजिक यथार्थ में साफ देखा जा सकता है। अगर हम मीडिया में सामाजिक नियंत्रण की बात पर जोर दे तो हकीकत से रू-ब-रू हो सकते हैं, कि किस प्रकार मीडिया पर हावी बाजारीकरण इनकी आर्थिक जरूरतों की पूर्ति करता है। इस पूर्ति हेतु मीडिया अपने सामाजिक उत्तरदायित्व से भटक रहा है और पेड न्यूज का सहारा ले रहा है। भटकाव के इस दौर में मीडिया उच्चम समूह की पूर्ति अपनी अवश्यकताओं के साथ-साथ करता रहता है, क्योंकि ये उच्च वर्ग मीडिया पर ही निर्भर रहते हैं। चाहे वोटरों को लुभाना हो, किसी खास मुद्दे पर जनमत तैयार करना हो या अपने उत्पादकों को बाजार में बेचना। जिस कारण मीडिया में एक तबका नदारत होता जा रहा है। जबकि मीडिया सामाजिक संरचना का एक हिस्सा है, बावजूद इसके मीडिया की पूर्ण स्वायत्तता और नैतिकता सामाजिक दायित्वों से उन्मु्क्त होकर आर्थिक और राजनीतिक दशाओं पर प्राय: निर्भर पाया जाता है।
      इस आलोक में कहा जाए, तो इस बात में बहुत दम है कि मीडिया एक प्रभुद्ध वर्ग के लिए कार्य करता है। वह यथार्थ की ऐसी छवियां पेश करता है जिनसे आभिजात्य वर्ग के हितों की पूर्ति की दिशा में नये रास्ते् खुलते हैं। वह संसदीय लोकतंत्र में नौकरशाही तथा कॉरपोरेट घरानों की सामाजिक सत्ता और उनके मान-मूल्यों को बनाए रखने में अपनी अहम भूमिका देता है। इस परिप्रेक्ष्य में नोम चॉम्सकी ने कहा है कि, ‘मुक्ता बाजार अमी‍रों के लिए समाजवादहै, जनता कीमत अदा करती है और अमीर फायदा उठाता है- गरीबों के लिए बाजार और अमीरों के लिए ढेर सारा संरक्षण।
इसमें कोई संदेह नहीं कि मीडिया की प्रक्रियाओं में प्रकट या अप्रकट रूप से नियंत्रण का तत्व मौजूद रहता है। इस नियंत्रण की प्रक्रिया को ढ़ाल बनाकर मीडिया अपना हित साधने में प्रत्यनशील है। जिसके लिए कीमत का कोई मोल नहीं होता। मीडिया में दावन की भांति हावी पेड न्यूजआज एक गंभीर चुनौती बन चुकी है। चाहे मीडिया चिंतक हो, मीडिया विद् हो, विश्लेषक हो या फिर आलोचक सभी इस दावन रूप बाजारवाद के प्रभाव के सकते में हैं, कि क्या होगा आने वाले समय में मीडिया का। जिस प्रकार अपने हितों की पूर्ति के लिए मीडिया पेड न्यूजका सहारा लेकर अपनी हवस की पूर्ति करने में लगा हुआ है उससे साफ जाहिर होता है कि मीडिया में संपादक की जगह प्रबंधक ने हथियाली है। जिस वजह से मीडिया की खबरों में कंटेंट न होकर प्रबंधन की झलक देखने को मिल जाती है। मीडिया में प्रबंधन के संदर्भ में बात करें तो प्रबंधन ने प्रबंधक के कार्य-क्षेत्र में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है और इसका मूल मकसद सामाजिक सरोकार से नहीं बल्कि अपनी टी.आर.पी. से है, क्योंकि जिसकी टी.आर.पी. जितनी अधिक होगी, उसे विज्ञापन उतने अधिक मिलेंगे। इसके लिए वो खबरों पर ज्यादा ध्यान न देकर टी.आर.पी. पर देते हैं। और टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए खबरों का स्वरूप कैसा भी हो क्या फर्क पड़ता है। कमाई तो हो ही जाती है विज्ञापनों से। बाकी कमाई उच्च स्तर पर विराजमान सभी लोगों को खबरों के स्थानों को बेचकर पूरी कर ली जाती है। जिसे हम मीडिया और सामजिक दृष्टिकोण में पेड न्यू़ज कहते हैं। 
इस प्रकार खबरों के स्था्न को बेचकर मीडिया सामाजिक हितों की अनदेखी करता है। इस अलोच्य की गहराईयों में जाय तो मीडिया कर्मियों का कुछ भी रोल नहीं है, ये सारा माजरा मीडिया घरानों व उसको संचालित करने वाले प्रबंधकों की मिली-भगत का नतीजा है, जिसकी चपेट में सारा मीडिया समुदाय आ चुका है। अगर गौर करें तो इसका एक कारण बेरोजगारी भी है, जिस कारण से मीडिया कर्मियों को अपने मालिकों के बताए रास्ते पर चलना पड़ता है क्यों कि, इसका विरोध करने पर उनको कुछ हासिल होने वाला नहीं है, यदि हासिल होता तो बस.........,यह सभी जानते हैं, फिर आज के समय में कौन अपनी रोजी-रोटी पर लात मारना चाहता है। अत: मीडिया को जिस दिशा में चलाया जा रहा है उसे चलने की मजबूरी कहा जा सकता है, पर रजामंदी नहीं । और वो मजबूरी को मद्देनजर रखते हुए प्रबंधकों के हाथ की कठपुतली बन चुके हैं। जिस कारण मीडिया सामाजिक सरोकर से इतर होकर अपनी नैतिकता भूलता जा रहा है, जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीडिया को शर्मसार कर रहा है। यह शर्मसार चेहरा व्यक्तिगत से बढ़कर संस्थानिक हो गया है। यह स्थिति देश और समाज के हित में नहीं है। क्योंकि, जिस प्रकार खबर और विज्ञापन का अंतर समाप्त होता जा रहा है। उससे साफ प्रतीत होता है कि मीडिया अपनी भूख मिटाने के चलते अपनी नैतिकता दांव पर लगाता जा रहा है। जिस कारण मीडिया का वर्चस्व और पावर खत्म होने की करार पर खड़ा दिखाई दे रहा है।

