सरोकार की मीडिया

test scroller


Click here for Myspace Layouts

Wednesday, September 28, 2011

मीडिया का बदनाम चेहरा

आम तौर पर मीडिया का जो चेहरा हमारे सामने आता है वो स्‍वच्‍छ–साफ होता नहीं दिखाया जाता है. जिसमें हमको कोई बुराई नजर नहीं आती. परंतु यह सच्‍चाई नहीं है, परत-दर-परत, नकाब-पे-नकाब लगा हुआ चेहरा हमारे सामने परोसा जाता है, और पर्दे के पीछे की सच्‍चाई से हम रूबरू नहीं हो पाते. किस तरह मीडिया खबरों को बनाकर हमारे सामने परोसने का काम करती है यह जग जाहिर है, बावजूद इसके हम उन खबरों पर आंख मूंद कर विश्‍वास कर लेते हैं. शायद यह हमारी मजबूरी है. इसके अलावा और कोई रास्‍ता नजर नहीं बचता. क्‍योंकि सभी स्‍तंभ पूर्ण रूप से खोखले हो चुके है, हम यह कह सकते है कि अभी भी चौथे स्‍तंभ में जान बाकी है, पूरी तरह से खोखला नहीं हुआ है. हां यह बात और है कि कुछ एक मछलियों ने पूरे मीडिया समुदाय को गंदा कर दिया है. जिस प्रकार गेंहू के साथ घुन भी पीस जाता है और पता नहीं चलता, ठीक उसकी प्रकार मीडिया के कुछ बदनाम चेहरे जो मीडिया को दलदल की तह तक पहुंचाने का काम कर रहे हैं उनके साथ स्‍वच्‍छ, साफ छावि और ईमानदार लोग भी बदनामी का दंश झेलने को मजबूर हैं..
देखा जाए तो स्‍वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारत में मीडिया की लड़ाई, मीडिया की आवाज अंग्रेजों के खिलाफ थी, खुद को और आने वाली पीढ़ी को स्‍वतंत्रता दिलाना उनका एक मात्र मकसद था. जिसके लिए मीडिया कोई भी कीमत चुकाने को तैयार था और कीमत चुकाई भी. हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि आजादी की लड़ाई में जितनी भूमिका क्रांतिकारियों, नेताओं की रही, उतनी ही भूमिका मीडिया ने भी निभायी. आखिरकार 15 अगस्‍त 1947 को अंग्रेजों के जुल्‍मों से भारत को आजादी मिल गई, आजादी मिलने के बाद लगा की हम स्‍वतंत्र हो गये हैं, परंतु ऐसा नहीं था. अंग्रेजों के जुल्‍मों–सितमों के बाद जिन नेताओं को हम अपना रहनूमा मान बैठे थे, उन्‍होंने भी हम पर कहर बरपाना शुरू कर दिया. हालात ऐसे हुए जो अमीर थे वो और अमीर होते चले गये, और जो गरीब से उनकी स्थिति बद-से-बदतर होती चली गई. लगा कि कोई हमारी लाज बचाने नहीं आएगा. तब मीडिया ने अपनी शक्ति से सभी को वाकिफ करवाया. और पीडि़तों की आवाज बनकर समाज और बाहुबलियों के सामने खड़ा हो गया. गरीब व शोषित जनता को लगा कि मीडिया श्रीकृष्‍ण की भांति हमारी लाज बचाने आ गये हैं, परंतु जल्‍द ही उनका यह भ्रम भी टूटता चला गया.
आधुनिकीकरण और पूंजीवादी व्‍यवस्‍था ने मीडिया को भी अपनी चपेट में ले लिया. मीडिया अब गरीब जनता और पीडि़त व्‍यक्ति को न्‍याय दिलाने के लिए नहीं, बल्कि मात्र खबरों के रूप में इस्‍तेमाल करने लगा. क्‍योंकि पूंजीवादी व्‍यवस्‍था जिस प्रकार समाज पर हावी होती गई, मीडिया पर उसका असर साफ दिखाई देने लगा. अब आलम यह हो चुका है कि समाज की नजरों में मीडिया की छवि श्रीकृष्‍ण से कंस में तबदील हो चुकी है. हम पूरे मीडिया समुदाय को कंस नहीं कह सकते, शकुनी, द्रोणाचार्य, भीष्‍म पितामाह, धृष्‍ट्रराज, द्रोयोधन, युधिष्‍टर, अर्जुन, भीम का भी दर्जा दे सकते हैं. जो अपनी कूटनीतियों में माहिर हो चुके हैं. उनको समाज से कोई सरोकार नही. वो खबरों को परोसने के साथ-साथ चटखारे भी ले रहे हैं, उससे उसको टी.आर.पी. मिल रही है, एक होड़ मची हुई है. कौन सबसे पहले द्रौपदी को दांव पर लगायेगा, कौन सबसे पहले उसको नंगा करेगा. उसके लिए वह कुछ भी कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं, क्‍योंकि मीडिया को द्रौपदी के नंगे होने में फायदा नजर आता है उसकी इज्‍जत बचाने में नहीं. मीडिया द्रौपदी जैसी न जाने कितनी महिलओं को नंगा करके परोस चुका है और कहता है, कि जो बिकता है उसी को दिखाया जाता है. शायद यह एक पहलु की हकीकत है कि समाज में व्‍याप्‍त पुरूष मानसिकता अब भी उसी पुरजोर तरीके से अपनी पकड़ बनाये हुए है, जिसका फायदा लगातार मीडिया उठाता आया है, और उठा भी रहा है. दूसरा पहलू यह भी है कि मीडिया गरीब व पीडितों (महिलायें भी शामिल) को अपनी ठाल बनाकर वार करता है, और खबरों को नमक-मिर्च लगाकर बार-बार नंगा करता है. मैंने पहले ही कहा है कि मीडिया में अब भी ऐसे लोग मौजूद हैं, जो मीडिया की साख बचाये हुए हैं, और गरीबों व पीडितों को खबर बनाकर नहीं बल्कि, उनको न्‍याय दिलाने के लिए लड़ते नजर आते हैं, परंतु इनकी संख्‍या 10 में 1 या 2 ही है, बाकी सब-के-सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं. इनमें से कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनको हम अपना आइकन मानते थे, समाज में उनकी अपनी एक अलग पहचान थी. परंतु पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के मोहमाया जाल की जकड़न से खुद को नहीं बचा पाए. और, समाज को नेताओं की भांति अपने मतलब की वस्‍तु व बिकाउ बना दिया.
मैं मीडिया पर टिप्‍पणी नहीं कर रहा हूँ, मैं तो बस मीडिया का बदनाम चेहरा दिखाने की कोशिश कर रहा हूं, जिससे समाज अभी तक बाकिफ नहीं हो पाया है, इस आलोक में यह भी कहा जा सकता है कि इस तरह मीडिया का चेहरा बदनाम होता गया तो वो दिन दूर नहीं जब समाज का भरोसा मीडिया पर से पूरी तरह उठ जाएगा, और मीडिया शेयर बाजार के सेंसेक्‍स की तरह औंधे मुंह गिर पड़ेगा. अभी भी वक्‍त है वक्‍त रहते चेत जाए तो ठीक है नहीं तो मीडिया के पास पछताने के अलावा और कोई चारा नहीं बचेगा.

No comments: