सरोकार की मीडिया

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Friday, September 30, 2011

एक वोट का लोकतंत्र और उसकी राजनीति

भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जहां चुनाव के जरिये सरकार का निर्माण किया जाता है और वही सरकार आम जनता पर राज्य करती है. अपनी हुकूमत चलती है अपने द्वारा निधारित कानूनों को समय-समय पर लागू करती रहती है. जो उनके पक्ष में हो केवल उन्हीं कानूनों को. बाकी सभी कायदे-कानून बनते ही है टूटने के लिए.

आज का लोकतंत्र एक वोट पर टिका हुआ है, सभी राजनैतिक पार्टियां एक वोट की राजनीति करती है. और कर रही है. यह वही वोट है जो एक पार्टी को सत्ता में लाता है और एक पार्टी को विपक्ष में खड़ा होने के लिए मजबूर कर देता है. इस एक वोट के गुनताड़े के लिए पार्टियां जनता से न जाने कितने झूठे वादे करते हैं, और जनता आस्‍वत होकर इनके झूठे बहकावे में अकसर आ ही जाती है. जैसे-जैसे समय बीतता है इन नेताओं के द्वारा किए गए वादों की पोल भी खुलती रहती है. और जनता सिर्फ एक ही गाना गुनगुनाती है. क्या हुआ तेरा वादा. और इनके पास कोई चारा नहीं बचता.

इन नेताओं के झूठे वादे पर टिकी सरकार अकसर चल ही जाती है कभी धर्म के नाम पर, तो कभी जाति के नाम पर., आखिर सरकार तो बन ही जाती है. बिना किसी रोक-टोक के. उस एक वोट से, जिसके पीछे यह दिन-रात एक करते हैं. अगर देखा जाए तो चुनाव में किसको कितने वोट मिले यह मायने नहीं रखता, मायने तो बस यह रखता है कि कौन-सी पार्टी को जीत मिली और किस पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा. इस एक वोट की जुगाड़ करने के लिए अधिकांश पार्टियां हत्याक, लूटपाट, आतंकवाद, चोरी-डकैती आदि तमात घटनाओं को अंजाम देने से भी पीछे नहीं रहती. वो भी मात्र एक वोट के लिए.

इस एक वोट की राजनीति पर टिकी सरकार किसका कितना भला कर रही है और कितना भला हुआ है, यह जग जाहिर हो चुका है. अगर इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो आजादी के बाद से अब तक न जाने कितनी सरकारें आई और न जाने कितनी आके चली गई. उनके द्वारा निर्धारित की गई प्रणालियों, नीतियों से अब तक कितना विकास हुआ भारत का. समझ से परे की बात लगती है. क्या, आर्थिकीकरण और पूंजीवादी व्यवस्था  का हावी होना विकास की परिभाषा है. गरीबों की जमीनों का अधिकारण करना, और अपनी तिजौरियों को भरना, ही विकास है, एक सरकार बनती है तो कुछ नये कार्यों की नीतियां निर्धारित होती है जैसे ही दूसरी सरकार आती है तो पहले की नीतियां पता नहीं कहां विलुप्त हो जाती हैं. यह विकास का कौन-सा पैमाना तय करती है. यह तो सत्ता पर काबिज सरकार ही आसानी से बता सकती है. कि अब तक कितना विकास हुआ. कितना हो रहा है और कितना होगा. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि विकास नहीं हुआ है, विकास तो हुआ है पर किसका, अमीरों का, उच्च वर्गों का. क्या गरीब जनता का विकास हुआ है, वो तो आज भी अपने परिवार को दो वक्त की रोजी-रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है. इस डायन मंहगाई के दौर में. और नेता बात करते है विकास की, कि विकास तो हो रहा है, नजरिये-नजरिये का फर्क है. अपना नजरियां बदलो. देखा हमारी दृष्टि से. हम क्या देखें इनकी दृष्टि से, एक वोट की राजनीति को जो सदियों से चली आ रही है. और शायद चलती ही रहेगी. जिसके लिए हम ही जिम्मेदार है. जो बार-बार इनके बहकावे में आ जाते हैं. जब उस सरकार से पीडि़त होते है तो दूसरी और जब उससे पीडि़त होते है तो तीसरी, यही रोना सदियों से हो रहा है. जो एडस की तरह लाईलाज हमारे समाज को दीमक की भांति खोखला बना रहा है. जिसका इलाज किसी न किसी को तलाश करना पड़ेगा, नहीं तो एक वोट की राजनीति का शिकार एक दिन हम सब को कहीं फिर न गुलाम बना दें.

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