Friday, October 7, 2011

लिव इन रिलेशनशिप का समाजशास्त्र

लिव इन रिलेशनशिप का समाजशास्त्र

            वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज (संस्कृति) बदल रहा है और इस बदलाव के साथ-साथ प्यार व शादी की परिभाषाओं में भी बदलाव हो रहा है। यह बदलाव सदियों से चली आ रही विवाहिक परंपराओं की बंदिशों को तोड़ने का काम कर रहा है। इस बदलाव का कारण अधिकांश लोग पश्चिमी सभ्यता को मानते हैं। हम इस बदलाव को पूर्ण रूप से पश्चिमी सभ्यता पर नहीं मढ़ सकते। यदि हमको इस बदलाव को जानना है तो इसके मूल कारणों की तह तक जाना पड़ेगा, और देखना होगा कि वो कौन-से मूल कारण हैं जिसकी वजह से भारतीय संस्कृति में इस तरह का परिवर्तन हो रहा है। यह परिवर्तन कितना जायज है और कितना नाजायज, इस पर बहस नहीं करनी चाहिए। क्यों कि, जब बदलाव के मूल कारण ज्ञात हो जायेंगे, तो स्वत: ही हमें पता हो जायेगा कि यह जायज है या नाजायज।
           वैसे सदियों की परंपराओं की जकड़न को तोड़ती आज की युवा पीढ़ी का मकसद कुछ भी हो, पर परंपराओं की बेडि़यां तो टूट रही हैं। इस टूटती बेडियों को आज की युवा पीढ़ी स्वतंत्रता का नाम देती है, कि हम स्वतंत्र हो रहे हैं। परंतु, ये कैसी स्वतंत्रता है जो मां-बाप, रिश्ते–नाते, लाज, हया, आदर, सम्मान सभी को ताक पर रख हासिल की जा रही है। भारतीय संस्कृति में ऐसी स्वतंत्रता मान्य नहीं है। वो आज भी सामाजिक नैतिकता और मान-सम्मान को अपना गौरव मानती रही है। जिसका दोहन पश्चिमी सभ्यता ने कर दिया है। और, जिसके पद चिंहों पर आज की भारतीय युवा पीढ़ी निकल पड़ी है। ये कहां जा रही है, कहां तक पहुंचेगी, किसी को नहीं मालूम। शायद मालूम भी नहीं करना चाहते, क्योंकि ‘आज जीओ, कल किसने देखा’ है। इस तर्ज पर जिंदगी जी जा रही है। इस तरह के जीवन यापन के लिए युवा इन दिनों दोस्ती, लिव इन रिलेशनशिप और शारीरिक जरूरतों की पूति को तेजी से अपना ट्रेंड बनाने में लगे हुए हैं। जिसकी मान्यता भारतीय न्यायालय ने भी दे दी है.
          'लिव-इन रिलेशनशिप' से तात्पर्य एक ऐसे रिश्ते से है जिसमें महिला-पुरूष सामाजिक तौर पर बिना शादी के साथ रहते हैं और इनके मध्य संबंध निर्विवाद रूप से पति-पत्नी जैसे ही होते हैं। इस रिश्ते की खासियत यह है कि महिला-पुरूष का भाव एक-दूसरे के प्रति समर्पण का होता है। अंतर केवल इतना है कि वे सामाजिक रीति-रिवाजों के अनुरूप शादी नहीं करते हैं। यह स्थिति वक्त के परिवर्तन के साथ-साथ आधुनिक संस्कृति का एक हिस्सा बन गई है। कहने का मतलब यह है कि आज की बदलती संस्कृति में युवक-युवतियां इतने आधुनिक हो गए हैं कि वे आपसी मेल-मिलाप, दोस्ती और सामाजिक रूढि़यों की जकड़ने से मुक्ति के लिए एक साथ पति-पत्नी के रूप में रहना खुद के लिए गौरव की बात समझते हैं। इस गौरव को चाहे तो हम इन लोगों की जरूरतों की पूर्ति का भी नाम दे सकते हैं।
          'लिव-इन रिलेशनशिप' एक प्रकार का दोस्ताना संबंध है जिसे विवाह की परिधि में नहीं रखा जा सकता। क्योंकि विवाह एक सामाजिक व पारिवारिक बंधन के साथ-साथ एक रिवाज भी है जिसकी अपनी एक आचार-संहिता है, मान-मर्यादा है, कानूनी प्रावधान हैं। वैसे लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिनों पहले परस्पर विरोधी फैसले दिए। इस फैसले में हाई कोर्ट ने लिव इन रिलेशनशिप को वॉक-इन, वॉक-आउट रिलेशनशिप की संज्ञा प्रदान की। इसके उलट सुप्रीम कोर्ट ने लंबे समय तक चलने वाले लिव-इन रिलेशन को शादी के बराबर दर्जा दिया और कहा कि इन संबंधों से उत्पन्न संतानों को भी पिता का जायज वारिस करार दिया जाएगा।
           मोटे तौर पर देखा जाए तो लिव-इन का तात्पर्य एक स्त्री और एक पुरुष का बिना विवाह किए सिर्फ आपसी रजामंदी से एक साथ रहना है। भारत में पारंपरिक रूप से ये रिश्ते प्रचलित नहीं हैं, जबकि आधुनिक पश्चिमी संस्कृति में नौजवान जोड़े अपनी सहमति और पूरे नैतिकता बोध के साथ लिव-इन करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य‍ में देखा जाए तो इस संबंध की शुरूआत शिक्षित और आर्थिक तौर पर स्वतंत्र, ऐसे लोगों ने की है, जो विवाह संस्थाओं की जकड़न से मुक्ति चाहते थे। हालांकि ऐसे कई कारणों से उच्च और उच्च मध्यवर्ग के शहरी युवा पीढ़ी में धीरे-धीरे लिव-इन रिलेशन का प्रचलन जोर पकड़ता जा रहा है। इस आलोक में दार्शनिक तौर से विवाह संस्थाओं से विद्रोह करने वाले भी लिव-इन रिलेशन में रह रहे हैं। ये लोग एक साथ रहने की आपसी सहमति और शादी की सहमति को बहुत सूक्ष्म नजरियें से देखते हैं। इसमें से कुछ लोग इस कारण से भी लिव-इन में रहना पसंद करते हैं क्योंकि वे अपने रिश्ते को व्यक्तिगत मामला मानते हैं, जिसमें वे नहीं चाहते कि उनका संबंध राजनीतिक, धार्मिक या पितृ सत्तात्मक संस्थानों द्वारा नियंत्रित किया जाए।
          अगर लिव-इन के संपूर्ण धरातल को देखा जाए तो यह केवल-और-केवल शारीरिक पूर्ति से जुड़ा हुआ है। जिस पर समूचे विश्व में शोध हो रहे हैं कि शादी से पहले इनके रिश्ते् कितने करीब आ जाते हैं या वो सब कुछ हो चुका होता है जिसे भारतीय सभ्य समाज में शादी के बाद जायज मानते हैं। खैर इस सब कुछ में क्या कुछ शामिल है, यह किसी से छुपा नहीं है। यदि ये युवा चाहे तो सब कुछ हो जाने के बाद भी स्वेच्छा से, अपनी-अपनी इच्छाओं की पूर्ति तथा शारीरिक माँगों की पूर्ति करने के बाद परिवारिक पसंद से शादी-ब्याह कर सकते हैं, और एक नई जिंदगी की शुरूआत भी कर सकते हैं। इस तरह केवल शारीरिक सुख देने वाला रिश्ता केवल इन्हीं सुखों से आरंभ होकर शीघ्र ही खानापूर्ति तक सिमटकर खत्म हो जाता है। इससे आगे ये युवा पीढ़ी लिव-इन के संबंधों को प्यार, दोस्ती, अधिक समय तक बरकरार रखना, या विवाह जैसा कोई नाम नहीं देना चाहते हैं।
इस आलोक में भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों पर प्रश्न चिंह लगाने वाले लिव-इन रिलेशन, एक ओर भारतीय समाज में पश्चिमी संस्कृाति का दर्शन कराते हैं, तो दूसरी ओर भारतीय युवाओं को शर्मसार भी करती है। ये युवा पीढ़ी भारतीय समाज को गुमराह करने वाले अवैध संबंधों को बढ़ावा देकर और लिव इन रिलेशन में रहकर, केवल अपनी शारीरिक जरूरतों को पूरी करते हैं और कर भी रहे हैं।
          इस परिप्रेक्ष्य में कहा जाये तो किस राह जा रहा है लिव इन रिलेशन, कुछ कहा नहीं जा सकता। वैसे महानगरों में आजकल इन रिश्तों ने काफी रफ्तार पकड़ ली है। लिव-इन रिलेशनशिप के मत में विद्वानों ने कहा कि ये रिश्ते कुछ समय के मेहमान होते है जो ज्या दा दिनों तक नहीं टिकते। गौरतलब है कि कुछ दशक पहले तक जिन रिश्तों को अमान्य माना जाता है वही रिश्ता आज की एक सचाई और फैशन बन चुके हैं. बहरहाल, विद्वान मानते हैं कि कम ही सही लेकिन भारतीय सामाजिक संस्कृरति और उच्चतम न्यायालय ने जिंदगी जीने के पश्चिमी तरीकों पर अपनी मोहर लगाई तो है। हालांकि कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि ये रिश्तेी सिर्फ अस्थायी इंतजामात हैं। जो शारीरिक जरूरतों की पूर्ति में सहायक सिद्ध होते है। तभी तो क्या अंतर है दो घंटे और दो साल की रिलेशनशिप में !
           धयातव्य है कि दो घण्टे के लिव इन रिलेशनशिप में स्त्री–पुरुष शारीरिक संबंध बनाते हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं माना जाएगा, क्योंकि इन रिश्तों को कानून तौर पर अमलीजामा पहना दिया गया है। हालांकि इस प्रकार की दो–दो घण्टे वाली रिलेशनशिप में कई लोगों से संबंध रखे जा सकते हैं। इस तरह के लिव-इन में रह रहे स्त्री–पुरुषों और वेश्यावृत्ति करने वालों में क्या अंतर रह जाएगा, मेरी समझ सीमा से बाहर की बात है। एक तरफ तो हमारे देश में वेश्यावृत्ति को अपराध माना जाता है, वही दूसरी तरफ विवाह किये बिना शारीरिक संबंध बनाने की छूट भी दे दी गई है। इससे अर्थ में यह साफ प्रतीत होता है कि जो शारीरिक जरूरतें थोड़ी अवधि के लिये बनाये जाये तो वेश्यावृत्ति मानी जायेंगी और यदि वही जरूरतों की पूर्ति लंबी अवधि के लिए की जाये तो उसे पवित्र कर्म माना जाये। ये कहा तक उचित है, सोचने वाली बात है।
          वैसे कुछ दिनों पहले अदालत ने ‘लिव इन रिलेशनशिप’ के रिश्तों को जायज ठहराया है जिसके पक्ष-और-विपक्ष में बहुत-सी प्रतिक्रियाएं सामने आई। इन प्रतिक्रियाओं में बहुत व्यक्तियों का तर्क था कि यह फैसला शायद विवाह जैसी सदियों पुरानी संस्थांओं के अस्तित्व को खतरे में डाल देगा। हालांकि परिवर्तन कौन नहीं चाहता, परिवर्तन शाश्वत नियम है जो होता ही है। मगर उस परिवर्तन के लिए पूरा जनमानस तैयार है, यह देखने वाली बात है.
          हालांकि न्यायालय हो या कोई और, किसी भी सामाजिक मुद्दे पर विचार व्यक्त करने से पूर्व उसे इस बिन्दु पर जरूर ध्यान देना चाहिए कि क्या भारतीय समाज इस तरह की अनैतिक रिवाजों को स्वी्कार कर सकेगा? क्या हमारा समाज इतना नंगा हो चुका है कि उसे अनियंत्रित स्वतंत्रता की जरूरत महसूस होने लगी है? इस तरह की स्वतंत्रता और नंगापन समाज के ऐसे भोगीयों की उपज है जो तमाम तरह के दुष्कृत्यों में लिप्त रहते हुए भोग के नए-नए साधनों की खोज में लगे रहते हैं, उन्हें बस शारीरिक सुख चाहिए। ऐसी स्वतंत्रता और भोगवादी संस्कृति मेट्रोज़ जीवन की शैली में विकसित होती जा रही है। इस भोगवादी संस्कृति को बढावा उन युवा वर्ग से मिलता है जो घर-परिवार से दूर रहकर जॉब कर रहे हों या पढ़ाई। उन्हें अपनी शारीरिक-मानसिक भूख को मिटाने के लिए ऐसे अनैतिक संबंधों की जरूरत पड़ रही है। वैसे अधिकांश लड़कियां नासमझी में और कुछ तो अपनी भौतिक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए लिव इन का सहारा लेती हैं।
          कुल मिलाकर यह मसला किसी नैसर्गिक आवश्यकता से नहीं जुड़ा है बल्कि भोगवाद का अतिरेक है। सार्वजनिक मंच पर रह-रहकर इस रिश्तों की बातें सुनने को मिल रही हैं कि लिव-इन रिलेशनशिप वक्त और हालात की मांग है. अगर हम संविधान की बात करें तो वह स्वयं ही अनियंत्रित स्वतंत्रता को अस्वीकार कर लेता है। यानी लिव-इन रिलेशन ऐसी स्वतंत्रता है जो भारतीय संस्कृति को हानि पहुंचा रही है। उसे तो खुद ही निरस्त कर देना चाहिए। ताकि लिव इन जैसी स्वच्छंदता जो समाज की सुस्थापित व्यवस्था और संस्कृति को हानि पहुंचाने में सक्षम है, उसे मानवाधिकार के रूप में परिभाषित करना या वक्त-हालात की जरूरत बताकर प्रोत्साहित करना उचित नहीं है। क्योंकि जीवन का भटकाव मनुष्य को चिता की ओर ले जाता है, जिसका अंत बड़ा भयावह होता है।

Wednesday, October 5, 2011

इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया : तलाश भारतीय मॉडल की


इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया : तलाश भारतीय मॉडल की

अपने शुरूआती दौर में यूरोप और अमरीका में पैदा हुआ नवीन मीडिया यानी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, जहां दुनियां के पैमाने पर एक मजबूत प्रतिक्रिया के रूप में लिया गया, वहीं भारत में मीडिया मुद्दों का उभार अपने शुरूआती दौर में एक अद्द संचार के अलावा कुछ नहीं था। कुछ गंभीर विश्लेषकों, समाज-विज्ञानियों, चिंतकों यानी बुद्धिजीवियों ने थोड़ा ज्या्दा गंभीर होकर भारत में भी मीडिया मुद्दों के उभार को स्थामपित सामाजिक मूल्यों के खिलाफ एक प्रतिक्रिया के अलावा कुछ नहीं माना.

सत्‍तर के दशक में पत्रकारिता के मूल मुद्दों के साथ-साथ मीडिया के हक में सवाल को तत्कालीन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संगठनों ने जब उठाना शुरू किया था तब तक मीडिया शब्दे न तो उतना प्रचलित हुआ था, और न ही शुद्ध अमरीकी-यूरोपीय मीडिया दृष्टिकोण ऐसे संगठनों के बीच विकसित हो पाया था। अस्सी के दशक के नवीन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भारतीय संस्करण का तत्कालीन इतिहास रचता है और इस दशक के अंत तक विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दृष्टिकोणों के स्थानीय विस्तार का क्षितिज भारत में फैलता नजर आता है। नब्बे के दशक के शुरू होने से पूर्व ही भारतीय संस्कृति-मूल्य-परंपरागत प्रतीकों के जरिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का स्थाननीय यानी भारतीय प्रारूप तलाशने की कोशिश का विस्तार होता है और भारतीय इतिहास में मीडिया बिंबों को तलाशने की कोशिश भी होती है। नब्बे के दशक के बीचोबीच खड़ा भारतीय मीडिया एक साथ कई ज्वलंत प्रश्नों से जूझ रहा है। ऐसा लगता है कि इस समय भारत में मीडिया चिंतन लगभग हर स्तर पर, एक पुनर्मूल्यांकन की प्रक्रिया के दौर से गुजर रहा है।

प्रश्न यह है कि विभिन्न मीडिया नजरियों की सही-सही व्याख्या भारतीय समाज की स्था्नीकृत विशेषताओं, सांस्कृतिक, पारिस्थितिक, पर्यावरण और भौगोलिक राजनीतिक आदि के संदर्भ में, संभव है क्या। यदि हां तो संभावनाएं और प्रासंगिकताएं आखिर क्या और कैसी हैं

मीडिया ढेर सारे ऐसे प्रश्नों से जूझ रहा है, अपने लगभग 20 साल की उम्र में। ढाई दशक एक व्यक्ति की उम्र का यौवनकाल होता है, लेकिन एक उम्र के लिहाज से यह शैशवकाल भी हो सकता है और प्रौढ़ावस्था भी। वह इस बात पर निर्भर है कि मीडिया के मुद्दे क्या हैं, मुद्दों की प्रकृति क्या है, मुद्दे का हरपक्षीय कैनवास कितना सीमित या विस्तृत है। इस मानदंडों के आधार पर भारतीय समाज में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए 20-25 वर्ष शैशवकाल से ज्यादा कुछ नहीं. किंतु यदि यह शैशवकाल है तो एक शिशु गंभीर और बुनियादी सवालों से जूझ कैसे रहा है। क्याम भारतीय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया समय से पहले परिपक्व् होना चाहता है. यह 20-25 साल नवीन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की उम्र है, न की संपूर्ण मीडिया की. सवाल तो यह भी है कि अगर ऐसा है तो नवीन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की उम्र संपूर्ण मीडिया के समकक्ष आंकी ही क्यों जाए। यह तो बात दुनिया के पैमाने पर भी लागू होती है. भारत में मीडिया दृष्टिकोण (जिसे भले ही मीडिया का दर्जा न मिला हो) तो यहां की संस्कृति में मौजूद रहा है. तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की पैदाइश जब नहीं हुई थी, तो क्या भारत में या दुनिया में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जैसा जज्बा, संस्कृति, व्यवहार आदि था ही नहीं, मैं इतिहास की गलियों में भटककर वहां से मीडिया या मीडिया की उत्पत्ति को तलाशने की बात नहीं करता. मेरा मतलब सिर्फ यह है कि आज भारतीय मीडिया को इस बुनियादी सवाल से जूझने की जरूरत है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से उधार ली गई संस्कृति के वाहक मीडिया चिंतन, विश्लेषण और कार्यपद्धति को जिसकी असफलताएं दुनियां के तथाकथित विकासशील देशों में पिछले डेढ़ दशको में साबित की जा चुकी हैं, यहां से अपनी जमीन से कैसे अलग करना है। 20 वर्ष की उम्र में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को इस बुनियादी सवाल से जूझना है कि भारत में मीडिया का भारतीय मॉडल क्या होना चाहिए।

अब यह कहने का वक्त गुजर चुका है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रारूप ने भारतीय मीडिया की अधकचरी संस्कृति को ओढ़ने-बिछाने वाले एक छोटे से तबके को भले ही कुछ दे दिया हो, एक आम भारतीय समाज के लिए उसका कोई मूल्य या महत्व नहीं। यह क्लासका मीडिया मासका मीडिया बन ही नहीं सकता। तो भारत की मीडिया के लिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दावों, विश्लेषणों, व्यारख्याओं की प्रासंगिक तस्वीर कैसी होनी चाहिए, यह सबसे गंभीर और बुनियादी सवाल 20 वर्ष की उम्र में एक औसत भारतीय मीडिया की तरह वक्त से पहले परिपक्‍व हो चली भारतीय मीडिया की आंखों में चस्पां है।

Tuesday, October 4, 2011

गांधी और नेहरू की तरह क्यों याद नहीं करते लालबहादुर शास्त्री और भगत सिंह को

2 अक्टूबर यानी गांधी जंयती, पूरे भारत में बड़े धूम-धाम से मनायी गई. समस्त  भारतवासियों ने गांधी को याद किया और उनकी याद में हर साल की तरह इस साल भी जगह-जगह कार्यक्रमों का आयोजन किया गया. परंतु, लगभग देशवा‍सी उस शक्स को भूल गये, जिसका योगदान भी भारत की आजादी में रहा. हां मैं बात कर रहा हूं- लाल बहादुर शास्त्री जी की. जिसको कुछ एक लोगों ने ही याद किया. बाकि सभी गांधी जंयती के जश्न में चूर रहे. सही बात है बड़े लोगों को ही ज्यादा तबज्जों दी जाती है छोटे लोगों को कौन पूछता है. जिस तरह 24 सितंबर का दिन कुछ लोगों को ही याद‍ रहता है, बाकि सभी ....................   हां मैं भगत सिंह की ही बात कर रहा हूं, सभी अपने अंतरमन में झांककर बोलिए कितने लोगों ने 24 सितंबर के दिन भगत सिंह को याद किया. या फिर 2 अक्टूबर के दिन लाल बहादुर शास्त्री जी को.

इस तरह का भेदभाव कितना उचित है कितना अनुचित. कौन बता सकता है. क्या  भगत सिंह या लाल बहादुर शास्त्री ने आजादी की लड़ाई में अपना योगदान नहीं दिया. क्याय केवल-और-केवल अहिंसा के बल पर भारत को आजादी नसीब हो सकी. सोचने की बात है. यदि कोई यह नहीं सोच सकता तो सोचों कि हम उन लोगों को क्यों याद कर लेते है जिसका सरोकर हमको हमारा हक दिलाने में था भी और नहीं भी या फिर जातिगत था, धार्मिक था, या बाहुबली.

ऐसे बहुत सारे महान लोग है जिनको याद किया जा सकता है. परंतु नहीं. हम याद क्यों करें, यही सोच में सभी मदहोश रहते है. यदि पूरे भारत में देखा जाए तो लगभग अधिकांश जगहों पर गांधी, नेहरू और इंदिरा गांधी की प्रतिमायें दिख जायेंगी, यहां तक कि भारतीय मुद्रा पर भी इन्हीं लोगों का दबदबा बरकरार है, परंतु खोजने पर भी भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, लालबहादुर शास्त्री की प्रतिमायें या मुद्रा नहीं मिलेंगी. इसका क्यां कारण है कोई हमको बता सकता है. शायद किसी के पास इसका कोई जबाव न हो. बड़े शर्म की बात है क्योंकि यहां भी कहीं-न-कहीं इन लोगों की जाति ही जिम्मेदवार है यदि ये लोग भी उच्च जाति के होते, तो इन लोगों को भी गांधी, नेहरू की तरह याद कर लिया जाता.

कुछ बड़े विद्वानों का मत है कि गांधी तेरे देश में भांति-भांति के लोग, क्या  यह देश सिर्फ गांधी का ही है, नहीं यह देश सिर्फ गांधी का नहीं है यह देश उन सभी का भी है जिन्होंने अपना खून बहाकर इस देश को आजादी दिलाने में बराबर का योगदान दिया. मैं गांधी की अलोचना नहीं कर रहा हूं, पर मैं उन सभी लोगों को याद दिलाने की कोशिश कर रहा हूं जिनकी कुर्बानी से आज हम आजाद हैं, ये मेरे वतन के लोग जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो वो कुर्बानी.